कभी दिल की सुनें तो कभी दिमाग की
कीर्तिशेखर
विज्ञान कहता है, सच्चाई का आधार तर्क है। बिना तर्क किसी बात का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन जीवन के अनुभव कहते हैं, सिर्फ तर्क से जीवन नहीं चलता। भले आज की पीढ़ी ज्यादा तार्किक और लॉजिकल हो, इसलिए वह दिल की सुनने की बजाय दिमाग से ज्यादा सुनती हो। लेकिन क्या वाकई दिमाग की सुनना ही साइंटिफिक है? साइंस ऐसा भी नहीं मानती। साइंस नहीं मानती कि हमारे मन में उभरने वाले आभास साइंटिफिक नहीं होते या दिल की आवाज का अपना कोई आधार नहीं होता। मन में उभरने वाले आभासों पर भी विज्ञान मुहर लगाता है। संवेदना के विज्ञान को समझें तो जज्बात साइंटिफिक होते हैं। भले वे तर्क की कसौटी पर थोड़े धुंधले नजर आते हों। जरा इन दो स्थितियों पर गौर करिये : दिमाग सोचता है मां से झूठ बोल देता हूं, उसे क्या पता चलेगा? लेकिन दिल कहता है मां सब कुछ जानती है। वह बिना कहे ही हमारा मन पढ़ लेती है। इसलिए बेहतर है मां को सब-कुछ साफ साफ बता दिया जाए।
गलती छिपाने की ऊहापोह
अब इन दोनों बातों को अपने अपने हिसाब से कोई भी सही साबित कर सकता है। दिमाग का कोई पक्षधर यह साबित कर सकता है कि मां से अपनी कोई गलती बताने से बेहतर है, उसे छुपा लिया जाए ताकि उसका मन न दुखे और सबक लिया जाए कि अगली बार से उसकी जरूरत न पड़े। इस तरह से देखें तो दिमाग की सुनना वाकई यहां सही लग रहा है। लेकिन अगर निश्छलता की कसौटी पर देखें तो जब कोई बच्चा अपनी किसी छोटी सी गलती को मां से छुपाता है तो वह झूठ बोलने की नींव रख रहा होता है, यह झूठ जब मां को या किसी को भी पता चलता है तब मन बहुत खराब होता है। तो छोटी सी बात छिपाना भी सही नहीं है।
दिल की बात पर भी विज्ञान की मुहर
मतलब यह कि चरम पर दोनों स्थितियों का अपनी तरह से फायदा और अपनी तरह से नुकसान है। लेकिन दोनों में कोई भी एक स्थिति ऐसी नहीं है, जिसके साथ हुआ जाए और जिसके लिए दूसरी स्थिति को छोड़ा जाए। विज्ञान कहता है कि भले दिल की बातों का ठोस तर्क और रूप न होता हो, लेकिन दिल में उठने वाली बातें बेवजह या अवैज्ञानिक कतई नहीं होतीं। दरअसल हमारी सोच, हमारे व्यापक अनुभवों का नतीजा होती है। हमारा मस्तिष्क कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह काम करता है।
परिस्थितियों के भी मायने
दरअसल दिल हो या दिमाग दोनों ही अपने स्तर पर हमें अपने-अपने तरीके से करेक्ट करने की कोशिश करते हैं। मसलन हम अंधेरे में बीच सड़क से चल रहे हों तो मन से आवाज आती है, यह सही नहीं है। दुर्घटना हो सकती है और हम अचानक किनारे से चलने लगते हैं, तभी देखते हैं कि यकायक बड़ी तेजी से कोई वाहन गुजर जाता है और हमारे मन में झुरझुरी सी फैल जाती है। हम सोचते हैं अगर हम किनारे न चल रहे होते तो पता नहीं क्या होता? कई बार दिल की सुनना तब और राहत देता है, जब हम पानी भरी सड़क में कार से चल रहे हों और सड़क में बीच में चलने से अचानक कार का पहिया गड्ढे में चला जाए। ऐसे में हम अपने को बार-बार यही कोसेंगे कि दिल कहता था किनारे चलो, हमने दिल की नहीं सुनी, अब भुगतो। दरअसल दिल और दिमाग दोनों ही साइंटिफिक होते हैं और हमारी जिंदगी की सफलताओं या असफलताओं दोनों की ही भूमिका होती है। सच तो यह है कि अलग-अलग मौकों पर परिस्थितियों के हिसाब से कभी दिल की सुननी जरूरी होती है, तो कभी दिमाग की।
दिमाग की मानें, लेकिन ...
जिन निर्णयों से हमें लंबे समय तक प्रभावित होना होता है, उन्हें बहुत सोच-समझकर और मन की बजाय मस्तिष्क से सोचने के बाद लेना चाहिए। दिमाग ऐसे दांव पर सवाल खड़ा करता है, जैसे दावों के अतीत में पूरा उतारने पर संदेह रहा हो। यह 100 में 99 बार सही भी होता है। लेकिन यह भी सही है कि जो पहले कभी न हुआ हो, जरूरी नहीं है कि वह बाद में भी कभी न हो। 20वीं शताब्दी के आखिरी दशक तक 100 मीटर की फर्राटा दौड़, 10 सेकेंड से कम में पूरी नहीं हो रही थी। इसलिए 1950 या इसके पहले कोई एथलीट दिमाग की न सुनकर 100 मीटर की फर्राटा दौड़ के लिए 10 सेकंड से कम समय में पूरा करने के लिए बाजी लगाता, तब तो यह उसकी हार होती। लेकिन अंततः जब धावकों ने 10 सेकंड से कम के समय में 100 मीटर दौड़ने का रिकॉर्ड तोड़ दिया तो यह सही हो। मस्तिष्क ज्यादातर बार इसलिए सही होता है, क्योंकि उसके फैसलों में हजारों कामयाब फैसलों का निष्कर्ष छिपा होता है, इसलिए जिंदगी के मामले में दिल से ज्यादा दिमाग का सोचना दुरुस्त होता है। फिर भी दिल से सोचना गैर जरूरी नहीं होता। -इ.रि.सें.