एकीकृत कमान ही तोड़ेगी आतंकवाद की रीढ़
ले. जनरल डीएस हुड्डा
जम्मू संभाग से कैप्टन बृजेश थापा और तीन अन्य बहादुर सैनिकों के शहीद होने की दुखद खबर आई है। उन्होंने डोडा जिले के देसा वन में आतंक-रोधी अभियान में अपने फर्ज को अंजाम देते हुए जीवन की आहुति दी है। यह घटना पिछली वारदात के एक हफ्ते के अंदर घटी है, जिसमें सैनिकों पर घात लगाकर किए गए कातिलाना हमले में पांच सैनिक शहीद हुए थे। कठुआ जिले के बदनोता गांव के पास उनके वाहन को निशाना बनाया गया था।
कभी अपेक्षाकृत शांत समझे जाने वाले जिले पुंछ और राजौरी में भी पिछले दो सालों से चिंतित करने वाली आतंकी घटनाओं में उछाल आया है। अब आतंकी गुट रियासी, कठुआ और डोडा जिलों में हमले करने लगे हैं, जिन्हें पहले कमोबेश आतंक-मुक्त माना जाता था। ऐसा होने पर जम्मू संभाग के एक छोर से दूसरे तक टकराव के बिंदु उभर आए हैं, यह आतंकवादियों द्वारा सोच-समझकर इस क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करने वाली नीति का संकेत है। आधुनिक हथियारों से लैस और अच्छी तरह प्रशिक्षण प्राप्त आतंकवादी जम्मू की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से होकर घुसपैठ करने में सफल रहे हैं। इस बात की पूरी संभावना है कि घुसपैठ पंजाब वाली सीमा से भी हुई होगी। जम्मू-कश्मीर पुलिस के महानिदेशक आरआर सिवान ने भी इस कयास को कबूलते हुए कहा है ‘कुछ घुसपैठ हो रही है, यह सबको मालूम है।’
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद से निपटने में दो मुख्य पहलू हैं। प्रथम, पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध आतंकवाद को बतौर राजकीय नीति बरतने से रोकना। इस पर नियंत्रण प्राप्ति के लिए जरूरत है भारत की राष्ट्रीय शक्ति का निरंतर एवं भरोसेमंद प्रदर्शन किया जाना ताकि पाकिस्तान को अहसास हो कि ऐसी नीतियां अंततः उसका अपना नुकसान करेंगी। यह वह दीर्घ-कालीन प्रयास है, जिसमें राजनयिक, आर्थिक और संभावित सैन्य उपाय शामिल हैं।
दूसरा पहलू है, भारतीय भूमि से आतंकवाद को सख्ती से उखाड़ फेंकना। हालांकि सामान्य आतंक-रोधी अभियानों में कुछ झटके लगना स्वाभाविक होता है परंतु उनके सतत हमले, जिसमें आतंकवादियों को नुकसान की बनिस्बत सैनिकों और सिविलियनों की जानें ज्यादा जाएं, यह सुरक्षा बलों द्वारा अपनाई रणनीति और उपायों पर गंभीर सवाल है। सैन्य नेतृत्व के लिए यह जरूरी है वे अपने तौर-तरीकों की समीक्षा करें, अपने निजी अनुभवों के आधार पर मेरे कुछ सुझाव हैं।
अंतर्राष्ट्रीय सीमा और वास्तविक नियंत्रण सीमा रेखा पर लागू आतंकी घुसपैठ रोधी तंत्र को सुदृढ़ किया जाए। इसके लिए जहां जरूरी हो, वहां अतिरिक्त बल की तैनाती की जाए। तथापि, यहां पर इंसानी सहनशक्ति की सीमा की पहचान करना बहुत महत्वपूर्ण है। महीनों तक, लगातार काम में लगे रहने से थकान हावी होना स्वाभाविक है। जिससे ध्यान केंद्रित रखने में बाधा और गलतियां करने की संभावना बढ़ जाती है।
इसका हल निकालने को तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। कोई एक दशक से अधिक समय में सीमा पर ‘स्मार्ट बाड़’ लगाने की बातें चलती रही हैं लेकिन इस पर अमल लगातार नहीं हुआ है। अंतहीन पूर्व-परीक्षणों से सटीकतम हल पाने का इंतजार करने की बजाय हमें पहले वह बाड़ चुन लेनी चाहिए जो मौजूदा वाली से अधिक कारगर हो। साथ ही, हमें सुरंगों को पकड़ने वाली तकनीक को सुधारने की जरूरत है। प्राप्त सूचनाओं के अनुसार आतंकियों ने सीमा रेखा के आरपार ऐसी सुरंगें बना रखी हैं।
