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जलवायु बदलाव के अनुरूप हो संवेदनशील प्रबंधन

07:41 AM Jul 18, 2024 IST
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वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली

वर्ष 2013, जून की केदारनाथ त्रासदी को 2004 की सुनामी के बाद की देश की सबसे बड़ी त्रासदी कहा जाता है। केदारनाथ धाम व पूरी केदार घाटी के 15-16 जून, 2013 के भयंकर जल प्रलय में लगभग एक हजार स्थानीय लोगों के साथ करीब 6 हजार लोग मारे गये थे। रामबाड़ा, तिलवाड़ा, अगस्तमुनी, गुप्तकाशी में भारी नुकसान के साथ 4200 गांव प्रभावित हुए थे।
तब 14 से 17 जून तक लगभग पूरा उत्तराखंड, नेपाल, हिमाचल अति वृष्टि के चपेट में था। वैज्ञानिकों ने इसे नार्दन फ्लैश फ्लड भी कहा था व जलवायु बदलाव की व्यापकता का प्रमाण माना था। भारी बरसात में करीब 7 किमी लम्बाई के चोराबाड़ी ग्लेशियर में 3865 मीटर ऊंचाई पर स्थित चोराबाड़ी झील, अपनी परिधि में टूट गई थी। इसके बहे भारी मलबे व अथाह जलराशि ने केदारनाथ धाम को चपेट में लिया था। चोराबाड़ी ग्लेशियर के स्रोतों से ही चोराबाड़ी झील के साथ मंदाकिनी नदी का स्रोत भी बनता है। बढ़े हिम पिघलाव व बहाव से मंदाकिनी विकराल होती गई। कहीं-कहीं इसका जल स्तर 15 मीटर तक भी चढ़ गया था।
उस आपदा से उबरने के लिये बड़े पैमाने पर काम भी हुए हैं। अब सुविधाएं इतनी जुटा ली गई हैं कि प्रतिदिन बीस-पच्चीस हजार यात्री वहां पहुंच रहे हैं। लेकिन चिंताजनक यह कि सीमित क्षेत्र में हजारों मानव कृत्यों से हीट आइलैंड्स बनने की संभावनाएं भी बढ़ी हैं। खुद यात्री कहते हैं कि तेज धूप होती है तो झेलनी मुश्किल होती है।
पूरे हिंदुकुश हिमालय पर ही जलवायु बदलाव के खतरे बढ़े हैं। पश्चिमोत्तर हिमालय में 1991 के बाद औसत तापमान 0‍.66 सेंटीग्रेड बढ़ गया है। हिमालयी ग्लेशियरों की पिघलने की दर दुगुनी हो गई है व पहाड़ बर्फविहीन हो रहे हैं। अगर केदारनाथ के आसपास ऐसा होता है तो हम इसे वैश्विक कारणों से होना ही नहीं कह सकते बल्कि उनके साथ यहां स्थानीय आघात भी जुड़ रहे हैं। फरवरी, 2021 में नीति घाटी में ग्लेशियर टूटने से धौली गंगा में भारी बाढ़ आई थी।
दरअसल, पर्यटन व्यवसाय केन्द्रित पुनर्स्थापना की दिशा इतनी आगे चली गई है कि बीती 3 जून, को हेलिकॉप्टर से एक जीप केदार पुरी में उतार दी गई। दलील है इससे अशक्तों काे सुविधा मिलेगी। यदि ऐसा ही रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब दसियों ऐसे वाहन होंगे। ऐसे ही अब हर घंटे करीब 25 हेलिकॉप्टर उड़ानें हो रही हैं जिनसे केदार नाथ सेंक्चुरी भी खतरे में है।
