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जीत-हार के बीच कुछ अनुत्तरित प्रश्न

10:46 AM Dec 06, 2023 IST
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विश्वनाथ सचदेव

विश्वनाथ सचदेव
चुनाव के ‘सेमीफाइनल’ का नतीजा सामने है। भारतीय जनता पार्टी को इन चार राज्यों के चुनाव में अप्रत्याशित जीत मिली है। लगभग सारे चुनावी अनुमानों को ग़लत साबित कर दिया है इन परिणामों ने। राजनीति के पंडित हिसाब लगाने में लगे हैं– कुछ दावे कर रहे हैं, उन्होंने तो पहले ही कह दिया था, कुछ इसे भाजपा के राजनीतिक कौशल का परिणाम बता रहे हैं, कुछ विपक्ष की ग़लत रीति-नीति को दोषी ठहरा रहे हैं। कुछ भी कहें पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा काम आया है। कई कारण गिनाये जा सकते हैं चुनाव के नतीजों के संदर्भ में, पर यह एक हकीकत है कि प्रधानमंत्री ने सारा प्रचार-कार्य कुछ इस तरह से किया कि अगर जीत होती है तो यश उनकी ही झोली में पड़े। यही अब कहा भी जा रहा है।
मोदी है तो मुमकिन है का नारा बार-बार दुहराया जा रहा है। ‘मोदी की गारंटी’ के जादू का झंडा कुछ इस तरह से फहराया जा रहा है जिससे लगे कि जीत के नायक वही हैं। और इसमें कुछ ग़लत भी नहीं है। इस सेमीफाइनल के परिणाम कुछ और होते तो कम से कम विपक्ष उन्हें ‘कारक’ कहने-बताने में चूकता नहीं।
भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच हुए विश्व कप मुकाबले के उदाहरण को सामने रखें तो यह कहा जा सकता है कि यह कतई ज़रूरी नहीं है कि फाइनल का परिणाम भी वही हो जो सेमीफाइनल का रहा है। वर्ष 2024 में होने वाले आम चुनाव को इस सेमीफाइनल के संदर्भ से नहीं आंका जा सकता। बहरहाल, अब राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से चुनावी नतीजों का विश्लेषण करेंगे आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे। जीतने वाले मतदाताओं का आभार व्यक्त करेंगे, और हारे हुए स्वयं को यह आश्वासन देंगे कि आगे मतदाता ऐसी ‘ग़लती’ नहीं करेंगे।
विश्लेषण तो हर चुनाव परिणाम का होना चाहिए। अब भी होगा। पर एक बात जो इस बार स्पष्ट उभर कर सामने आयी है, वह यह है कि राजनीतिक दल यह मानकर नहीं चल सकते कि मतदाता उनकी बात पर भरोसा करेगा ही। न ही यह माना जा सकता है कि मतदाता को हमेशा भरमाया जा सकता है। इसी तरह, इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि हमारे यहां जिस तरह का चुनाव-प्रचार होता है, या फिर मतदाता को रिझाने की जिस तरह से कोशिशें होती हैं, वह जनतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से कितनी सही हैं?
इन चुनाव में हमने देखा कि वादे और दावे तो हुए ही, एक नया शब्द भी ईजाद किया गया–गारंटी। वैसे तो वादा भी गारंटी ही होना चाहिए, पर इस बार चुनाव-प्रचार में इस शब्द पर विशेष ज़ोर दिया गया। कांग्रेस पार्टी ने शायद सबसे पहले यह शब्द काम में लिया था, फिर प्रधानमंत्री ने इसे ‘मोदी की गारंटी’ कह कर और ज़्यादा पुख्ता बनाने की कोशिश की। भले ही यह किसी ने नहीं बताया कि कथित गारंटी पूरी करने का आधार क्या होगा, पर लगता है, गारंटी का जादू काम कर गया। चुनाव-प्रचार की एक और बात जिस पर गौर किया जाना ज़रूरी है, वह यह है कि इस बार उन मुद्दों की बात बहुत कम हुई जिन्हें जिंदगी के ज़रूरी मुद्दे कहा जाता है। मसलन गरीबों की बात को ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था’ की आकर्षक शब्दावली से ढकने की कोशिश हुई। यूं कहने को प्रधानमंत्री ने यह अवश्य कहा कि वे सिर्फ गरीबी को ही जाति मानते हैं, पर ज़ोर उनका इस बात पर भी रहता था कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के कार्यकाल में हमारा भारत विश्व की पांचवीं अर्थव्यवस्था