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साझे प्रयासों से ही समरस व भाईचारे का समाज

08:43 AM Aug 23, 2023 IST

विश्वनाथ सचदेव

नौ अगस्त, 1942 की नहीं, इस साल के 9 अगस्त की बात है। मुंबई के ग्वालिया टैंक में जिसे अब अगस्त क्रांति मैदान कहा जाता है, एक सभा होने वाली थी, जिसमें भाग लेने के लिए जी.जी. पारीख नाम के एक 99 वर्ष के स्वतंत्रता सेनानी भी जाने वाले थे। पिछले 80 वर्ष से वे हर साल इस दिन उस मैदान में जाकर शीश नवाते रहे हैं जहां महात्मा गांधी ने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा लगाकर हमारे स्वाधीनता-संग्राम के निर्णायक दौर की शुरुआत की थी। जब यह नारा दिया गया था तब जी.जी. बच्चे थे। पर उस दिन भी वह वहां थे जहां से ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत हुई थी। पर लगभग आठ दशक बाद जब वह उस मैदान की ओर बढ़े तो उन्हें रोक दिया गया। अपने कुछ साथियों के साथ जी.जी. गिरगांव चौपाटी से ग्वालिया टैंक की ओर जा रहे थे। जी.जी. के साथियों को पुलिस बस में बिठाकर कहीं ले गयी और शायद उनकी आयु का लिहाज करके उन्हें घर जाने दिया गया। चौपाटी में तिलक की मूर्ति की परिक्रमा कर निराश जी.जी. वहां से चले गये। हुआ यह था कि जब जी.जी. अगस्त क्रांति मैदान जा रहे थे तो मैदान में सरकारी आयोजन हो रहा था। पता नहीं क्यों पुलिस को लगा कि 99 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी के वहां पहुंचने से मुख्यमंत्री के ‘मेरी माटी मेरा देश’ कार्यक्रम की धार कुंठित हो जाएगी।
मुख्यमंत्री के कार्यक्रम के पूरा हो जाने के बाद ही उस दिन जी.जी. अगस्त क्रांति मैदान पहुंच पाये थे। उन्हीं की तरह महात्मा गांधी के प्रपोत्र तुषार गांधी को भी तब वहां नहीं जाने दिया गया था। उन्हें तो सांताक्रुज से ही नहीं निकलने दिया गया। कुछ ऐसी ही स्थिति सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की भी थी।
ये तीनों और उनके बाकी साथी उस दिन अगस्त क्रांति मैदान में ‘बंधुत्व’ को बढ़ावा देने का संदेश लेकर पहुंचना चाहते थे। बाद में वे पहुंचे भी। पर 9 अगस्त, 1942 के बाद से आज तक संभवत: यह पहली बार था जब ‘बंधुत्व’ की बात करने वाले अथवा ‘भय’ को भारत छोड़ने का आह्वान देने वाले किसी भारतीय को इस तरह वहां पहुंचने से रोका गया था। बाद में जी.जी. पारीख ने पत्रकारों के समक्ष इस बात को स्पष्ट भी किया कि वह ‘अपने साथियों के साथ किसी बात का विरोध करने वहां नहीं जा रहे थे। जब नफरत को मिटाने के लिए प्यार का सार्वजनिक संदेश देने वालों को शासन द्वारा रोका जाता है तो पूरा समाज खतरे में पड़ जाता है।’
प्यार और बंधुत्व देने वालों को उस दिन मुंबई में क्यों रोका गया, यह बात स्पष्ट करना शासन ने ज़रूरी नहीं समझा। पुलिस ने यह भी नहीं बताया कि किसके आदेश से यह कार्रवाई की गयी थी। लेकिन यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि ऐसे किसी कार्यक्रम से सत्ता को डर क्यों लगता है? मुख्यमंत्री के ‘मेरी माटी मेरा देश’ अभियान की धार ‘नफरत भारत छोड़ो’ नारे से आखिर कुंद कैसे पड़ जाती? जी.जी. और उनके गिनती के साथियों का उद्देश्य समाज में फैल रही नफरत के खिलाफ आवाज़ उठाने का था। आयोजन पूर्णतः शांतिपूर्ण और अहिंसक था। फिर पुलिस ने यह कार्रवाई क्यों की? क्या पुलिस नहीं चाहती कि समाज से नफरत मिटे या समाज में भाईचारा बढ़े?
