For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.
Advertisement

Shubha Mudgal संगीत की गहरी समझ से सधे सुर

04:05 AM Jan 11, 2025 IST
shubha mudgal  संगीत की गहरी समझ से सधे सुर
गायिका शुभा मुद्गल
Advertisement

Advertisement

संगीत में अपनी राह चुनने के बाद शुभा मुद्गल ने विधिवत शास्त्रीय संगीत की तालीम ली। 1990 के दशक में उन्होंने पॉप और फ्यूजन सहित संगीत के अन्य रूपों के साथ प्रयोग करना शुरू किया। शुभा मुद्गल अपने जुनून, आवाज व लय की समझ के बूते आज खयाल, ठुमरी, दादरा सहित प्रचलित पॉप संगीत की स्थापित गायिका हैं। वे हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को वैश्विक स्तर तक
ले गयीं।

राजेन्द्र शर्मा
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत खयाल, ठुमरी, दादरा सहित प्रचलित पॉप संगीत की गायिका हैं शुभा मुद्गल। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर दंपती की पुत्री शुभा मुद्गल का जन्म एक जनवरी 1949 को इलाहाबाद में हुआ। अकादमिक परिवार में पली-बढ़ी शुभा ने संगीत की अपनी अलग राह चुनी। अस्सी के दशक में उन्होंने मंच संभाला तो उनका कोई गॉडफादर नहीं था। उनके पास कुछ था तो वह अपने गुरु रामाश्रय झा का आशीर्वाद और सतत साधना। उन्होंने शास्त्रीय संगीत की तालीम ली व दमदार आवाज के बूते देश-विदेश में अपनी पहचान स्थापित करने में सफल हुईं।
किस्म-किस्म के संगीत में नये प्रयोग का सिलसिला
दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक करने के समय ही शुभा ने जितेंद्र अभिषेकी, नैना देवी और कुमार गंधर्व से सुरों की तालीम ली। 1990 के दशक में उन्होंने पॉप और फ्यूजन सहित संगीत के अन्य रूपों के साथ प्रयोग करना शुरू किया। उनके इस कदम की आलोचना भी हुई लेकिन शुभा ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को वैश्विक स्तर पर ले जाने का जो रास्ता चुना था, उसे नहीं छोड़ा। शुभा का कहना था कि ‘मैं संगीत में विश्वास करती हूं। ख्याल और ठुमरी मेरे पसंदीदा हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मुझे अन्य रूपों के साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए।’ सतत प्रयासों से शुभा मुद्गल ने शास्त्रीय और लोकप्रिय भारतीय गायन संगीत के बीच की खाई को पाटा। मसलन, ‘अली मोरे अंगना’ या ‘अबकी सावन ऐसे बरसे’ जैसे गाने हमेशा युवाओं की पसंद रहेंगे।
मैहर में एक प्रशंसक का अपनापन
दुनिया भर में अपने प्रशंसकों से घिरी शुभा मुद्गल आज भी मध्य प्रदेश के मैहर में अपने प्रशंसक को नहीं भूल पायी हैं जो रेलवे में सफाई कर्मचारी था। साल 1990 के आस पास की बात है, जाने-माने सरोद वादक उस्ताद अलाउद्दीन खान की स्मृति में मैहर में आयोजित एक समारोह में शुभा को गाना था। हालांकि शुभा ने ट्रेन की जानकारी आयोजकों को चिट्ठी से दे दी थी किन्तु वे भूल गये। शुभा मुंबई से ट्रेन से मैहर पहुंचीं तो वहां उन्हें कोई रिसीव करने नहीं आया। रात के करीब नौ बजे थे, शुभा अकेली ही थीं, थोड़ा डरी हुईं। तभी वहां झाड़ू लगा रहा एक कर्मचारी खुद ही शुभा मुद्गल के पास आया और पूछा कि क्या वो कार्यक्रम के सिलसिले में आई हैं, हां कहने पर कर्मचारी ने कहा कि वे बिल्कुल निश्चिंत रहें और स्टेशन मास्टर के कमरे में बैठें। उस सज्जन ने शुभा के लिए चाय भी मंगा दी और आयोजकों तक खबर भी भिजवा दी तो आयोजक आ गए। बहरहाल जब शुभा मुद्गल वहां से जाने लगीं तो शुभा ने उनसे कहा कि वो उन्हें कैसे धन्यवाद दें। इसके जवाब में उस कर्मचारी ने गुजारिश की कि ‘जो बहुत दिनों से नहीं सुना है कल वो ही सुना दीजिएगा’।
बाबुल के घर जैसा इलाहाबाद
शुभा मुद्गल ने इलाहाबाद में अपने जीवन के बाईस बरस बिताये, वहीं पली-बढ़ी। सालों बाद भी इलाहाबाद उनमें किस कदर समाया है, इसका नजारा हाल ही में इलाहाबाद में आयोजित ‘बज़्म ए विरासत’ में देखने सुनने को मिला। उनके चेहरे के भाव ऐसे थे कि मानो कोई बिटिया अपने बाबुल के घर आई हो। कार्यक्रम में शुभा ने सबसे पहले अपने गुरु रामाश्रय झा को नमन करते हुए उनकी चतुरंग रचना ‘गाएंगे सजना, सजना गुनी जन बीच’ सुनाई। उसके बाद महाकवि निराला की कविता ‘बांधो ना नाव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु’ सुनाई। तीसरी प्रस्तुति महादेवी वर्मा की कविता ‘फिर विकल हैं प्राण मेरे, तोड़ दो क्षितिज...’ सुनाई। शुभा का सैन्स आफ ह्यूमर गजब का है, इलाहाबाद के इस आयोजन में उन्हें आमंत्रित करने के लिए उन्होंने कहा कि ‘घर की मुर्गियों को बुलाने के लिए शुक्रिया’। शुभा मुद्गल की बिंदी और साड़ी वाली छवि संगीत कार्यक्रमों वाले टीवी चैनल संस्कृति से मेल नहीं खाती, इसके बावजूद वे अपनी आवाज और लय की असाधारण समझ से वैश्विक स्तर पर सुनी जा रही हैं, व हमेशा सुनी जाती रहेंगी।

Advertisement

Advertisement
Advertisement