बन गया है और शीघ्र ही हम ‘विकसित देशों’ की श्रेणी में आ जाएंगे। तीसरी वैश्विक अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। मतदाता को किसी ने यह बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि पांचवीं या तीसरी वैश्विक अर्थव्यवस्था का मतलब क्या होता है? मतदाता को अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों से यह पूछना चाहिए कि पांचवें से तीसरे नंबर तक आने से उसकी दो जून की रोटी सुरक्षित हो जाएगी? विडंबना तो यह है कि आज एक ओर विकसित देश बनने के वादे किये जा रहे हैं और दूसरी ओर अस्सी करोड़ भारतवासियों को मुफ्त अनाज देने की व्यवस्था से घिरे हैं हम!
इन चुनावों के प्रचार के दौरान न विपक्ष यह पूछ रहा था और न ही सत्तारूढ़ पक्ष यह बताना ज़रूरी समझ रहा था कि वैश्विक गरीबी सूचकांक के अनुसार हमारी सोलह प्रतिशत आबादी के गरीब होने के कारण क्या हैं? इस बात को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि वैश्विक भूख सूचकांक की 123 देशों की सूची में भारत का स्थान 107वां है। चुनाव-प्रचार के दौरान इसकी भी चर्चा कहीं सुनाई नहीं दी। ग़रीबी की तरह ही बेरोज़गारी का मुद्दा भी कुल मिलाकर अनसुना ही रहा– विपक्ष के भाषणों में यह शब्द कभी-कभी सुनाई दे जाता था, पर इसे उस ताकत से नहीं उठाया गया जितनी ताकत से उठाया जाना चाहिए था।
चुनाव-परिणामों का विश्लेषण करने वालों का कहना है कि इस बार महिला-मतदाताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही। ज़रूर रही होगी। महिलाओं ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है, यह सही है। चुनाव-परिणामों पर भी इसका निश्चित असर पड़ा है। पर यह बात कब किसी ने सामने लायी कि देश की आधी से अधिक महिलाएं शारीरिक दृष्टि से कमज़ोर क्यों हैं? महिला सशक्तीकरण के नाम पर ढेरों घोषणाएं हुई हैं, सभी दलों ने महिलाओं को लाभ दिलाने के वादे किये, सस्ता सिलेंडर, घर में नल, नकद सहायता आदि की तो बहुत दुहाई दी गयी, पर विधायिका में महिलाओं को तीस प्रतिशत भागीदारी देने और उसका समर्थन करने वालों में से किसी भी राजनीतिक दल में इन चुनावों में एक-तिहाई उम्मीदवार खड़े करना ज़रूरी नहीं समझा!
देश में आईआईटी और आईआईएम खोले जाने की बातें भी हुईं, पर यह बात किसी ने भी नहीं उठायी कि देश में एक लाख से कहीं अधिक स्कूलों में सिर्फ एक अध्यापक क्यों है? हमारे नेता जब विदेशों में जाते हैं तो प्रवासी भारतीयों की योग्यता-क्षमता की खूब तारीफ करते हैं। खूब तालियां बजवाते हैं उनसे। पर यह सवाल हमारे राजनेताओं के ज़हन में क्यों नहीं आता कि हर साल एक लाख से अधिक भारतीय देश छोड़कर क्यों चले जाते हैं? प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले ही साल यानी 2022 में 25 हज़ार भारतीयों ने नागरिकता छोड़ी थी। आखिर क्यों? यह सब वे नहीं है जिन्हें ग़लत काम करके देश से भागने दिया गया है। ऐसे लोग तो गिनती के हैं। सवाल तो उन लाखों का है जो देश की परिस्थितियों के कारण ‘बेहतर ज़िंदगी’ के लिए देश छोड़कर जाने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
यह और ऐसे मुद्दे हमारे चुनावों का हिस्सा क्यों नहीं बनते? सवाल प्राथमिकताओं का भी है। यह संभव है कि जो मुद्दे उठाये गये वे भी उठने लायक हों, पर जो नहीं उठाये गये वे तो इस बात का उत्तर मांग रहे हैं कि जाति, धर्म, भाषा आदि को वोट मांगने का आधार क्यों बनाया जाता है? यह सवाल मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों से पूछना होगा कि वे यह क्यों मान लेते हैं कि मतदाता उनकी मुट्ठी में है?

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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