ज़िद्दी
योगेंद्र नाथ शर्मा ‘अरुण’
ज़िन्दगी कभी-कभी ऐसा खेल खेलती है, जिसकी हमें कहीं भनक तक नहीं लग पाती, बल्कि कहूं तो हम कल्पना तक नहीं कर पाते कि ऐसा भी हो सकता है।
हमारी संस्कृति जीवन और मृत्यु को जाने कब से किसी अदृश्य शक्ति के हाथों में मानकर, आदमी को तो नियति के हाथों की कठपुतली कहती आई है। फिर भी, नियति के खेल इतने रहस्यपूर्ण होते हैं कि बड़े-बड़े चिंतक, दार्शनिक और विद्वान जीवन और मृत्यु की गुत्थी को सुलझाने में उलझे रहे, लेकिन यह गुत्थी अनसुलझी ही बनी रही है।
मैं भी तो इस समय इसी उलझन में फंसा हुआ हूं। अभी-अभी मेरे बचपन के बहुत ही घनिष्ठ और प्यारे दोस्त तरुण का बेटा मेरे चरण छूकर जाते-जाते जो शब्द कह गया है, वे शब्द मेरे मन में बेहद उथल-पुथल मचाए हुए हैं। तरुण के बेटे ने सहज रूप से कहा था, ‘अंकल! …मेरे पापा के आखिरी शब्द यही थे कि मैं अपने यार योगी से मिलकर माफी मांगना चाहता था, लेकिन मौत ने मौका ही नहीं दिया… और मैं अपने यार से मिल नहीं सका …फिर भी, मेरा यह पत्र योगी तक जरूर पहुंचा देना।’
और, मेरे बचपन के जिगरी यार तरुण का बेटा किसी तरह मेरा पता ढूंढ़ते हुए आया था और मुझे अपने पिता की मृत्यु की सूचना के साथ ही तरुण का लिफाफे में बंद करके रखा हुआ पत्र देकर गया है।
बहुत ही अजीब-सा लग रहा है मुझे भी। आज लगभग तीस साल के बाद मुझे मेरे दोस्त की कोई खबर मिली है, जो उसका बेटा ही स्वयं लाया है।
जब दरवाज़े की ‘कॉल-बेल’ बजी थी, तब मैं अपने आंगन में कुर्सी बिछाए धूप में बैठा हुआ था, इसलिए और किसी को बुलाने के बजाय मैं खुद ही उठ कर दरवाज़ा खोलने गया था। दरवाज़े पर एक अपरिचित युवक को जब देखा, तो मुझे अजीब-सा लगा था।
उत्सुकता से भर कर मैने उस युवक से पूछा था, ‘कहिए बेटे! किससे मिलना है आपको?’
उत्तर में कुछ झिझकते हुए, दरवाज़े पर खड़े युवक ने मुझ से पूछा था, ‘ जी… क्या आप ही डॉ. योगी जी हैं?’
और, उत्तर में मेरी स्वीकृति का संकेत पाकर वह बोल उठा था, ‘अंकल! …अंकल …मैं इंजीनियर श्री तरुण नारंग का बेटा हूं …अपने पापा जी का एक पत्र आपको देने आया हूं।’… और यह कहकर उस युवक ने मेरे पांव छू लिए थे।
मैं तरुण नारंग का नाम सुनते ही चौंक उठा था। अचानक ही मेरा बचपन और स्कूल के बीते हुए दिन किसी प्यारी सी फ़िल्म की तरह, मेरी आंखों के सामने जैसे तैरने से लगे थे। मैं अपने बचपन के दोस्त के बेटे को साथ लेकर ड्रॉइंग रूम में आ गया और अनायास ही पूछ बैठा, ‘कैसे हैं तुम्हारे पापा?’
