एक साथ चुनाव की आकांक्षा से परे भी देखें
बेशक ‘एक देश-एक चुनाव’ की व्यवस्था के कई फायदे हैं लेकिन दशकभर बाद लागू होने वाले इस कानून को लेकर सत्तापक्ष की जल्दबाजी ‘दिलचस्प’ है। क्या चुनाव कराने में दक्षता से महत्वपूर्ण अौर मुद्दे देश के सामने नहीं हैं। यूं भी सरकार के पक्ष में या खिलाफ मतदान का अधिकार लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व है। मौजूदा व्यवस्था में भी इतनी तो लोच है कि चुनाव आयोग कुछ इलेक्शन एक साथ करवा सकता है।
अशोक लवासा
मतदाता और निर्वाचित प्रतिनिधि के बीच संबंध मांग और आपूर्ति जैसा है। लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनकर आए प्रतिनिधि वोटर की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की दिशा में काम करते हैं। सत्तारूढ़ पार्टी जहां अपने चुनावी वादों पर अमल करने की कोशिश करती है वहीं कभी-कभी अपना वह दृष्टिकोण लागू करने को काम करती है, जो उसके हिसाब से लोगों और देश के लिए अच्छा है।
‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का संकल्प भाजपा के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा तो हो सकता है, लेकिन समाज के किसी भी वर्ग द्वारा इसकी मांग नहीं की गई थी, हालांकि कुछ लोगों को लगता है कि भारत ‘बहुत अधिक लोकतंत्र’ से ग्रस्त है। किंतु, सत्तारूढ़ पार्टी ‘एक देश-एक चुनाव’ की खूबियों को लेकर काफी आश्वस्त है, यह उसके नेतृत्व द्वारा बार-बार किए दावों और जिस प्रकार का मसौदा राम नाथ कोविंद समिति बनाते वक्त सौंपा गया था, उससे स्पष्ट है। इसकी सिफारिशें पहले से तय निष्कर्ष हैं, लेकिन जिस तेजी से सरकार ने इस पर काम किया, उसने कई लोगों को चौंकाया। खंडित जनादेश से टिकी एनडीए सरकार से बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि वह इस मामले को इतनी शिद्दत से आगे बढ़ाएगी, खासकर जब इस पर कार्यान्वयन होना दूर की कौड़ी है।
एक व्यवस्था जो एक दशक बाद लागू होनी है, उस पर कानून बनाने की सरकार की जल्दबाजी वाली ‘दूरदर्शिता’ दिलचस्प है। साल 2024 के आम चुनाव से पहले महिला आरक्षण विधेयक (नारीशक्ति वंदन अधिनियम) पारित करने में इसी किस्म की तत्परता दिखाई थी। फर्क यह कि महिलाओं वाला विधेयक पारित करने में सभी पक्ष एकमत थे, वहीं ‘एक देश-एक चुनाव’ संबंधी 129वें संविधान संशोधक विधेयक की वांछनीयता पर मतभेद हैं। सरकार को विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को भेजने में आपत्ति नहीं हुई क्योंकि उसे पता था इससे विपक्ष संतुष्ट होगा और उसकी अपनी खुली सोच झलकेगी। जल्दबाजी में विधेयक पारित करना उद्देश्य नहीं हो सकता, इसे पटल पर लाना और आम सहमति की संभावना खोलना मंतव्य है ताकि लगे कि वे ‘बड़े’ चुनावी सुधार पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। लेकिन क्या ऐसा है?
संविधान में इस आशय का स्पष्ट प्रावधान हुए बिना, 1951 के बाद से, 15 वर्षों तक देशभर में चुनाव एक साथ होते रहे। लेकिन सत्ता राजनीति के उतार-चढ़ाव और गतिशीलता के कारण यह शृंखला टूट गई। किसी सरकार के पक्ष में या खिलाफ वोट का हक लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व है। बेशक यह विधेयक सत्तारूढ़ पार्टी को दिया समर्थन वापस लेने का हक नहीं छीनता, लेकिन मतदाताओं को ऐसी सरकार चुनने का ‘हक’ देता है, जो बीच कार्यकाल सदन में बहुमत खोने के बावजूद बाकी अवधि के लिए राज करती रहे। इस प्रकार, एक निवर्तमान निर्वाचित शासन सीमित अवधि के लिए आगामी निर्वाचित विकल्प हेतु मार्ग प्रशस्त करेगा।
इस तरह, सब चुनाव एक साथ करने के शौक में मतदाता पांच साल में एक बार खेलने को ऐसी टीम (सरकार) चुनेंगे जिसके मुख्य खिलाड़ी (सरकार) चोटिल होने (बहुमत खोने) के बावजूद वह एक्सट्रा या नाइटवॉचमैन के रूप में शासन करती रहे। इस प्रकार, उपचुनाव में किसी संसद या विधानसभा सदस्य को चुनने के लिए जो प्रणाली अब लागू है, तब वह मध्यावधि चुनाव की स्थिति बनने पर पूरे सदन के लिए लागू हो जाएगी।
