बेहतर प्रोत्साहन नीति में संकट का समाधान
धान की फसल के कटाई सीजन में एक बार फिर पराली जलाना खबरों में रहा। अब एक दशक से अधिक समय से, जब से पंजाब और राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के आसपास के राज्यों में पराली में आग लगाना ज्वलंत मुद्दा बन गया है, नई दिल्ली में कुख्यात वायु प्रदूषण के लिए किसानों को दोषी ठहराये जाने के साथ ही इस आग पर काबू पाने का संघर्ष अभी जारी है।
हालांकि पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीपीसीबी) ने दावा किया कि पिछले तीन साल में खेतों में आग लगने की घटनाओं में कमी आई, लेकिन 1 नवंबर के बाद तीन दिनों में इसमें 150 प्रतिशत का उछाल नजर आया। जबकि कई एफआईआर दर्ज की गई व जुर्माना लगाया गया फिर भी खेतों में आग लगने का संकट जारी रहा। संबंधित क्षेत्रों के एसडीएम को उन किसानों के राजस्व रिकॉर्ड में ‘रेड एंट्रीज’ करने के लिए कहा गया जो धान के अवशेषों को न जलाने के निर्देश नहीं मान रहे थे।
लेकिन यहां एक पेच है जब पत्रकार कहते हैं कि उपलब्ध कराए गए उपग्रह डेटा के आधार पर आग लगने की घटनाओं की संख्या में कमी आई है, तो उन्हें यह अहसास नहीं होता कि वह क्षेत्र अधिक मायने रखता है जो आग से बचाया गया है। आग की संख्या में कमी समानुपातिक रूप से उस क्षेत्र में कमी से संबंधित नहीं है जिस पर पराली जलाई जाती है। उदाहरणतया, पंजाब ने दावा किया कि पिछले साल यानी 2022 के धान कटाई के मौसम में पिछले कुछ वर्षों में पराली जलाने की संख्या में 30 प्रतिशत की कमी आई, लेकिन जो क्षेत्र असल में खेत में पराली जलाने से बचाया गया था वह केवल 1.5 प्रतिशत था। यह दर्शाता है कि खेत में आग लगने की घटनाओं का डेटा कितना भ्रामक हो सकता है।
कटाई सीजन के शुरुआती कुछ हफ्तों में, आग लगने की घटनाओं में महत्वपूर्ण कमी को लेकर खबरें आयीं। एक बार फिर ये न्यूज रिपोर्ट्स ऐसा आभास देती रहीं कि अवशेष जलाने की समस्या का बहुत हद तक खयाल रखा गया। वहीं इन खबरों के प्रकाशित होने तक पूरी खड़ी फसल की कटाई भी नहीं हुई थी जबकि इस साल पंजाब में करीब 190 लाख टन धान की फसल होने का अनुमान था। इसके बाद, जब गेहूं बुआई के लिए खेतों को तैयार करने का काम जोरों पर होगा तो आग लगाने की घटनाओं में तेजी जारी रहेगी।
इस वर्ष कटाई में देरी पंजाब में फसल रोपाई के सीजन के दौरान हुई भारी बारिश और बाढ़ के कारण हुई है (कुछ क्षेत्रों में, किसानों को सीजन में दो बार बाढ़ का सामना करना पड़ा) और पूरी फसल काटने में देर हुई है। इस बारे में हरियाणा बहुत बेहतर प्रदर्शन करता प्रतीत हो रहा है, क्योंकि जहां पंजाब में धान का क्षेत्रफल लगभग 32 लाख हेक्टेयर है, वहीं हरियाणा में धान का रकबा लगभग 50 प्रतिशत कम है, उसमें भी एक अहम हिस्सा बासमती का है, जिसके डंठल अक्सर नहीं जलाए जाते हैं। दिलचस्प यह है कि एनसीआर सीमा से सटे जिलों में पराली जलाई नहीं जाती है। दरअसल, नई दिल्ली की वायु गुणवत्ता हरियाणा के पड़ोसी जिलों की वायु गुणवत्ता से कहीं अधिक खराब है। इससे पता चलता है कि नई दिल्ली से सटे हरियाणा के जिलों को राजधानी से आने वाले बढ़ते प्रदूषण का सामना करना पड़ रहा है।