लगा कि मेरे इस प्रश्न ने उस युवक को कहीं बड़ी ही गहरी चोट दे दी थी…उसकी आंखें बरबस ही डबडबा आईं और भर्राए से स्वर में वह बोला, ‘अंकल! … पापा जी… तो अब इस दुनिया में नहीं हैं। …मरने से पहले मेरे पापा जी ने यह पत्र आपको देने के लिए मुझे सौंपा था और बताया था कि आप यहां के कॉलेज में प्रिंसिपल रहे हैं। …अंकल जी! पापा जी ने कहा था कि मैं कैसे भी… उनका यह पत्र… आपके हाथों में जरूर सौंप दूं। …आज मैं पहले आपके कॉलेज में गया था और वहीं से आपके घर का पता लेकर यह पत्र आपके हाथों में सौंपने आया हूं।’
तभी तरुण नारंग के बेटे ने एक लिफाफा मुझे अपने बैग से निकाल कर दिया।
जैसे ही मैंने वह लिफाफा तरुण नारंग के बेटे के हाथ से लिया, वैसे ही मुझे अहसास हुआ कि मेरे जीवन के लगभग पचास बीते हुए साल मेरी आंखों के सामने जीवंत हो उठे हों।
वह लिफाफा हाथ में पकड़े हुए ही मैंने तरुण के बेटे से पूछा, ‘बेटा! …क्या हुआ था तुम्हारे पापा को?’
ऐसा लगा, जैसे बहुत बड़े दर्द को वह युवक छिपाने की कोशिश कर रहा था। धीरे-धीरे वह बोला, ‘अंकल!… क्या बताऊं? …पापा जी को ‘थ्रोट-कैंसर’ हो गया था… बहुत इलाज कराया अंकल… लेकिन…।’ और फिर उसका गला रुंध गया।
थोड़ी देर बाद, सहज-सा होकर, तरुण का बेटा उठा और मेरे चरण छूकर बोला, ‘अंकल! …मेरे पापा जी आपको तो बहुत याद किया करते थे… सच कहूं, अंकल! कई बार तो आपको याद करके पापा जी रो पड़ते थे और कहा करते थे कि मैंने अपने यार ‘योगी’ का दिल दुखाया है, लेकिन…।’
तरुण का बेटा तो उस का पत्र मुझे थमा कर चला गया है, लेकिन मैं… भावनाओं के ज्वार में बड़ी बुरी तरह डूब और उतरा रहा हूं। …सारा का सारा अतीत, अनायास ही मेरी आंखों के सामने नाच उठा है।
तरुण और मैं छठी से लेकर बारहवीं क्लास तक साथ पढ़े थे। रोज़ एक-दूसरे के घर आना-जाना तो सामान्य बात थी… खाने का समय होता तो हम बेझिझक एक-दूसरे के घर खाना खा लिया करते थे। हम दोनों ही साथ-साथ पढ़ते थे, साथ ही स्कूल जाते थे और जब भी पढ़ते-पढ़ते थक जाते थे, तो दोनों साथ-साथ घूमने निकल जाया करते थे।
बारहवीं के बाद हमारी राहें अलग हो गई थीं।
तरुण बारहवीं करते ही पॉलिटेक्निक स्कूल में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में पढ़ने चला गया था और मैंने बी.ए. में दाखिला ले लिया था। हम दोनों छुट्टियों में जब भी मौका मिलता था, एक-दूसरे से खूब मिलते था और अपने-अपने जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव साझा किया करते थे। हमारी दोस्ती बदस्तूर बनी हुई थी।
मेरा बी.ए. पूरा हुआ, तो डिफेंस एकाउंट्स विभाग में मुझे नौकरी मिल गई और मैं मथुरा चला गया। तरुण को भी एमईएस में नौकरी मिल गई और हम एक-दूसरे से काफी दूर हो गए, लेकिन हमारे बीच पत्र-व्यवहार निरंतर बना रहा। मैंने मथुरा में नौकरी करते-करते ही प्रथम श्रेणी में एम.ए. कर लिया तो क्लर्की छोड़ कर मैं गाज़ियाबाद के एक पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में हिंदी विभाग में लेक्चरर बन गया।
इसी बीच तरुण का भी प्रमोशन हो गया और वह भी एसडीओ बन गया था। जीवन बड़े ही सुख से बीत रहा था।
