हाशिये पर खड़े आदमी के बड़े पैरोकार
राजेन्द्र शर्मा
लगभग पांच दशक पहले ‘समान्तर कहानी’ आन्दोलन के दौर में ‘सारिका’ के कहानी विशेषांक (1973) में अपनी पहली कहानी ‘गाय का दूध’ से चर्चा में आये 86 वर्षीय कथाकार सुभाष पंत 7 अप्रैल की सुबह इस फानी दुनिया से अलविदा कह गये। हिंदी की नई कहानी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर सुभाष पंत पिछले पांच दशकों से निरंतर रचना-कर्म में सक्रिय थे। साल 1973 से निरन्तर बिना किसी शोर-शराबे के लेखन करते रहे सुभाष पंत के बीते पचपन वर्षों में तपती हुई ज़मीन, चीफ के बाप की मौत, इक्कीस कहानियां, जिन्न और अन्य कहानियां, मुन्नीबाई की प्रार्थना, दस प्रतिनिधि कहानियां, एक का पहाड़ा, छोटा होता हुआ आदमी, पहाड़ की सुबह तथा अन्य कहानियां, सिंगिंग बेल, लेकिन वह फ़ाइल बंद है, इक्कीसवीं सदी की एक दिलचस्प दौड़ कुल बारह कहानी संग्रह, चमकता सितारा-चुभन भरा कांटा, सुबह का भूला, पहाड़ चोर, एक रात का फासला कुल चार उपन्यास और एक नाटक चिड़िया की आंख प्रकाशित हुए हैं।
सुभाष पंत ने त्रैमासिक पत्रिका शब्द योग के 30 अंकों का संपादन भी किया। हाशिये पर खडे आदमी के संघर्ष को अपने लेखन की विषय वस्तु के कारण ही सुभाष पंत को अपनी पहली कहानी ‘गाय का दूध’ के प्रकाशन के बाद से ही भीष्म साहनी और कमलेश्वर जैसे कथाकारों के साथ अगली पंक्ति में स्थान मिला।
14 फरवरी, 1939 को देहरादून (उत्तराखंड) के एक अत्यन्त निर्धन परिवार में जन्मे सुभाष पंत को पैदाइश के समय से ही बेहद तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरना पड़ा परन्तु अपने हाशिये पर खड़े आदमी के प्रति सुभाष पंत अपनी गर्दिशों, अपने संघर्ष के बारे में बात करने, लिखने से हमेशा दूर रहे। उनका तर्क था कि मेरी गर्दिश और संघर्ष खोदडी-माजरी के उन मजदूरों के संघर्षों से, जो उस वक्त जब सारा चकराता बर्फ के सैलाब में ठिठुरता होता है, नश्तर से भी तेजी से चीरते यमुना के छाती छाती तक जल में रस्सियों से बंधे, स्लीपर इकट्ठे करते हैं, जिन्हे तीन चार रुपये प्रतिदिन मिलते है, उन्हें संघर्ष करना पड़ता है, जेल और यातनायें सहनी पड़ती हैं या फिर खदानों के मजदूरों के संघर्ष से जिन्हें खदानों के गिर जाने पर निकालने की जगह और नीचे दफना दिया जाता है ताकि उन्हें मुआवजा न देना पड़े। उनकी पत्नियों, बच्चों की आंखें अपने आदमियों के इंतजार में पत्थरों में तब्दील हो जाती हैं। व्यक्तिगत जीवन और अपने रचे गये साहित्य में जीवन भर मजदूरों के संघर्ष को कलमबद्ध करते रहे सुभाष पंत को कथाकार के रूप में बड़ा कदम रखते ही राजनीति से प्रेरित सीबीआई की जांच का भी दो बार स्वाद चखना पड़ा ।