हमें नहीं भूलना चाहिये कि पंजाब अकेला धान के औसतन करीब 220 लाख टन अवशेष उत्पन्न करता है। पराली की इतनी भारी मात्रा सरकार के साथ ही इंडस्ट्री मिलकर भी मैनेज नहीं कर सकती हैं। अब कुछ सालों से किसान कह रहे हैं कि वे बिना आग लगाये स्थानीय तरीकों से पराली का प्रबंधन कर सकते हैं बशर्ते ऐसा करने पर उन्हें प्रोत्साहन का भुगतान किया जाये। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने किसानों को 1000 रुपये प्रति एकड़ प्रोत्साहन प्रदान करने के लिए केंद्र सरकार से 2000 करोड़ रुपये की मांग की थी। मौजूदा मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भी 1500 करोड़ रुपये की मांग की थी। केंद्र ने इन मांगों को मंजूर नहीं किया।
इसके बजाय केंद्र सरकार धान के डंठल के निपटारे की समस्या सुलझाने को और ज्यादा मशीनों पर जोर दे रही है। पहले ही पंजाब को सब्सिडी पर 1.37 लाख मशीनें प्रदान की जा चुकी हैं, जिनमें इस साल दी गयी 20000 मशीनें भी शामिल हैं। जबकि ये मशीनें एक साल में ज्यादा से ज्यादा तीन सप्ताह ही प्रयोग की जाती हैं व बाकी समय अधिकतर बेकार पड़ी रहती हैं। यह भी कि पंजाब तेजी से मशीनों के कबाड़खाने में तब्दील हो रहा है जहां केवल एक लाख ट्रैक्टरों की जरूरत है लेकिन इसके मुकाबले यहां एक्सेसरीज समेत पांच लाख से ज्यादा ट्रैक्टर हैं। हालांकि, नीति निर्माताओं को आगामी वर्षों में राज्य के समक्ष आने वाली एक और समस्या के प्रति सचेत करना चाहिए था, लेकिन इसके बजाय लगता है हर कोई मशीनें बेचकर खुश हो रहा है।
डंठल जलाने की समस्या परिदृश्य में कंबाइन हारवेस्टर्स के आने के बाद पैदा हुई। इस समय पंजाब में करीब 15000 कंबाइन हारवेस्टर्स हैं जिनमें से केवल 6000 में ही स्ट्रा मैनेजमेंट सिस्टम (एसएमएस) टेक्नोलॉजी लगी है। लेकिन किसान इस एसएमएस को पसंद नहीं करते क्योंकि इसमें अतिरिक्त लागत आने के अलावा डीजल की भी अधिक खपत होती है। इसी प्रकार शुरुआत में प्रदान की गयी 13000 हैप्पी सीडर मशीनें बेकार पड़ी हैं क्योंकि अब किसान नयी पीढ़ी की सुपर सीडर मशीनें पसंद करते हैं। लेकिन पंजाब में खेतों में आग लगाने की घटनाओं में कमी का अच्छा चलन केवल बालर मशानों के आगमन के बाद आया। इस साल करीब 2300 बालर मशीनें आवंटित की गयीं।
इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट (स्क्रॉल.इन मार्च 21, 2019) में खेत की आग से उत्पन्न होने वाली स्वास्थ्य और पर्यावरण से संबंधित लागत की तुलना की गई है, जिसे हर नीति निर्माता को जरूर पढ़ना चाहिए, और उम्मीद है कि रिपोर्ट एक ही बार में आंखें खोल देगी। इसमें कहा गया है कि फसल जलाने से हर वर्ष पर्यावरण और स्वास्थ्य व्यय के रूप में 2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है। अगर इस नुकसान की वसूली की जाए तो यह 700 अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थानों (एम्स) के लिए भुगतान करने को काफी होगा। यदि ऐसा है, तो मुझे पंजाब को प्रति वर्ष 2,000 करोड़ रुपये की ग्रांट देने से इनकार करने का कोई औचित्य नहीं दिखता, अगर इससे किसानों को उस विशाल समस्या से निपटने में मदद मिल सकती है जिसका सामना समाज बड़े पैमाने पर कर रहा है। हम थोड़ी राशि बचाने के चक्कर में बड़ी रकम गवांने की मूर्खता नहीं कर सकते हैं।
नीति-निर्माताओं को जागना होगा। किसानों पर दबाव डालना डंठल जलाने की समस्या का समाधान नहीं है। उनके साथ खड़े रहना, और पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान करना ही सही राह है। इस तरीके को और ज्यादा प्रभावी बनाने को जरूरी है कि फसल उठने के बाद के बजाय कटाई से पूर्व ही यह इंसेंटिव की राशि वितरित कर दी जाये।
लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।