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मां के आंगन में चहकती गौरैया

08:06 AM Apr 26, 2024 IST
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अलका 'सोनी'
लंबे इंतजार के बाद कुछ दिनों पहले ही मां के पास जाना हुआ। लंबा इंतजार इसलिए क्योंकि जाने की इच्छा होने के बाद भी स्वास्थ्य इजाजत नहीं दे रहा था। इसलिए मन मसोसकर दिन गिन रही थी कि कब सब कुछ अनुकूल हो और मैं जाऊं।
इसलिए जैसे ही परिस्थितियां सामान्य हुईं मैंने आनन-फानन में टिकट बुक करवा लिया। वैसे भी मां के पास जाना ससुराल में रह रही बेटी के लिए किसी त्योहार से कम नहीं होता। भले ही ससुराल में किसी चीज की कमी न हो। फिर भी मां के आंगन में बेटियां चिड़ियों-सी चहक उठती हैं। हर चिंता से दूर होकर। मन में सुख-दुख के ढेरों किस्से होते हैं मां से साझा करने को। ऐसा ही कुछ अपना भी हाल था।
इसलिए जैसे ही दवाओं और चिकित्सकों के जंजाल से थोड़ी मोहलत मिली तो मैं भी उड़कर पहुंच गयी अपनी मां के अंगने में। जाते समय ही मैंने सारी प्लानिंग कर ली थी कि वहां देर तक सोऊंगी। यह करूंगी, वह करूंगी।
सोते समय मैंने रात में सबको सख्त हिदायत दे दी कि ‘खबरदार जो किसी ने सुबह मेरी नींद तोड़ी।’
मेरी धमकी सुनकर मां बस मुस्कुराती रही मेरे बचपने पर। शायद मांएं ऐसी ही होती हैं। इस दौर से गुजर चुकने के कारण उन्हें थाह रहती है बेटियों के मन की। उनके हर तरह की थकान की।
तनाव और कई रतजगों ने मुझे नीम बेहोशी वाली नींद में पहुंचा दिया था। मैं इत्मीनान से तानकर सो गई कि सुबह नौ बजे के पहले हिलना नहीं है।
लेकिन यह क्या!! सुबह-सुबह एक शोर से नींद खुल गई। मन ही मन कोफ्त होने लगी मुझे कि रात की धमकी के बाद भी मेरी नींद तोड़ने की जुर्रत किसने की!! बगल में देखा तो बच्चे भी उठ चुके थे। घड़ी देखी तो सात बज रहे थे। मन ही मन हिसाब करने लगी कि आठ बजे तक तो सो ही सकती थी मैं।
खैर, आंखें मींचते हुए बाहर आई तो ठंडी हवाओं के झोंकों से दिमाग को थोड़ी ठंडक मिली। जिसके पॉजिटिव असर से आंखें थोड़ी और चौड़ी हो गई। अब सामने का नजारा बिल्कुल साफ दिखाई दे रहा था। बाहर आंगन में गौरैया अपने बड़े से झुंड में चहचहा रही थी और मां तथा बच्चों द्वारा छींटे गए चावल चुन-चुन कर खा रही थी। सच में चकित रह गई। कुछ ही दिन पहले गौरैया दिवस पर उनके विलुप्त होने के दुख मनाते हुए सोशल साइट्स पर भर-भर कर लोगों को देखा था। और यहां तो उनकी पूरी फौज मौजूद थी। वो भी पूरी निश्चिंतता के साथ।
यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था। तब लगा कि सोशल साइट्स पर घड़ों आंसू बहाकर भी जिस लोक पक्षी के दर्शन हमें नहीं हो पाते थे। आज उनके शोर से यहां मेरी आंखें खुल गईं। लगा की घड़ियाली आंसू से कहीं ज्यादा प्रेमपूर्वक छींटे गए ये चावल कीमती हैं। जिनका मोह गौरैयों को स्वतः ही मां के आंगन में खींच लाता है। जहां वे भी बेटियों की तरह ठुमकती हैं। निडर होकर खेलती हैं। अपने सुख-दुख बतियाती हैं।

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