अचानक एक दिन मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं क्लास में पढ़ा रहा था कि चपरासी ने मुझे क्लास में आकर एक विजिटिंग कार्ड देते हुए बताया कि ये सज्जन आपसे मिलने आए हैं और स्टाफ-रूम में बैठ कर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मैंने चपरासी का दिया हुआ विजिटिंग कार्ड देखा। उस पर बड़े ही चमचमाते हुए, उभरे हुए, सुनहरे अक्षरों में लिखा हुआ था ‘इंजीनियर तरुण नारंग’ और नीचे अंकित था उसका पद-नाम, कार्यालय का पता और फोन नंबर आदि-आदि।
मैंने चपरासी से कहा, ‘सुनो, सुमेर चंद… ये साहब मेरे बचपन के दोस्त हैं… मैं अभी आता हूं… तुम इस बीच चाय ले आओ।’
और पीरियड खत्म होते ही क्लास-रूम से निकलकर मैं सीधा स्टाफ-रूम में पहुंचा। देखा कि वहां सूटेड-बूटेड मेरा दोस्त तरुण बैठा है। मुझे देखते ही तरुण का चेहरा खिल उठा और मैंने भी बड़ी ही गर्मजोशी से उसे गले से लगा लिया। स्टाफ-रूम में बैठे हुए अपने साथियों से मैंने तरुण का परिचय कराया तो लगा कि गर्व और प्रसन्नता से मेरा दिल उछल रहा है।
कॉलेज का कार्य पूरा करके मैं तरुण को लेकर किराये पर लिए हुए अपने कमरे पर आया। रास्ते में जब मैंने तरुण को बताया कि कल ही मेरी पत्नी अपने घर गई है, तो उसे थोड़ी निराशा-सी हुई, लेकिन मुझे कि तरुण भी मेरी ही तरह लम्बे समय के बाद मुझसे मिल कर बहुत खुश हुआ है।
मैं तो तरुण के आने से इतना प्रसन्न और उत्साहित था कि उसे पलंग पर बिठा कर, छोटी-सी रसोई में पहुंचा और स्टोव जला कर चाय बनाने लगा। उस वक्त मेरे पास किराए का एक छोटा-सा कमरा और उसी के साथ लगी हुई छोटी-सी रसोई ही थी, जिसमें मैं अपनी पत्नी और दो साल के बेटे के साथ बड़े ही सुख से रह रहा था। उन दिनों मेरी तनख्वाह थी ही कितनी, केवल साढ़े चार सौ रुपए, जिनमें से सात रुपए महीना किराये पर यह कमरा और रसोई लेकर मैं बड़े आराम से रह रहा था।
स्टोव पर चाय चढ़ाकर मैं बड़े ही उत्साह में भरकर बोला, ‘यार तरुण! …तेरी भाभी कल ही अचानक मां की बीमारी की सूचना पाकर घर चली गई है… और… मैं तो सिर्फ आटे का हलवा ही बनाना जानता हूं… बता यार! …तू खाएगा तो बना लूं हलवा?’ हंसते हुए तरुण मेरे पास ही आ गया और बड़े ही प्यार भरे लहजे में बोला, ‘यार, योगी! …वर्षों बाद आज तुझ से मिला हूं… जो तू चाहे, बना के खिला दे। …अब मैं तो ठहरा फक्कड़मस्त, नौकरों के हाथ का बनाया खाना खा-खा कर खाने का स्वाद ही भूल गया हूं।’
मैंने चाय के साथ ही, खूब घी डाल कर, आटे का हलवा बनाया, फिर उसमें ऊपर से भी ढेर सारा घी डाल कर बोला, ‘यार, तरुण! … हलवा कुछ जल-सा गया है यार! …लेकिन मैंने खूब घी डाल दिया है… अब तुझे कड़वा नहीं लगेगा। …ले, जरा खा के देख।’
हम दोनों पलंग पर बैठकर ही हलवा खाने लगे और चाय के हमारे गिलास फर्श पर नीचे ही रखे रहे। मेरे पास तो उन दिनों मेज़-कुर्सी भी नहीं थी।
तरुण ने मेरा बनाया हुआ हलवा बड़े ही चाव से खाया, फिर चाय पीकर बोला, ‘यार, योगी! …भाभी को तेरे इस छोटे से घर में बहुत तकलीफ होती होगी न?’
मैं चुपचाप उसका मुंह देखता रहा।
तभी तरुण ने अपनी पैंट के पीछे की जेब से बटुआ निकाला और उसमें से पांच हज़ार रुपए निकाल कर मुझे देते हुए बोला, ‘यार, योगी! …ये रुपए रख ले… और कल मेज-कुर्सी खरीदकर ले लाना। …और सुन… मैं तुझे हर महीने तीन सौ रुपए भेज दिया करूंगा… यार। …तू कहीं कम से कम दो कमरों का अच्छा-सा कोई मकान किराये पर ले लेना।’
जाने अचानक क्या हुआ?