विशेष सुरक्षा बलों को आतंक-रोधी अभियानों में अधिक जिम्मेवारी दी जाए। यह हमारे वह सबसे बढ़िया प्रशिक्षित सैनिक हैं, जो पहाड़ी और वनीय इलाके में अक्सर छिपने वाले आतंकियों को ढूंढ़कर मार गिराने के लिए छोटी टोली में बंटकर, अभियान चलाने के लिए आदर्श रूप में सटीक बैठते हैं। अतिरिक्त विशेष बलों को तैनात कर और चिह्नित इलाके में अपना काम करने का मुक्तहस्त देकर, हम अपने अभियानों की प्रभावशीलता बढ़ा सकते हैं। खुफिया सूचनाएं सफल अभियानों की रीढ़ की हड्डी होती हैं। अक्सर इंसान से मिली खुफिया जानकारी सबसे विश्वसनीय होती है। स्थानीय समुदायों को अपने साथ जोड़कर, हम अपने गुप्त सूचना तंत्र को विस्तार दे सकते हैं। बेशक कुछ ऐसे स्थानीय लोग भी होंगे, जो आतंकियों के पक्षधर हैं, लेकिन फिर भी जम्मू की कुल आबादी में अधिसंख्यक घोर राष्ट्रवादी हैं। इसलिए स्थानीय लोगों को शक की निगाह से देखने का परिणाम उलट हो सकता है। इसकी बजाय, हमें स्थानीय लोगों से अधिक संख्या में विशेष पुलिस अधिकारी और ग्राम सुरक्षा प्रहरी भर्ती करने चाहिए। ये लोग हमारे लिए आंख और कान का काम करेंगे, साथ ही आतंकियों के विरुद्ध सुरक्षा की प्रथम पंक्ति भी मुहैया करवाएंगे। अधिक खुफिया सूचना प्रवाह बनने पर, सुरक्षा बल अपना ‘खोज एवं खात्मा’ अभियान प्रभावी रूप से चला पाएंगे।
फिलहाल उस इलाके में कई सुरक्षा संगठन काम में लगे हैं। सीमा सुरक्षा बल अंतर्राष्ट्रीय सीमा का ख्याल रखती है, केंद्रीय रिर्जव पुलिस बल अंदरूनी क्षेत्र में सड़क सुरक्षा प्रदान करती है तो केंद्र शासित प्रदेश का पुलिस बल स्थानीय कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए। सेना का मोटे तौर पर काम है आतंक-रोधी कार्रवाई चलाना। इन सभी संगठनों की अपनी अलग कमान व्यवस्था और सूचनार्थ पदानुक्रम है।
हालांकि अक्सर यह कहा जाता है कि इनके बीच आपसी संपर्क और समन्वय बढ़िया है, किंतु प्रबंधन में इस किस्म की प्रभावशीलता एकीकृत कमान एवं नियंत्रण तंत्र के समक्ष कमतर होती है। अपनी भूमिका की प्रवृत्ति के मद्देनजर, सूबा पुलिस को बेशक उप-राज्यपाल की शक्ति तले बनाए रखना होगा। लेकिन सेना, सीमा सुरक्षा बल और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, जिनका मुख्य काम आतंकरोधी कार्रवाई करना हैं, इन्हें एकीकृत कमान के तहत लाया जा सकता है। ऐसा होने पर सभी बलों के लिए समावेशी रणनीति, स्रोतों का समुचित उपयोग और खुफिया जानकारी का बेहतर आदान-प्रदान हो सकेगा। अधिक महत्वपूर्ण है कि कुछ चूक होने पर जिम्मेवारी तय हो सकेगी। यहां आलोचक भले ही दलील दें कि भारत ने विद्रोहियों से निपटने में पहले कभी भी एकीकृत व्यवस्था नहीं रखी। तथापि, हाथ से निकलती जा रही स्थिति की मांग है कि पुराने तंत्र को तोड़कर नया प्रभावीतंत्र बनाया जाए। एकीकृत कमान व्यवस्था अपनाना जम्मू में बढ़ते जा रहे आतंकवाद के खतरे का सामना करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम हो सकता है।
इन मुख्य उपायों से– घुसपैठ रोधी उपाय को सुदृढ़ करना, नवीनतम तकनीक का समावेश, विशेष सुरक्षा बलों का सशक्तीकरण, खुफिया तंत्र का विस्तार और एकीकृत कमान तंत्र बनाकर– हम अपने आतंकरोधी प्रयासों को विस्तार दे सकते हैं और हमारे सैनिकों और सिविलियनों की जान की रक्षा की संभावना बेहतर बना सकते हैं। उम्मीद करें कि कैप्टन थापा और उनके साथी सैनिकों का बलिदान, उन सुधारों की दिशा में उत्प्रेरक का काम करेगा, जिनकी जरूरत शिद्दत से है। उनकी बहादुरी से इस इलाके की सुरक्षा का भविष्य सुनिश्चित हो सकेगा।
लेखक सेना की उत्तरी कमान के कमांडर रहे हैं।