दक्षिण का रुझान बताएगा तेलंगाना का सियासी मिजाज
वेद विलास उनियाल
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के आखिरी दौर में अब तेलंगाना पर सबकी निगाह है। दक्षिण के इस राज्य में इस बात को लेकर कौतूहल है कि बीआरएस के नेता कल्वा कुंतला चंद्रशेखर राव यानी केसीआर अपनी हैट्रिक बनाते हैं या कांग्रेस का सत्ता परिवर्तन का नारा बुलंद होता है। तेलंगाना की सियासत कई तरह की ऊहापोह के बीच झूलती रही। कभी भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के विकल्प के रूप में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सामने दिखी तो फिर बदली परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी ने अपनी धमक दिखाई। तेलंगाना की जमीन पर खड़े होकर केसीआर ने राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का नेतृत्व करने के मंसूबे भी संजोए। तेलंगाना में इसी बात पर अटकलें लगती रही कि भाजपा बीआरएस के साथ गठबंधन करेगी या फिर तेलुगू देशम को साथ जोड़ेगी। नाटकीय फेरबदल में भाजपा ने दोनों से अलग जनसेना पार्टी के साथ गठबंधन किया।
तेलंगाना के सीएम के़ चंद्रशेखर राव ने अपनी पार्टी बीआरएस को राज्य में मजबूत आधार दिया है। केसीआर कभी एनटीआर और फिर चंद्रबाबू नायडू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके हैं। लेकिन सधे हुए राजनेता की तरह वह अलग तेलंगाना की आवाज को उठाते रहे। साल 2014 में राज्य गठन के बाद पहले चुनाव हुए तो केसीआर का जादू चला और उनकी पार्टी राज्य में 63 सीटें जीतने में कामयाब रही। पांच साल बाद केसीआर का करिश्मा था कि पार्टी ने 15 सीटों की और बढ़ोतरी की। इस बार फिर केसीआर हैट्रिक बनाने के लिए राज्य के ओर-छोर नाप रहे हैं। हालांकि इस दौर के बीच केसीआर पर परिवारवाद को बढ़ावा देने और सरकार के भ्रष्टाचार में घिरने के आरोप लगते रहे हैं।
राज्य में एंटी इनकमबेंसी को भांपते हुए मुख्यमंत्री केसीआर ने सरकार की योजनाओं-उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के लिए काफी कोशिश की है। सत्तारूढ़ बीआरएस प्रमुख केसीआर ने खुद को चुनाव प्रचार में इस तरह झोंका हुआ है कि जिन दो सीटों पर वह खुद चुनाव लड़ रहे हैं वहां प्रचार के लिए ज्यादा समय नहीं निकाल पाए। केसीआर गजवेल और कामारेड्डी सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। हालांकि बीसीआर का संगठन कांग्रेस व भाजपा की तुलना में काफी मजबूत है। लेकिन पार्टी एंटी इनकमबेंसी की आशंका को भी समझ रही है। खास बात यह कि गजवेल की सीट पर उन्हें चुनौती देने वाले भाजपा के इटाला राजेंद्र कभी तेलंगाना आंदोलन में उनके साथ थे। बाद में वह मंत्री भी बने। वहीं रेवड़ी बांटने की होड़ तेलंगाना में भी दिखी। बीआरएस ने 400 रुपये में सिलेंडर ,पांच लाख का मुफ्त बीमा, गरीब लड़कियों के विवाह में एक तोला सोना के साथ अपनी योजनाओं का जिक्र कर मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश की है। तेलंगाना में बीआरएस ने रयथु बंधु आसरा पेंशन व रयथु भीम जैसी योजनाएं चलाकर बुजुर्गों, युवकों, महिलाओं, बीड़ी मजदूरों, आदिवासियों को साधने की कोशिश की है। वहीं यहां टीडीपी या आईएमआईएम जैसी पार्टियां सीमित दायरे में हैं। टीडीपी पहले चुनाव में जहां 15 सीटें जीती थी, वहीं 2018 में उसे केवल दो सीटें मिलीं।
कहा जा सकता है कि कर्नाटक के चुनाव परिणाम से तेलंगाना की सियासत काफी प्रभावित हुई है। कर्नाटक में जिस तरह सफलता मिली उसके बाद कांग्रेस ने तेलंगाना पर काफी फोकस किया। एक समय भाजपा को बीआरएस के सामने प्रमुख पार्टी माना जा रहा था। लेकिन कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार अभियान से और दूसरी तरफ भाजपा की राज्य में असमंजस की सियासत के चलते कांग्रेस मुख्यधारा में आ गई। एक समय यह भी माना जा रहा था कि भाजपा राज्य में बीआरएस से समझौता कर सकती है, खासकर तब जब राज्य भाजपा के फायर ब्रांड नेता बंडी संजय को हटाकर केंद्रीय मंत्री किशन रेड्डी को प्रदेश संगठन का नेतृत्व दिया गया।
कांग्रेस ने 2018 के चुनाव में 18 सीटें हासिल की थी। साथ ही उसे 28.43 फीसदी मत प्राप्त हुए थे। लोकसभा चुनाव में उसके हिस्से तीन सीटें आई और उसका मत प्रतिशत डेढ़ तक बढ़ा। बदली परिस्थितियों में कांग्रेस मान रही है कि कर्नाटक की तरह जातीय समीकरण उसके पक्ष में होंगे। जहां मुस्लिमों को वह अपने साथ मान रही है वहीं रेड्डी समुदाय को प्रभावित करना चाह रही है। यह भी कि आदिवासी दलित उसके साथ जुड़े तो नया गुल खिल सकता है। पार्टी के लिए स्टार प्रचारकों ने जमकर प्रचार किया है। हर चुनावी राज्य की तरह कांग्रेस ने यहां भी मतदाताओं को सात गारंटियां दी हैं।
भाजपा के रणनीतिकारों ने भी तेलंगाना पर काफी प्रयोग किए। आखिर में पार्टी ने यही निर्णय लिया कि वह राज्य में बीआरएस के विरोधी दल के तौर पर दिखे। अमित शाह ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार में घिरे होने के आरोप लगाए। लेकिन यह भी माना जा रहा कि भाजपा राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजों को यहां बहुत अहमियत नहीं दे रही है। भाजपा का फोकस 2024 के लोकसभा चुनाव पर है। साल 2018 में भाजपा को केवल एक सीट हासिल हुई थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में भाजपा ने चार सीटें हासिल की। साथ ही उसका मत प्रतिशत 19.65 हो गया। खासकर ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कारपोरेशन में 48 सीट जीतने के बाद भाजपा की आशाएं बढ़ी। पार्टी ने कांग्रेस और बीआरएस के कुछ नेताओं को अपने से जोड़ने में सफलता पाई। फिर एकाएक भाजपा धीमी हो गई। बहरहाल, भाजपा की कोशिश यहां लोकसभा के पिछले रिकार्ड को बनाए रखने की है। भाजपा ने लोकसभा में जीतने वाले चार सांसदों में तीन को विधानसभा चुनाव लड़ाया है।
आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को पिछले दोनों चुनाव में सात-सात सीटें मिली थीं। इस बार उनकी पार्टी नौ सीटों पर ही लड़ रही है। राज्य में मुस्लिम करीब 12 प्रतिशत हैं। राज्य में मतदाताओं को तीसरी बार जनादेश देना है। दक्षिण के राज्य तेलंगाना के नतीजे कई तरह के संकेत देंगे।