कॉलेज के स्टाफ-रूम में, वर्षों बाद मिले, तरुण को देखकर मेरे मन में जो गर्व और प्रसन्नता का भाव अनायास ही जगा था, वही एक बेहद तीखी-सी कड़वाहट और बेहद नुकीली-सी चुभन में बदल गया।
मैं हतप्रभ-सा खड़ा बचपन के अपने दोस्त तरुण को एकटक देख रहा था… मन के भीतर मुझे कोई तूफान से उठता हुआ लगा।
मेरी आंखों से जैसे चिंगारियां-सी फूट रही थी।
कल तक जो मेरी यादों में बसता था, उसी यार तरुण से मैं कड़कते हुए स्वर में बोला, ‘सुनो, एसडीओ साहब! …मैं हराम की कमाई पर ऐश करने वाला नहीं हूं। …इंजीनियर हो न? …खूब रिश्वत मिलती होगी तुम्हें …लेकिन मैं तुम्हारे इन रुपयों पर थूकता हूं मिस्टर तरुण नारंग। …मैं सरस्वती का बेटा हूं… मुझे कभी भी इस काली कमाई से भरमाने की कोशिश मत करना… भूलकर भी… कभी मत करना। …मैं अपने इस छोटे से घर में स्वर्ग का सुख अनुभव करता हूं… खूब चैन की नींद आती है मुझे… मैं रात को सोने के लिए नींद की गोलियां कभी नहीं ढूंढ़ता।’
तरुण चुपचाप खड़ा सुनता रहा।
और, मेरा स्वर और भी तेज़ हो उठा था, ‘सुनो, मिस्टर तरुण! …अब कभी …भूलकर भी मेरे घर मत आना। …असल में तुम मेरी दोस्ती के लायक ही नहीं रहे हो… तुम यहां मुझसे मिलने आए थे या मेरे मकान से? …अरे मेरे यार! …मैं तो सुदामा बनकर अपने इस छोटे से घर में ही चैन से सोता हूं… मेरा स्वाभिमान ही मेरी पूंजी है… अपना ऐश्वर्य और यह लक्ष्मी तो तुम अपने पास ही रखो।’
और, तरुण नारंग चला गया था चुपचाप, बिना कुछ कहे, बिना कोई प्रतिवाद किए और… बिना मुझे मनाए, तरुण चला गया था। …मैंने भी उसे रोका नहीं था। बेचैनी का आलम बड़ी मुश्किल से खत्म हुआ था।
तब से, गंगा में जाने कितना पानी बह गया है। तरुण मेरी यादों में तो जरूर रहा, लेकिन ज़िन्दगी से दूर, बहुत-बहुत दूर चला गया था।
और आज! …इतने वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद, उसी मेरे बचपन के दोस्त तरुण नारंग का बेटा, मुझे ढूंढ़ते-ढांढते मेरा पता लगाकर उसका पत्र दे गया है… साथ ही बता कर गया है कि मेरा यार तरुण अब इस दुनिया में ही नहीं है।
तरुण के पत्र को पढ़कर मैं बुरी तरह हिल उठा हूं।
मेरा मन करता है कि मैं चीख-चीख कर अपने बचपन के यार को बुलाऊं… और… उससे कहूं कि मेरे यार तरुण! …गुनहगार तू नहीं मेरे दोस्त! …गुनहगार तो तेरा मैं हूं।
मेरे दोस्त तरुण का लड़खड़ाते हाथों से, शायद असह्य पीड़ा के क्षणों में लिखा गया पत्र मेरी आंखों के सामने है। लगता है कि जैसे इस पत्र के एक-एक शब्द में मेरे तरुण का दिल धड़क रहा है; जैसे एक-एक शब्द में बचपन के मेरे यार की अनजानी-सी पीड़ा समाई हुई है।
पत्र पढ़ रहा हूं मैं… और मेरी आंखों में अनायास ही उमड़ आई है लबालब भरी हुई आंसुओं की गंगा और जमुना, जिसे रोक पाना मेरे बस में नहीं है।
मैं रो रहा हूं तरुण का पत्र पढ़कर, जिसमें कैंसर की भयंकर पीड़ा से जूझते हुए, बचपन में मुझे कभी न छोड़ने वाले, मेरे दोस्त तरुण ने लिखा है, ‘मेरे प्यारे दोस्त योगी! …यार, अब तो मुझे माफ़ कर देना मेरे भाई। …सचमुच मैं तेरा गुनहगार हूं योगी! …तेरे स्वाभिमान को, अनजाने ही, जो चोट मैंने पहुंचाई थी… उसकी सजा मुझे मिल गई है मेरे दोस्त!’
