घातक व असामाजिक हालात बनाता सोशल मीडिया
केपी सिंह
पंजाब के एक विधि महाविद्यालय में नए प्रवेशकों के लिए एक अभिविन्यास कार्यक्रम में, यह जानना चौंकाने वाला था कि औसत छात्र दिन में सात घंटे से अधिक समय तक सोशल मीडिया (एसएम) पर व्यस्त रहते हैं, जिससे उनके पास खेल, पुस्तकालय और अन्य सामुदायिक व्यस्तताओं और व्यक्तिगत गतिविधियों के लिए कोई समय नहीं बचता है। यह अनुमान लगाया गया है कि 65 प्रतिशत किशोर सोशल नेटवर्किंग सेवा (एसएनएस) से जुड़े हुए हैं और उनमें से 72 प्रतिशत की इंटरनेट तक सीधी पहुंच है। भारत में सोशल मीडिया खातों और इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या 100 करोड़ के आंकड़े को पार कर गई है। पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर के आंकड़ों के अनुसार, 77 प्रतिशत कर्मचारी काम पर सोशल नेटवर्किंग साइटों का उपयोग करना स्वीकार करते हैं।
नि:संदेह, एसएम उन लोगों को अद्वितीय मंच प्रदान करता है जो अपने सामाजिक नेटवर्क को बढ़ाने, व्यवसाय को बढ़ावा देने और अकेलेपन को दूर करने की इच्छा रखते हैं। यह उन लोगों के लिए अपनेपन की भावना को बढ़ावा देता है जिन्हें कम्पनी की आवश्यकता होती है। एसएनएस सभी को विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, एक अच्छा समय व्यतीत करने और मनोरंजन का स्रोत प्रदान करता है। वहीं यह भी वास्तविकता है कि एसएम पर अत्यधिक सक्रियता इसके उपयोगकर्ताओं के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव डालता है।
बफेलो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, एसएनएस के अत्यधिक उपायों से उन कॉलेज के छात्रों के शारीरिक स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है जो बड़े पैमाने पर नेटवर्किंग साइटों का उपयोग करते हैं, उनमें सी-रिएक्टिव प्रोटीन (सीआरपी) का प्रभाव उच्च स्तर पर होता है, जो मधुमेह और हृदय सम्बन्धी बीमारियों से जुड़ी समस्या का संकेत है। सोशल मीडिया की आदी नई पीढ़ी को ‘नीली रोशनी के प्रभाव’ से पीड़ित होने का जोखि़म अधिक होता है, जो सक्रिय इलेक्ट्रोनिक उपकरणों से उत्सर्जित होती है, यह मेलाटोनिन हार्मोन के उत्पादन को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है जो निद्रा और जाग्रत-चक्र या ‘सर्केडियन’ लय को नियन्त्रित करता है, जिसके परिणामस्वरूप नींद और प्रतिरोधक-क्षमता प्रभावित होती है।
न्यूयॉर्क-प्रेस्बिटेरियन मेडिकल सेंटर में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ स्टडी (2018) की रिपोर्ट है कि स्क्रीन-टाइम गतिविधियों पर दिन में दो घंटे से अधिक समय बिताने वाले बच्चों ने भाषा और विचार परीक्षणों में कम अंक प्राप्त किए। सात घंटे से अधिक समय तक प्रतिदिन मीडिया स्क्रीन के सम्पर्क में रहने वाले कुछ बच्चों के मस्तिष्क के अवयव के पतले होने का अनुभव किया गया, मस्तिष्क का यह क्षेत्र आलोचनात्मक सोच और तर्क से सम्बन्धित है। 2015 में, मनोवैज्ञानिक मैरियन अंडरवुड और समाजशास्त्री रॉबर्ट फारिस ने तेरह साल के 200 से अधिक छात्रों के लगभग 1.5 लाख सोशल-मीडिया पोस्ट का विश्लेषण किया और पाया कि उन्होंने अपने लिए काफी अलग ऑनलाइन व्यक्तित्व बनाए थे, उन्होंने किसी झिझक और परिणामों या नतीजों के डर के बिना जो कुछ भी करना चाहा उसे करने या कहने की आज़ादी महसूस की। मीडिया सिद्धांतकार डगलस इस घटना को ‘डिजिफ्रेनिया’ कहते हैं, जो ‘एक ही समय में अपने एक से अधिक अवतारों में मौजूद रहने की कोशिश करने का अनुभव है।’
