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पर्व-त्योहारों में भी समाहित वैज्ञानिक चिंतन

08:36 AM Aug 07, 2023 IST

डॉ. प्रेमलता मिश्र
प्राचीन भारतीय चिंतन, दर्शन और वैज्ञानिक निष्कर्षों का मूल तत्व जो युगों पहले यहां के जीवन का अंग बना था, उसका महत्व आज के विश्व में पूरी तरह स्वीकार्य ही नहीं, आवश्यक भी बन गया है। यदि अपरिग्रह की भावना और सदाचरण को स्वीकार किया जाता तो पर्यावरण प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, बीमारियों व भुखमरी जैसी वैश्विक समस्याएं विकराल रूप में मनुष्य के समक्ष उपस्थित ही नहीं हुई होतीं।

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तर्कसंगत उपयोग

यह सोच कितनी वैज्ञानिकता से परिपूर्ण थी कि प्रकृति के पास संसाधन सीमित हैं, मनुष्य को उनका उपयोग केवल आवश्यकता पूर्ति के लिए ही करना चाहिए, संग्रहण या दुरुपयोग के लिए नहीं? महात्मा गांधी ने भी कहा था कि प्रकृति इंसान की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लोभ को नहीं। इसमें निहित गंभीर और गहराई तक प्रविष्ट दर्शन-चिंतन केवल पांच कर्मेंद्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव के आधार पर संभव नहीं था। यह सर्व-उपलब्ध माध्यम रहा है।

मन-मस्तिष्क का मेल

आधुनिक विज्ञान ने नि:संदेह अनेक उपकरणों द्वारा इसकी सीमाएं बढ़ा दी हैं। लेकिन एक दूसरा माध्यम भी है- सहज बोध! यह केवल मस्तिष्क के उपयोग से भी संभव नहीं था। इसमें मन और मस्तिष्क दोनों का समन्वय आवश्यक था जिसे प्राचीन भारतीय चिंतन ने प्राप्त कर लिया था।

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विविधता और प्रतिरक्षा

पृथ्वी पर जितनी भी सभ्यताएं विकसित हुईं, उनके विकास की गति और प्रारंभ का समय सदा एक से नहीं रहे। अनेक विचार, खोजें और प्रकृति के रहस्योद‍्घाटन एक ही समय पर अनेक स्थानों पर और व्यक्तियों द्वारा भी किए गए। अनेक सभ्यताएं समय के साथ आए झंझावातों के कारण समाप्त हो गईं, कुछ इनका प्रतिकार कर सकने में सक्षम रहीं और अपनी निरंतरता-प्रगति को सुरक्षित रख सकीं।
समावेशी दृष्टि
भारतीय संस्कृति में निहित वैचारिकता की श्रेष्ठता, वैज्ञानिकता का आधार और आध्यात्मिकता का समवाय ही इस सभ्यता को हर प्रकार के झंझावातों में भी सुरक्षित रख पाया। इसकी समावेशी प्रकृति ही इसका संबल रही। इसे ही गांधी जी ने कहा था कि ‘मैं अपने घर के दरवाजे और खिड़कियां खुले रखूंगा, ताकि ताजी हवा हर तरफ से आती रहे, लेकिन यह नहीं होने दूंगा कि आंधी में मेरा घर ही उजड़ जाए!’

ज्ञान-परंपरा से सरोकार

इस समय चर्चा पूरब और पश्चिम की सभ्यताओं को लेकर ही होती है। भारत की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में स्थिति कुछ इस प्रकार है कि यहां के लोगों को अपनी ज्ञान-परंपरा की सीमित जानकारी है। पश्चिमी सभ्यता को मुख्य रूप से विज्ञान के विकास और उसके वैश्विक प्रभाव के रूप में ही देखा जाता है। ऐसे में प्राचीन भारतीय चिंतन में विज्ञान और वैज्ञानिकता से भारतीयों का परिचय अपेक्षा के अनुरूप नहीं।

