खामोश रहकर खुद को तपाने में ही कामयाबी
डॉ. योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
यह हमारे दौर का बड़ा संकट है कि लोग रातो-रात कामयाबी हासिल करने के सपने देखने लगते हैं। लेकिन उसके लिये जो परिश्रम व धैर्य हमारी सफलता के लिए चाहिए होता है, उसके लिए हम पूरी तरह प्रतिबद्ध नजर नहीं आते। यह वक्त की विडंबना ही कही जाएगी कि हर किसी व्यक्ति को हर चीज फटाफट ही चाहिए होती है। आज जाने क्या हो गया है नई पीढ़ी को कि हम हर समय सफलता पाने के लिए ‘शार्ट कट’ ढूंढ़ने लगे हैं। सब जानते हैं कि सफलता ‘परिश्रम की चेरी’ होती है, लेकिन फिर भी मन यही चाहता है कि ‘हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाए।’
यह सर्वविदित तथ्य है कि कड़े परिश्रम से ही सफलता का आलिंगन किया जा सकता है। इस तथ्य को नई पीढ़ी भूलने लगी है। विश्व साहित्य में सम्मिलित हिन्दी महाकाव्य ‘कामायनी’ में महाकवि जयशंकर प्रसाद ने प्रलय के पश्चात ‘चिंता’ में डूबे मनु को यही तो संजीवनी मंत्र दिया था, जिसे आज की भौतिकतावादी भागदौड़ में हमने भुला दिया है :-
‘तपस्वी! क्यों इतने हो क्लांत?
वेदना का यह कैसा वेग?
आह, तुम कितने अधिक हताश,
बताओ, कैसा यह उद्वेग?’
जीवन का सबसे बड़ा सच तो यही है न कि जब हम हिम्मत हार जाते हैं, तो सफलता दूर छिटक जाती है। सही मायने में हिम्मत और दृढ़ विश्वास से हारी बाजी भी जीत में बदल जाती है। सारे दुनिया जहान को फक्कड़ मस्त कबीर तो युगों से चेताता आ रहा है :-
‘करता था तो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहां से खाय।’
कहने का अभिप्राय यह है कि यदि हमने अपनी सफलता के अच्छे बीज बोये तो जीवन की बगिया में निश्चित रूप से फलदार वृक्ष फलों से लद जाएंगे। लेकिन यदि हमने बुराई और अकर्मण्यता के बीज बोये तो मीठे फलों की कैसे उम्मीद कर सकते हैं?
आज फिर एक शुभचिंतक ने मुझे ‘सफलता’ का रहस्य समझाने वाली बड़ी रोचक बोधकथा भेजी है। जो इतनी प्रेरक व अनुकरणीय है कि इस पाठकों के साथ साझा किया जाना दायित्व बनता है।
‘प्राचीन समय की बात है। एक बार एक नौजवान लड़के ने बुजुर्ग से पूछा कि मुझे विस्तार से बताएं कि वास्तव में सफलता का रहस्य क्या है? बुजुर्ग युवक का सवाल सुनकर जोर से हंसे और बोले कि तुम कल मुझे नदी के किनारे मिलो, तुम्हारे सवाल का जवाब वहीं दूंगा। अगले दिन बुजुर्ग और नौजवान नदी किनारे मिले। तभी बुजुर्ग ने नौजवान से उसके साथ नदी की मंझधार की तरफ बढ़ने को कहा। बुजुर्ग की बात का विश्वास करके युवक ने ऐसा ही किया। और जब, आगे बढ़ते-बढ़ते नदी का पानी युवक के गले तक पहुंच गया, तो अचानक बुजुर्ग उस लड़के का सिर पकड़ कर पानी में डुबोने लगा और युवक छटपटाने के साथ ही बुजुर्ग के पंजे से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने लगा। हुआ यह कि बुजुर्ग ताकतवर था और उसने युवक को तब तक डुबोये रखा, जब तक वो मरणासन्न नहीं हो गया। फिर बुजुर्ग ने उसका सिर पानी से बाहर निकाल दिया। सिर बाहर निकलते ही जो चीज उस लड़के ने सबसे पहले की, वो थी ‘हांफते-हांफते तेजी से सांस लेना’। बुजुर्ग ने उसकी पीठ सहलाते हुए पूछा, ‘जब तुम डूब रहे थे, तो तुम सबसे ज्यादा क्या चाहते थे?’
लड़के ने उत्तर दिया, ‘सिर्फ सांस लेना।’ इस पर उन बुजुर्ग ने कहा, ‘बस, यही सफलता का रहस्य है। जब तुम सफलता को भी उतनी ही बुरी तरह और शिद्दत से चाहोगे, जितना कि तुम ‘सांस लेना’ चाहते थे, तो सफलता तुम्हें मिल जाएगी।’ इसके सिवाय और कोई रहस्य सफलता पाने का संसार में नहीं है।’
निःसंदेह, यह उदाहरण आज भी प्रासंगिक है। यह सोलह आने सच है कि अपने जीवन में जिस चीज़ को पाने के लिए हम प्राणों को बचाने जैसा परिश्रम करने का जज्बा खुद में पैदा कर लेंगे, निश्चय जानिए कि वो चीज हम को अवश्य मिल जाएगी। कहने का अभिप्राय: यह है कि सफलता पाने के लिये प्राणपण से जुटना पड़ता है। तभी कहा जाता है सफलता परिश्रम की दासी होती है। इसके अलावा हमारी सफलता के मूल में कई घटक भी होते हैं। सच यह भी है कि सफलता पाने के लिए मन और कर्म की एकाग्रता बहुत ज़रूरी है। सफलता को पाने की जो चाहत है, उसमें ईमानदारी होना बहुत ज़रूरी है। जब आप वो एकाग्रता और ईमानदारी पा लेते हैं, तो सफलता आपको मिल ही जाती है!
तो, आइए, आज अपने प्रयत्नों में निश्चित रूप से सफलता पाने के लिए हम भी दृढ़ता से कर्म करने का संकल्प लें।
‘जो सिर्फ शोर मचाते हैं भीड़ में,
वे भीड़ ही बन कर रह जाते हैं।
वही पाते हैं कामयाबी दुनिया में,
जो खामोशी से खुद को खपाते हैं।’