इस बार भारत छोड़ो का नारा प्रधानमंत्री मोदी ने भी लगाया है। उन्होंने ‘भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टीकरण भारत छोड़ो’ का आह्वान किया है। उन्होंने कहा ‘इस ‘भारत छोड़ो’ अभियान से देश बचेगा और देश के विकास में मदद मिलेगी’। क्या नफरत के खिलाफ आवाज़ उठाना देश के विकास में बाधक बनता?
यह सही है कि उस दिन मुंबई में नफरत के खिलाफ और भाईचारे के समर्थन में आवाज उठाने वाले जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के समर्थक थे। उनकी आस्था समाजवादी विचारों में थी, पर यह कोई अपराध तो नहीं है। जिन बुराइयों के भारत छोड़ने की बात की जा रही है, उनमें नफरत के जुड़ जाने से बात का वज़न ही बढ़ता। आठ और नौ अगस्त, 1942 की मध्यरात्रि में जब राष्ट्रपिता ने राष्ट्र को ‘करो या मरो’ का संदेश दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहा था कि हम किसी से नफ़रत नहीं करते, हमारा आंदोलन सत्याग्रह के सिद्धांतों पर आधारित है। गांधी ने इस बात को भी रेखांकित करना ज़रूरी समझा था कि ‘हमारा संघर्ष भारत की स्वतंत्रता के लिए है, न कि सत्ता के लिए।’ उन्होंने यह भी कहा था कि ‘विश्व-इतिहास में कभी भी स्वतंत्रता के लिए इस तरह का जनतांत्रिक संघर्ष नहीं हुआ।’
जिस जनतांत्रिक व्यवस्था में हमारे पूर्वजों ने अपना विश्वास प्रकट किया था और जिस जनतांत्रिक संविधान के आधार पर आज हम अपना शासन चला रहे हैं, उसका तकाज़ा है कि देश में घृणा को समाप्त करने के लिए और भाईचारे या बंधुत्व को बढ़ावा देने के लिए एक संघर्ष की शुरुआत हो। देश के हर नागरिक को इस संघर्ष में भाग लेना होगा, तभी इसकी सफलता सुनिश्चित हो सकती है। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, भाषा और क्षेत्रीयता के नाम पर आज जिस तरह से समाज को बांटने की कोशिशें हो रही हैं, उसके खिलाफ एक सतत अभियान की आवश्यकता है। और यह लड़ाई किसी एक वर्ग, या एक समाज या एक धर्म की नहीं है, हर भारतीय को यह लड़ाई लड़नी है।
हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में नफ़रत के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। कोई 99 वर्ष का जी.जी. पारीख जब नफ़रत को भारत से हराने के बात कह रहा है तो उसकी आंखों में सारे भारत की खुशहाली का सपना है। आज मणिपुर में जिस तरह जातीय हिंसा का तांडव हम देख रहे हैं या फिर हरियाणा में जिस तरह धर्म की रक्षा के नाम पर सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश की जा रही है, वह सिर्फ सरकारी प्रयासों से नहीं रुकेगा। सत्ता की राजनीति ऐसे प्रयास सफल नहीं होने देगी। कोई जी.जी. पारीख या कोई तुषार गांधी जब नफ़रत को मिटाने की बात करता है तो उसका उद्देश्य एक समरस और भाईचारे में विश्वास करने वाले समाज का निर्माण ही होता है। ऐसी कोशिशों पर किसी भी प्रकार का हमला उस भारत पर हमला है जो हम सबका है। आज जबकि गांधी के विचारों को लोक-स्मृति से मिटाने की कोशिशें हो रही हैं, ज़रूरी है कि घृणा और हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली ताकतों को समर्थन दिया जाये। पूरा समर्थन।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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