हादसे से देखो क्या-क्या पता चला
पहले जब कोई रेल दुर्घटना होती थी तो पता चलता था कि इंसान में कितनी इंसानियत है। दुर्घटना होने पर आसपास के गांव वाले राहत टीमों के पहंुचने से पहले ही घटनास्थल पर पहुंच जाते हैं और राहत कार्यों में जुट जाते हैं। वे घायलों को डिब्बों में से निकालते हैं, उनकी सेवा-सुश्रुषा में जुट जाते हैं और उन्हें अस्पताल पहंुचाते हैं। वे दुर्घटना में जीवित बचे यात्रियों को रोटी-पानी मुहैया कराते हैं। जीवित बचे यात्रियों में बहुत से ऐसे होते थे, जो अपने सहयात्रियों का जीवन बचाने में लग जाते थे। इंसानों की इस इंसानियत की न जाने कितनी कहानियां मीडिया में आया करती थीं। लेकिन बालासोर की यह रेल दुर्घटना हुई तो पता चला कि हमारे प्रधानमंत्री चिलचिलाती गर्मी की भी परवाह नहीं करते और फौरन मुसीबत के मारों के बीच पहुंच जाते हैं। मीडिया आम आदमी में बची इंसानियत की कहानियों की बजाय प्रधानमंत्री के परिश्रमी व्यक्तित्व को दिखाने में लग गया।
खैर, यह दुर्घटना हुई तो यह भी पता चला कि देश में एक रेल मंत्री भी है। वरना तो प्रधानमंत्री को नयी ट्रेनों को झंडी दिखाते हुए देखने के आदी हो चुके हम लोग मान बैठे थे कि कोई रेल मंत्री नहीं है इसलिए प्रधानमंत्री को यह काम करना पड़ रहा है।
यह दुर्घटना हुई तो यह भी पता चला कि हमारे रेल मंत्री तो बड़े ही योग्य और काबिल हैं। अभी तक का रिवाज दुर्घटना होने पर रेल मंत्री को नकारा और अयोग्य घोषित करने का और उससे इस्तीफा मांगने का ही रहा है। इस दुर्घटना से पहली बार यह हुआ है कि जोर-शोर से यह घोषित किया गया कि रेल मंत्री तो बड़े काबिल हैं और उनसे इस्तीफा मांगने वाले वास्तव में गलत हैं। उनकी योग्यता का डंका पीटने वालों ने बताया कि वे आईआईटी पढ़े हुए हैं, विदेश में पढ़े हुए हैं, प्रशासनिक सेवा में रहे हैं।
लेकिन रेल मंत्री को काबिल घोषित करने वाले तो उनके हार्डवर्क का भी डंका पीट रहे हैं कि वे बहत्तर घंटे दुर्घटनास्थल पर ही डटे रहे। उनके हार्डवर्क का डंका पीटने वालों को कम से कम इतना ख्याल रखना चाहिए था कि प्रधानमंत्री भी अट्ठारह घंटे ही काम करते हैं।