बचपन पर तपिश
अक्सर यह सवाल विमर्श में होता है कि धरती के प्रति गैर-जिम्मेदार व्यवहार के चलते हम कैसा देश आने वाली पीढ़ियों के लिये छोड़कर जाएंगे। वायु प्रदूषण की विभीषिका, गहराते जल संकट, सिमटते प्राकृतिक संसाधन व रोजगार की विसंगतियों के बीच आने वाली पीढ़ी के बच्चों का जीवन निस्संदेह संघर्षपूर्ण होगा। चिंता की बात यह है कि इन तमाम विसंगतियों व नेतृत्व की अदूरदर्शिता के बीच बच्चों के भविष्य पर जलवायु संकट का खतरा अलग से मंडराने लगा है। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र बाल कोष यानी यूनिसेफ ने बच्चों के भविष्य की तस्वीर उकेरते हुए विभिन्न चुनौतियों के मुकाबले के अनुरूप नीति निर्माण की जरूरत बतायी है। यह एक हकीकत है कि वर्ष 2021 तक भारत बच्चों पर जलवायु जोखिम सूचकांक में 163वें स्थान पर रहा है। लेकिन इस सदी के मध्य तक स्थिति खासी चुनौतीपूर्ण होने की आशंका है। यूनिसेफ का आकलन है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते वर्ष 2050 तक बच्चों को वर्ष 2000 की तुलना में आठ गुना अधिक तपिश झेलनी पड़ सकती है। दरअसल, हाल ही में यूनिसेफ ने ‘द फ्यूचर ऑफ चिल्ड्रेन इन चेंजिंग वर्ल्ड’ शीर्षक अपनी सालाना रिपोर्ट में भारत में बच्चों के भविष्य को लेकर उत्पन्न चुनौतियों का मंथन किया है। इस रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि साल 2050 तक भारत में 35 करोड़ बच्चे जनसांख्यिकीय बदलावों, जलवायु संकट और तकनीकी बदलावों की चुनौतियों का सामना कर रहे होंगे। दरअसल, यूनिसेफ ने सदी के पांचवें दशक तक की तीन महत्वपूर्ण वैश्विक प्रवृत्तियों का खाका खींचा है। ये घटक नौनिहालों के भविष्य के जीवन को नया स्वरूप देने में अहम भूमिका निभाएंगे। उल्लेखनीय है कि उस समय देश जनसांख्यिकी बदलावों की चुनौती से जूझ रहा होगा। आकलन किया जा रहा है कि इस बदलाव के चलते ही वर्तमान की तुलना में बच्चों की संख्या में करीब दस करोड़ की कमी आएगी। ऐसे वक्त में जब पूरी दुनिया में एक अरब बच्चे वर्तमान में उच्च जोखिम वाले जलवायु खतरों का मुकाबला कर रहे हैं, तो 2050 की स्थिति का सहज आकलन किया जा सकता है।
निस्संदेह, यूनिसेफ की हालिया रिपोर्ट भविष्य की चिंताओं पर मंथन करने तथा उसके अनुरूप नीति-नियंताओं से नीतियां बनाने का सबल आग्रह करती है। खासकर लगातार गहरे होते जलवायु संकट के बीच बच्चों की सेहत, शिक्षा और पेजयल जैसे जीवन के जरूरी संसाधनों की सहज उपलब्धता की दृष्टि से। दरअसल, मौजूदा दौर में जिस तेजी से गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ रहा है, अनुमान लगाया जा रहा है कि वर्ष 2050 तक देश की आधी आबादी शहरों में रह रही होगी। जाहिर है ऐसी स्थिति में पहले से आबादी के बोझ तले दबी नागरिक सेवाएं चरमरा जाएंगी। ऐसे में सत्ताधीशों के लिये जरूरी होगा कि जलवायु परिवर्तन के संकट के बीच बच्चों के अनुरूप शहरी नियोजन को अपनी प्राथमिकता बनाएं। इसमें बच्चों की शिक्षा, उनकी सेहत और कौशल विकास की जरूरतों के अनुरूप शहरी तंत्र को विकसित करें। निश्चित रूप से इसके लिये बड़े निवेश की भी जरूरत होगी। तेजी से डिजिटल होती दुनिया में डिजिटल विभाजन भी एक बड़ी चुनौती होगी। तब तक कृत्रिम मेधा का प्रयोग चरम पर होगा। जाहिर है कृत्रिम मेधा जहां तरक्की का मुख्य साधन होगी, वहीं इसकी विसंगतियों का प्रभाव रोजगार के अवसरों पर भी पड़ेगा। जहां दुनिया के विकसित देशों में अधिकांश आबादी इंटरनेट से जुड़ने के कारण प्रगति की राह में सरपट दौड़ रही है, तो गरीब मुल्कों में यह प्रतिशत विकसित देशों के मुकाबले करीब एक चौथाई ही है। ऐसे में समतामूलक समाज की स्थापना के लिये डिजिटल डिवाइड को खत्म करना प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके मद्देनजर हमारी कोशिश हो कि आधुनिक प्रौद्योगिकी का स्वरूप समावेशी हो। ताकि आधुनिक तकनीक तक बच्चों की समान व सुरक्षित पहुंच हो सके। निर्विवाद रूप से बच्चे आने वाले कल के लिये देश का भविष्य निर्धारक होते हैं। ऐसे में हर लोक कल्याणकारी सरकार का नैतिक दायित्व है कि अपनी रीतियों-नीतियों में बच्चों के हितों व अधिकारों को प्राथमिकता दे। तभी हम उनके सुखद भविष्य की उम्मीद कर सकते हैं।