सांसद इस पर विचार कर सकते हैं कि क्या लोगों के अधिकारों को ऐसे तोड़ना-मरोड़ना लोकतंत्र का चरित्र हनन नहीं? यह द्वैत बनाने से क्या हासिल होगा? क्या एक साथ चुनाव इतना पवित्र उद्देश्य है या फिर लोकतांत्रिक विकल्प प्रदान करने वाले मौलिक सिद्धांत को प्रबंधकीय दक्षता बनाने के अधीन बना दिया जाए? कानून निर्माताओं की समझ की परीक्षा हो रही है। आखिरकार, संविधान निर्माताओं ने एक साथ चुनाव कराने का प्रावधान नहीं किया और किसी आपातकालीन स्थिति की अनिवार्यताओं से निबटने के लिए, संवैधानिक ढांचे के भीतर रहते हुए, इस पर निर्णय का काम भारत के चुनाव आयोग पर छोड़ दिया।
कोई भी व्यक्ति एक लघु, त्वरित, एकल पूर्वानुमानित प्रक्रिया - खासकर जब इसमें एक अरब लोग शामिल हों - के लाभों पर किंतु-परंतु नहीं कर सकता। चुनाव कराना नियमित लोकतांत्रिक प्रक्रिया है, लेकिन यह यूपीएससी परीक्षा की तरह नहीं, जो एक तय कार्यक्रमानुसार, साल में एक बार सिविल सेवा परीक्षा आयोजित करता है। प्रशासनिक दक्षता वांछनीय है और ऐसे तरीके हो सकते हैं जिनसे चुनाव संचालन कम वक्त खपाऊ और कम मानव संसाधन इस्तेमाल करने वाला बन सके। अर्धसैनिक बलों पर अत्यधिक निर्भरता, जिनकी उपलब्धता का वास्ता देकर चुनाव आयोग लंबी अवधि चलने वाला बहु-चरणीय चुनाव करवाना मजबूरी गिनाता आया है, हमारी राजनीति की अस्थिर प्रकृति के कारण है। मौजूदा कानून चुनाव आयोग को किसी भी सदन का कार्यकाल समाप्त होने से छह माह पहले चुनाव कराने का अधिकार देता है, जिससे उसे कुशल प्रबंधन के लिए कुछ चुनाव एक साथ कराने में कुछ लचीलापन मिल जाता है। हालांकि, हालिया उदाहरण हैं कि चुनाव आयोग ने उन चुनावों को भी अलग-अलग करवाने का विकल्प चुना, जिन्हें आसानी से एक साथ करवा सकता था। स्पष्टतया, एक साथ चुनाव लागू करवाने पर दिखाई जाने वाली जल्दबाजी के पीछे सिद्धांत कम और मनमानी ज्यादा है।
यह तथाकथित सुधार संसद में पारित हो या न हो, अब समय है कि सरकार और राजनीतिक दल पैसा, अपराध, जाति, समुदाय, चुनावी प्रक्रिया की ईमानदारी, उम्मीदवारों की अयोग्यता और चुनाव खर्च सीमा तय करने जैसे मुद्दों संबंधी ठोस चुनावी सुधारों को आगे बढ़ाएं,जिनका सुझाव चुनाव आयोग ने भी दिया है और लंबित हैं। एक साथ चुनाव करवाने का उद्देश्य चुनावों पर सरकारी खर्च कम करना बताया जा रहा है, लेकिन चुनावों में काले धन का इस्तेमाल रोकने और राजनीतिक फंडिंग के पारदर्शी तरीके खोजने के बारे में क्या? नया विधेयक तथाकथित सुधारों के जरिये इन पर ध्यान केंद्रित करने को नहीं कह रहा। सनद रहे, आदर्श आचार संहिता केवल एक निश्चित श्रेणी के सार्वजनिक व्यय पर रोक लगाती है, ताकि सत्तारूढ़ दल को सरकारी संसाधन खर्च कर अनुचित लाभ न मिले। हैरानी यह कि सत्तारूढ़ दल प्रमुख नीतिगत निर्णय लेने को चुनावों से ऐन पहले तक इंतजार क्यों करते रहते हैं और फिर उन्हें ‘शासन में बाधा डालने वाला’ कहते हैं।
इससे आगे, किसी भी राज्य में चुनाव के मुद्दे उस सूबे के मतदाताओं और राजनीतिक नेताओं से संबंधित होते हैं, इनका असर न दूसरे राज्यों के मतदाता पर होता है और न केंद्र सरकार पर, जब तक कि पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व खुद प्रचार करने में न लग जाए और स्थानीय नेतृत्व को राज्य-स्तरीय मुहिम का प्रबंधन करने से वंचित कर दे। क्या एक साथ चुनाव से निर्वाचित स्थानीय निकायों पर ध्यान गौण हो जाएगा और यह बात उन्हें स्थानीय वोटर्स का प्रभावी प्रतिनिधि बनाने के बजाय, अपने केंद्रीय नेतृत्व का बेनाम प्रतिनिधि बना देगी? चुनावों का कुशल संचालन होना संतुष्टि का स्रोत है, लेकिन लोकतंत्र को इससे कहीं अधिक की आवश्यकता है। जिस प्रकार सांसद दूर भविष्य में चुनाव संचालन और अधिक कुशल बनाने के मुद्दे पर बहस में कीमती वक्त खर्च कर रहे हैं, उसकी जगह वे यहीं और अभी से लोगों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ध्यान दें। राजधानी में वायु गुणवत्ता खतरनाक है, खासकर संसद के बाहर, भूजल का गिरता स्तर, नदियों का प्रदूषण, शैक्षणिक संस्थानों और सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की दयनीय स्थिति और पर्यावरण का क्षरण सरकार के लिए अधिक तात्कालिक और दबावपूर्ण मुद्दे हैं और इन पर भी एक साथ चुनाव जितना ही ध्यान देने की आवश्यकता है।
भारत के नागरिक मताधिकार का बार-बार प्रयोग करके नहीं थके , लेकिन वे एक सभ्य जीवन जीने की आकांक्षाएं पूरी होने की प्रतीक्षा करते-करते थक चुके हैं।
लेखक पूर्व चुनाव आयुक्त हैं।