गणित एवं हिन्दी साहित्य विषयों में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त सुभाष पंत आजीविका के लिए भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षापरिषद, देहरादून में कार्यरत रहे और वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद से सेवानिवृत्त हुए। कथाकार और संपादक कमलेश्वर उनकी प्रतिबद्धता का बहुत सम्मान करते थे। सारिका पत्रिका के संपादक पद पर रहते हुए कमलेश्वर ने उन्हें उपसंपादक का पद भी सभी सुविधाओं के साथ प्रस्तावित किया था किंतु पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन का हवाला देते हुए उन्होंने देहरादून छोड़कर मुम्बई आने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया ।
आम आदमी के प्रति कथाकार सुभाष पंत के सरोकार इतने मजबूत थे कि वह सड़क पर चलते हुए, रेल या बस में सफर करते हुए आम आदमी से जुड़े एक एक दृश्य, एक एक घटना का आब्जर्वेशन करते और इस आब्जर्वेशन को अपना ‘फिक्स्ड डिपॉज़िट’ बताते।
माह मार्च के प्रथम सप्ताह में ही उत्तराखंड सरकार के भाषा संस्थान ने उन्हें ‘साहित्य भूषण सम्मान’ से नवाजा गया। जिसके तहत मुख्यमंत्री के कर-कमलों से रुपये पांच लाख दिये गये। इसी अवसर पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित व डॉ.सविता मोहन द्वारा सम्पादित पुस्तक का लोकार्पण राज्यपाल उत्तराखंड द्वारा किया गया था। सरल, सहज, विनम्र और आत्मीयता से परिपूर्ण सुभाष पंत ने उत्तराखंड ही नहीं देश के जाने-माने कथाकार के रूप में स्वयं को स्थापित किया गया परन्तु साहित्य की जोड़तोड़ की राजनीति से वह सदैव रहे, जिस कारण राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षित भी रहे।
कथाकार संपादक ज्ञानरंजन भी स्वीकार करते हुए कहते है कि सुभाष पंत यानी एक बेजोड़ कथाकार का लंबा सार्थक जीवन। वे उपेक्षित रहे, सूचियों से भी गायब रहे पर उनकी कहानियां कभी लचकी नहीं, ऐसी सकारात्मक यात्रा है सुभाष पंत की। मैंने न उन्हें हमेशा खुश और संतुष्ट पाया। अनेकानेक गुणों के साथ उनका लेखन बड़ा बना, भरपूर कहानीपन के साथ पाठक की प्यास बुझाने वाले कथाकार अब विरल हैं। आधुनिक टुकड़ों में कहानी सजाने वाले बढ़ रहे हैं। इसके विपरीत सुभाष पंत की कहानियां उजालों से भरी है। मैंने महसूस किया है कि उनकी कहानियां हमे अवसादमुक्त कर रही है।
साहित्य की खेमेबंदी से दूर रहने वाले सुभाष पंत भले ही राष्ट्रीय स्तर पर उपेक्षित दिखाई देते हो परन्तु सुभाष पंत पहाड़ के उन लेखकों में हैं जिनके भीतर पहाड़ के दुख और संघर्ष मौजूद है। पहाड़ के बहुतेरे कवियों लेखकों का मैदान में पहुंचने के बाद पहाड़ की दुनिया से कोई सरोकार नहीं रहा। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए जीते रहे, सुभाष पंत इस रूढ़ि को तोड़ते हैं।
कथाकार सुभाष पंत अपने लेखन में किसी नक्काशी के पक्षधर न होकर सामान्य सहज भाषा के पैरोकार रहे। उनका मानना था कि जिनके लिए कहानी लिखता हूं, वे सामान्य लोग हैं और सामान्य लोगों के लिए सहज भाषा की जरूरत होती है इसलिए वे उनकी ही भाषा में लिखते हैं। जबरदस्त किस्सागोई और बेहतरीन बतकहीबाज सुभाष पंत अपने लेखन से एक ऐसी लकीर खींच कर चले गये है कि जब जब हिन्दी कहानी पर चर्चा होगी, सुभाष पंत का जिक्र किये यह चर्चा पूरी नही होगी।