मेरी आंखों से आंसुओं की बरसात हो रही है। तरुण ने कांपते हाथों से लिखा है, ‘मेरे दोस्त! जिस दौलत के घमण्ड में… मैंने तेरे… अपने योगी के, स्वाभिमान को कुचलने का गुनाह किया था, वही दौलत मुझे बचा नहीं पाई मेरे भाई, और तुझसे बिना मिले, मैं जा रहा हूं।’
तरुण का चेहरा अनायास मेरी आंखों में उतर आया है। इस पत्र में जैसे उसने दिल ही निकाल कर रख दिया है। मैं पढ़ रहा हूं तरुण के लिखे शब्दों को, ‘मेरे यार। …तूने तो बुरी तरह रुलाया है मुझे वर्षों तक। एक बात बता मेरे दोस्त! कि क्या दोस्त अपने दोस्त की मदद नहीं करते? …लेकिन, मेरे यार! …तूने तो घर के साथ-साथ मुझे अपने दिल से भी निकल दिया।
‘मेरे भाई, …थ्रोट-कैंसर है मुझे। …जानता हूं दोस्त कि मेरा मरना बिल्कुल पक्का है। …अब तुझसे क्या छिपाऊं मेरे यार, कैंसर की आखिरी स्टेज पर खड़ा हूं मैं… योगी! …दर्द बहुत है, सहन नहीं होता यार… लेकिन, इस दर्द से भी ज्यादा असहनीय है तेरी बेरुखी।’
और आगे जो शब्द मेरे यार तरुण ने लिखे हैं, वे बार-बार मेरे आंसुओं की बाढ़ में गड्डमड्ड हो रहे हैं। मैं पढ़ना चाहता हूं तरुण के शब्दों को, लेकिन आंसुओं की झड़ी बार-बार बीच में रुकावट डाल रही है।
तरुण ने लिखा है, ‘अपने हाथों से हलवा बना कर और उसकी कड़वाहट को घी डालकर मिटाने वाला मेरा योगी इतना ज्यादा नाराज़ है मुझसे कि कभी मेरी याद तक तुझे नहीं आई?…मेरे यार! …ऐसी भी क्या नाराज़गी कि कोई दोस्त… वो भी बचपन का यार… अपने दोस्त को कभी माफ ही न करे?’
तरुण का पत्र पढ़कर मैं बुरी तरह से आहत-सा अनुभव कर रहा हूं। पत्र के अंत में तरुण ने अपने दिल की सच्चाई जैसे शब्दों में भर दी है, ‘दोस्त योगी! …तू भले ही मुझसे नाराज़ था… बहुत-बहुत दूर हो गया था मुझसे, …लेकिन मैं तेरे बारे में सब जानता रहा हूं। …बहुत गर्व और खुशी से भर उठता था मैं तेरे सम्मान की खबरें सुनकर और अखबारों में पढ़कर। भाई योगी… अब तो बस मौत का इंतजार कर रहा हूं… जब भी आएगी, सब छोड़कर उसके साथ चल जाऊंगा।
‘बस, मेरे दोस्त! …अब तो इतना ही चाहता हूं कि तू मुझे माफ़ कर देना। …सच कहूं मेरे योगी …वो गुनाह भी तो मैंने तेरे प्यार में ही किया था, जिसे तू कभी भूल नहीं पाया। …योगी! …मेरे दोस्त… तू मुझे माफ़ कर देगा, तो मुझे शांति मिल जाएगी। …तेरा यार, तरुण।’
मेरे आंसुओं से मेरे दोस्त तरुण का पत्र भीग गया है। मैं सोच रहा हूं कि मेरे लिए… अपने बचपन के दोस्त के लिए… तरुण का वो प्यार क्या गुनाह था? …या फिर गुनहगार मैं स्वयं ही हूं।
मैं, जो स्वाभिमान के नाम पर इतना अधिक जिद्दी हो गया कि अपने जिगरी दोस्त के प्यार को भी नहीं पहचान पाया?