अध्ययनों ने स्थापित किया है कि सोशल मीडिया साइटों से प्राप्त लगातार उत्तेजना मनुष्यों में ध्यान-अवधि को कम करती है, और इसके दूरगामी परिणामों से रूबरू कराती है। ऐसे व्यक्तियों को स्वयं को स्पष्ट रूप से व्यक्त करना मुश्किल हो सकता है, वे विवरण पर कम ध्यान देने के परिणामस्वरूप गलतियां कर सकते हैं, और सामाजिक स्थितियों, कार्यस्थल और शैक्षणिक संस्थानों जैसी परिस्थितियों में खराब प्रदर्शन कर सकते हैं। तुलना मानव स्वभाव में निहित है। सोशल मीडिया पर प्रकाशित नकली वीडियो, प्रायोजित जानकारी, अव्यावहारिक समाधान और ‘श्ारारतपूर्ण उपाय’ इतने मंत्रमुग्ध कर देने वाले होते हैं कि अनजान और निर्दोष उपयोगकर्ता अपने ‘वास्तविक जीवन’ की तुलना अन्य लोगों के छद्म जीवन से करना शुरू कर देते हैं, जो अन्ततः उन्हें निराश, उदास और आत्म-संदेह से ग्रस्त करता है।
यह दुखद है कि डिजिटल प्लेटफार्म पर अधिकतम ‘लाइक्स’ प्राप्त करने की दौड़ और सर्वश्रेष्ठ वीडियो और कहानियां बनाने की ख़ोज ने कई भोले-भाले व्यक्तियों को अपने और दूसरों के निजी जीवन के प्रत्येक क्षण को साझा करने के लिए प्रोत्साहित कर दिया है, जिससे हर कोई उनकी गोपनीयता में घुसपैठ कर रहा है। इससे विभिन्न प्रकार के व्यवहार सम्बन्धी टकराव, सम्बन्धों में कलह और सामाजिक द्वंद्व उत्पन्न हो रहे हैं। ऐसे अबोध ग्राहक यह अन्तर नहीं कर पाते हैं कि दूसरों को प्रभावित करने की बजाय सोशल मीडिया प्लेटफार्म लोगों को लाभान्वित करने के लिए सबसे करीबी माध्यम है।
सामाजिक सम्पर्क साइटों पर गुप्त और असत्यापित जानकारी की बमबारी दर्शकों के दिमाग को अव्यवस्थित करने के अलावा उनके प्राइम-टाइम पर जगह बनाने और विचलित करने का कारण बन रही है, इसने उनसे दिमाग, दिल और आत्मा के साथ कुछ पल रहने और जीने का आनन्द छीन लिया है। इसके अतिरिक्त, पक्षपाती सोशल मीडिया एल्गोरिदम निष्क्रिय रूप से उपयोगकर्ताओं को अनुपयुक्त सामग्री का उपभोग करने के लिए मजबूर करते हैं जो नैतिक असंवेदनशीलता का कारण बन सकते हैं।
एक अध्ययन के अनुसार ऐसे पीड़ित स्क्रीन-उत्तेजना की खोज़ करने की इच्छा से मजबूर होकर, दिन में 79 बार अनैच्छिक रूप से अपने मोबाइल फोन की जांच करते देखे जा सकते हैं। नेटवर्किंग साइटों पर अत्यधिक व्यस्तता व्यक्तियों को एकान्त और अकेलेपन में घसीटने की क्षमता रखती है। नियमित रूप से आमने-सामने की बातचीत के अभाव में, मनुष्य चेहरे के संकेतों, आवाज़ के स्वर और परिवर्तन, श्ारीर की भाषा और भावनाओं की गर्मजोशी को पहचानने और उन पर प्रतिक्रिया करने की क्षमता खो देते हैं।
सोशल मीडिया की लत के नैतिक परिणाम कहीं अधिक गम्भीर हैं और ‘साइबरबुलिंग’ से लेकर निजता के उल्लंघन तक फैले हुए हैं। मिडल और हाई स्कूलों के 30 प्रतिशत छात्रों की पहचान ‘साइबरबुलिंग’ के पीड़ितों या दोषियों के रूप में की गई है, और उनमें से 18 प्रतिशत लड़कियां हैं। दुर्भाग्य से, ‘साइबरबुलिंग’ के 15 प्रतिशत पीड़ित अवसाद के कारण आत्महत्या करने का प्रयास करते हैं। सोशल मीडिया पर गुप्त पहचान और गुमनामी अक्सर उपयोगकर्ताओं को अनुचित सामग्री पोस्ट करने और पीछा करने, ट्रोलिंग और साइबरबुलिंग जैसे साइबर-अपराधों में लिप्त होने के लिए प्रोत्साहित करती है। हालांकि, टेलीग्राफ संचार अधिनियम, 2023 सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं के कर्तव्यों को निर्धारित करता है, ग्राहकों को उनकी निजता में अनधिकृत घुसपैठ से बचाने के लिए उपाय निर्धारित करता है और प्रवर्तन एजेंसियों को आपत्तिजनक संचार को रोकने और सेवा प्रदाताओं को ऐसे तत्वों को बेनकाब करने और उनके ‘एन्क्रिप्टेड’ संदेशों को प्रकट करने के लिए मजबूर करने का अधिकार देता है। लेकिन नियमों के अभाव और जनता की ओर से जागरूकता की कमी में यह निवारक कानून साबित नहीं हो रहा है।
मीडिया-स्क्रीन पर अति-सक्रियता के मुद्दे पर सभ्यता ऐसे घातक मोड़ पर खड़ी है कि उसे आत्मनिरीक्षण करना ही पड़ेगा कि ‘क्या हम सोशल मीडिया का उपयोग कर रहे हैं या इसने हमें हज़म करना शुरू कर दिया है?’
लेखक हरियाणा के पुलिस महानिदेशक रहे हैं।