मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

आत्मनियंत्रण से थमेगा सांसों का ज़हर

06:23 AM Nov 23, 2023 IST

पंकज चतुर्वेदी

Advertisement

जब दिल्ली और उसके आसपास दो सौ किलोमीटर की सांसों पर संकट छाया और सुप्रीम कोर्ट ने सख्त नजरिया अपनाया तो सरकार का एक नया शिगूफा सामने आ गया—कृत्रिम बरसात। वैसे भी दिल्ली के आसपास जिस तरह सीएनजी वाहन अधिक हैं, वहां यह बरसात नए तरीके का संकट ला सकती है। विदित हो सीएनजी दहन से नाइट्रोजन ऑक्साइड और नाइट्रोजन की ऑक्सीजन के साथ ‘आक्साइड आफ नाइट्रोजन’ का उत्सर्जन होता है। चिंता की बात यह है कि ‘आक्साइड आफ नाइट्रोजन’ गैस वातावरण में मौजूद पानी और ऑक्सीजन के साथ मिलकर तेजाबी बारिश कर सकती है।
यहां कृत्रिम बरसात की तकनीक को समझना जरूरी है। इसके लिए हवाई जहाज से सिल्वर-आयोडाइड और कई अन्य रासायनिक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है, जिससे सूखी बर्फ के कण तैयार होते हैं। असल में सूखी बर्फ ठोस कार्बन डाइऑक्साइड ही होती है। सूखी बर्फ की खासियत होती है कि इसके पिघलने से पानी नहीं बनता और यह गैस के रूप में ही लुप्त हो जाती है। यदि परिवेश के बादलों में थोड़ी भी नमी होती है तो यह सूखी बर्फ के कोनों पर चिपक जाती है। इस तरह बादल का वजन बढ़ जाता है, जिससे बरसात हो जाती है।
एक तो इस तरह की बरसात के लिए जरूरी है कि वायुमंडल में कम से कम 40 फ़ीसदी नमी हो, फिर यह थोड़ी-सी देर की बरसात ही होती है। इसके साथ यह ख़तरा बना रहता है कि वायुमंडल में कुछ ऊंचाई तक जमा स्मॉग और अन्य छोटे कण फिर धरती पर आ जायें। साथ ही सिल्वर आयोडाइड, सूखी बर्फ के धरती पर गिरने से उसके संपर्क में आने वाले पेड़-पौधे, पक्षी और जीव ही नहीं, नदी-तालाबों पर भी रासायनिक ख़तरा बना रहता है।
हमारे नीति-निर्धारक आखिर यह क्यों नहीं समझ रहे कि बढ़ते प्रदूषण का इलाज तकनीक में तलाशने से ज्यादा जरूरी है प्रदूषण को ही कम करना। दिल्ली में अभी तक जितने भी तकनीकी प्रयोग किये गये, हकीकत में वे बेअसर ही रहे हैं। यह तो भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसकी एक टिप्पणी के चलते इस बार दिल्ली में वाहनों का सम-विषम संचालन थम गया। तीन साल पहले एम्स के तत्कालीन निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कह दिया था दूषित हवा से सेहत पर पड़ रहे कुप्रभाव का सम-विषम स्थायी समाधान नहीं है। क्योंकि ये उपाय उस समय अपनाये जाते हैं जब हालात पहले से ही आपात स्थिति में पहुंच गये हैं। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट भी कह चुकी है कि जिन देशों में ऑड-ईवन लागू हैं वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट काफ़ी मजबूत और फ्री है। सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड अदालत को बता चुकी है कि ऑड-ईवन से वायु-गुणवत्ता में कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ। प्रदूषण सिर्फ 4 प्रतिशत कम हुआ है।
इससे पहले हम ‘स्मॉग टॉवर’ के हसीन सपनों को तबाह होते देख चुके हैं। दिवाली के पहले जब दिल्ली में वायु गुणवत्ता सबसे खराब थी तब राजधानी में लगे स्मॉग टावर धूल खा रहे थे। सनद रहे 15 नवम्बर, 2019 को जब दिल्ली हांफ रही थी तब सुप्रीम कोर्ट ने तात्कालिक राहत के लिए प्रस्तुत किये गये विकल्पों में से ‘स्मॉग टॉवर’ के निर्देश दिए थे। एक साल बाद दिल्ली-यूपी सीमा पर 20 करोड़ लगाकर आनंद विहार में स्मॉग टावर लगाया। इससे पहले 23 अगस्त को कनॉट प्लेस में पहला स्मॉग टॉवर 23 करोड़ खर्च कर लगाया गया था। इसके संचालन और रखरखाव पर शायद इतना अधिक खर्चा था कि वे बंद कर दिए गये। इसी हफ्ते जब फिर सुप्रीम कोर्ट दिल्ली की हवा के ज़हर होने पर चिंतित दिखा तो टॉवर शुरू कर दिए गये। वैसे यह सरकारी रिपोर्ट में दर्ज है कि इस तरह के टॉवर से समग्र रूप से कोई लाभ हुआ नहीं। महज कुछ वर्ग मीटर में थोड़ी-सी हवा साफ़ हुई। असल में स्मॉग टॉवर बड़े आकार का एयर प्यूरीफायर होता है।
सन‍् 2020 में एमडीपीआई (मल्टी डिसिप्लिनरी डिजिटल पब्लिशिंग इंस्टीट्यूट) के लिए किए गए शोध ‘कैन वी वैक्यूम अवर एयर पॉल्यूशन प्रॉब्लम यूजिंग स्माग टॉवर’ में सरथ गुट्टीकुंडा और पूजा जवाहर ने बता दिया था कि चूंकि वायु प्रदूषण की न तो कोई सीमा होती है और न ही दिशा, सो दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र- गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम और रोहतक के सात हजार वर्ग किलोमीटर इलाके में कुछ स्मॉग टावर बेअसर ही रहेंगे।
वैसे, दिल्ली में वायु प्रदूषण को कम करने के अन्य उपाय पर भी काम चल रहा है। जापान सरकार अपने एक विश्वविद्यालय के जरिये दिल्ली-एनसीआर में एक शोध-सर्वे करवा चुका है जिसमें उसने आकलन किया है कि आने वाले दस साल में सार्वजनिक परिवहन और निजी वाहनों में हाइड्रोजन और फ्यूल सेल-आधारित तकनीक के इस्तेमाल से उसे कितना व्यापार मिलेगा। हाइड्रोजन का ईंधन के रूप में प्रयोग करने पर बीते पांच साल के दौरान कई प्रयोग हुए हैं। बताया गया है कि इसमें शून्य कार्बन का उत्सर्जन होता है और केवल पानी निकलता है। इस तरह के वाहन महंगे होंगे ही। फिर टायर घिसने और बैटरी के धुएं से स्मॉग बनाने की संभावना तो बरकरार ही रहेगी।
शहरों में भीड़ कम हो, निजी वाहन कम हों, जाम न लगे, हरियाली बनी रहे– इसी से ज़हरीला धुआं कम होगा। मशीनें मानवीय भूल का निदान नहीं होती। हमें जरूरत है आत्म नियंत्रित ऐसी प्रक्रिया की, जिससे वायु को ज़हर बनाने वाले कारक ही जन्म न लें।

Advertisement
Advertisement