वर्ष 2015 में ही एनजीटी ने उत्तराखंड सरकार से उड़ानों के वन्यजीवों पर असर का वैज्ञानिक अध्ययन करवाने को कहा था। खासकर उड़ाने बहुत नीचे होने पर आघात बढ़ जाते हैं। वहीं पंखों की हवा से धाम में कम्पन से आसपास ग्लेशियर्स की ताजी बर्फ अस्थिर नहीं हुई होगी, इस बात से इनकार नहीं कर सकते। आशंका व्यक्त की गई थी कि हेलिकॉप्टर उड़ानों से त्रस्त दुर्लभ वन्यजीव अपने अधिवास छोड़ रहे हैं।
वर्ष 2013 की आपदा से इकोसिस्टम को भी बड़ा नुकसान पहुंचा। सरकारों ने न तो इस पारिस्थितिकीय नुकसान को जाना और न ही प्रकृति को बीते ग्यारह सालों में स्वतः ठीक होने का मौका दिया। इस दौरान अबाध निर्माण गतिविधियों व मानव उपस्थिति और तेज रोशनी में जब कपाट बंद रहते हैं तब भी निर्माण कार्य जारी रहे। इसके उलट भूस्खलन, जलस्रोत सूखने व केदारनाथ वन सेंक्चुरी जैसे जैव विविधता के क्षेत्रों में वनाग्नियों के जोखिम भी बढ़े। पर्यावरणीय, पारिस्थितिकीय पुनरुत्थान के बजाय इनमें गिरावट ही आई। हजारों की भीड़ से जलापूर्ति व कचरे की समस्याएं बढ़ी हैं। पारिस्थितिकीय हानि इतनी होने लगी कि पगडंडी मार्गों पर हिमस्खलन जोखिम हर साल बढ़ रहे हैं। ग्लेशियर टूटने की ही तरह ग्लेशियर फिसल कर बस्तियों, मार्गों या ट्रैकिंग राहों में आकर जान-माल का नुकसान बढ़ा है।
केदार धाम जैसे हिमालयी क्षेत्रों में लगातार हेलिकॉप्टर उड़ानों व सूक्ष्म भूकम्पकीय झटकों से तेज बरसातों, ताजी बर्फ में फिसलाव व टूटन का खतरा तो रहेगा ही। जलवायु बदलाव के कारण ग्लेशियर्स की समस्याओं के साथ ही केदारनाथ जैसी जगहों में बादल विस्फोट बड़ी समस्या होने जा रही है। इन ग्यारह सालों में नये लैंडस्लाइड जोन बन गये हैं। फ्लैश फ्लडों से अब ज्यादा नुकसान होने की संभावनाएं हैं।
उत्तराखंड सरकार को इस दिशा में नई क्षमता विकसित करनी होगी। किसी स्थल में आकस्मिक घटित आपदा की सूचना पाकर हम कितने जल्दी पीड़ितों के बचाव व खोज कार्यों के लिये वहां पहुंचते हैं। मौसम वैज्ञानिक के अनुसार यदि बादल विस्फोटों की चेतावनियां दी भी जा सकें तो उन पर अमल के लिये दो-तीन घंटों का ही समय मिलता है।
मंदाकिनी और सरस्वती नदियों पर रोक दीवारें भी बन गई हैं व बगल में रास्ते भी। नदियों के बाढ़ प्रबंधन और रिटेनिंग वॉल निर्माणों में बाढ़ जल के विगत में अधिकतम ऊंचाई के स्तर और अधिकतम फैलाव को संज्ञान में रखा जाता है। यहां केदार नाथ आपदा ने यह भी दिखाया कि चोराबाड़ी झील जब अपनी परिधि तोड़ेगी तो बाढ़ का पानी किन-किन राहों सेे कहां-कहां तक पहुंच सकता है। अथवा मन्दाकिनी नदी आगे बाढ़ों में तटों को तोड़े तो उसकी जलराशि कितना फैलाव ले सकती है व कितना ऊपर चढ़ सकती है।
यदि इन्हीं बरसाती पानी के रास्तों पर निर्माण होंगे तो जोखिम बने रहेंगे। स्थिति न बदली गयी तो भविष्य में भी जलवायु बदलाव के दौर में न तो चोराबाड़ी ग्लेशियर का पिघलाव कम होगा और न बादल विस्फोटों की संभावनाएं उत्तराखंड में कम होंगी।

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