मासूमियत और यथार्थ की लघुकथाएं
डॉ. अशोक भाटिया
डाॅ. कमल चोपड़ा की पुस्तक ‘कल की शक्ल’ 71 बाल-लघुकथाओं का संग्रह है। इस संग्रह में लेखक बाल-मनोविज्ञान को आधार बनाकर एक ओर बच्चों की निश्छलता और संवेदनशीलता को उजागर करते हैं, तो दूसरी तरफ यथार्थ के विभिन्न आयामों से उनका सामना कराकर विसंगतियों और विद्रूप को बच्चों की सरल-सहज भाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह संग्रह बच्चों की दुनिया को गहराई से समझने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है सांप्रदायिक सोच, समाज के भीतर पैठी ऊंच-नीच की भावना, बाल-शोषण आदि का प्रतिकार करती इन लघुकथाओं का सौंदर्य मासूमियत और कठोर यथार्थ की टकराहट से उपजा है।
पहली रचना ‘बताया गया रास्ता’ में तनाव के माहौल में रिक्शावाला स्कूल से बच्ची को लेने पहुंचता है, तो चौकीदार की आशंका को निर्मूल करते हुए वह कहती है, ‘ये मुसलमान थोड़े ही हैं। ये तो मेरे शैफू चाचा हैं। सुना नहीं, अभी मुझे बेटी कहकर बुला रहे थे।’ डाॅ. कमल की चर्चित लघुकथा ‘छोनू’ में दंगाई बच्चे को मारने की बात करते हैं, तो उसके शब्द बड़े लोगों को सीख दे जाते हैं : ‘मैं छिक्ख-छुक्ख नईं... मैं बीज-ऊज नईं... मैं तो छोनू हूं।’ ‘विश’ में मां की संवेदनहीनता को बच्ची की सद्भावना बौना साबित कर देती है। ‘सपने’ बाल-मजदूरी पर केंद्रित सकारात्मक सोच की लघुकथा है तो ‘आप खुद’ में कामगार बच्चा ग्राहक के सामने ही मालिक के झूठ की पोल खोल देता है; बेशक बच्चे का दीर्घ संवाद भाषण-सा लगता है।
‘मिन्नी को सज़ा’, ‘खेलने दो’, ‘भगवान का घर’, ‘फुहार’, ‘निर्दोष’, ‘आप कहां हैं?’, ‘कसूर किसका’ आदि कितनी ही लघुकथाएं पाठक के मन को मूल्य-बोध के स्तर पर प्रभावित कर जाती हैं।
पुस्तक : कल की शक्ल लेखक : डाॅ. कमल चोपड़ा प्रकाशक : किताब घर, नयी दिल्ली पृष्ठ : 144 मूल्य : रु. 375.