भौतिकवाद आधारित विज्ञान

भारतीय ज्ञानार्जन परंपरा को नष्ट करने के प्रयास लगभग सात सौ वर्षों तक होते रहे, इसलिए समय के साथ जो प्रगति होनी चाहिए वह नहीं हुई। जबकि यह सच नहीं है कि आधुनिक विज्ञान का प्रादुर्भाव पश्चिम से ही हुआ। असल में पश्चिम के विज्ञान ने इंसान को भौतिक सुख तो दिए लेकिन इसके लिए प्रकृति को कीमत चुकानी पड़ी, जबकि भारत के पारम्परिक ज्ञान में सहअस्तित्व, उन्नति और नैसर्गिक संरक्षण के तत्व प्राथमिकता से थे। उदाहरण स्वरूप, एलोपेथी दवाई के साइड इफेक्ट होते ही हैं लेकिन आयुर्वेद की दवा के उस तरह के कोई ज्यादा प्रभाव नहीं होते।

ब्रह्मांड और तत्व चिंतन

सुखद है कि प्राचीन भारतीय चिंतन की वैज्ञानिकता को बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही विज्ञान के धुरंधरों ने भी स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया था। वर्ष 1913 में चिकित्सा विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले मनोवैज्ञानिक चार्ल्स रोबर्ट रिचेट (1850-1935) ने लिखा था कि मेटाफिजिक्स (तत्व मीमांसा) अभी तक आधिकारिक रूप से विज्ञान नहीं माना जा रहा है, लेकिन उसे मानना होगा। अनेक अवसरों पर यथार्थ हमारे पास केवल पांच इंद्रियों द्वारा ही नहीं पहुंचता, अन्य ढंग से भी पहुंचता है। सर जेम्स जीन (1877- 1946) ने अपने एक भाषण में कहा था कि विज्ञान तथ्यों, ऐंद्रिक अनुभवों से आगे उस दिशा में बढ़ रहा है जहां ब्रह्मांड मशीन के स्थान पर एक विचार दिखाई देगा!

विस्मयकारी खरी गणनाएं

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जिस दिशा में आधुनिक विज्ञान केवल पिछली शताब्दी में ही विचार कर सका, उसकी उपस्थिति भारत में न केवल चिंतन में थी, बल्कि वह विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में ऐतिहासिक योगदान भी कर रही थी। वैचारिकता को व्यावहारिकता में परिवर्तित कर उन्होंने गणित और विज्ञान की ठोस नींव रखी। ‘टाइम एंड स्पेस’ की समझ के आधार पर उन्होंने भौतिक संरचनाओं (ब्रह्मांड) को प्रस्तुत किया और गणनाएं कीं, जो आज के विज्ञान पर भी खरी उतरती है।

मनीषियों की वैज्ञानिकता

जब आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, भास्कराचार्य, कणाद, सुश्रुत, चरक, बागभट्ट जैसे मनीषियों के योगदान को समझा और सही ढंग से प्रस्तुत किया जाता है, तब भारत की ज्ञानार्जन परंपरा में वैज्ञानिकता की कमी को केवल एक हास्यास्पद निष्कर्ष ही माना जा सकेगा। भारतीय संस्कृति और उसमें निहित वैज्ञानिकता आज सारे विश्व में चर्चित हैं।

प्रायोगिक कसौटी

अभी भी विख्यात वैज्ञानिकों को आश्चर्य है कि हजारों साल पहले भारत में इतनी गहन ज्ञान परंपरा कैसे विकसित हो सकी, जो भारतीयों को एक ऐसी वैश्विक दृष्टि दे पाई और जिसमें ‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी’ जैसा सूक्ष्म दर्शन तथा ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ जैसी व्यावहारिकता विद्यमान थी। भारत के ऋषियों, तपस्वियों और आविष्कारकों ने अवलोकन और चिंतन से न केवल वैचारिक स्तर पर ज्ञान प्राप्त किया, वरन प्रयोगात्मक आधार पर प्राप्त परिणामों को ही मुख्य आधार माना।
आज भारत ने विज्ञान, तकनीकी और खासकर संचार तकनीकी में ऐसा स्थान प्राप्त कर लिया है जो विश्व के सजग व्यक्तियों को यह मानने के लिए प्रेरित कर सका है कि भारत सदा से व्यावहारिक, जनहितकारी, वैज्ञानिक और तार्किक सोच तथा शोध में निष्णात देश रहा है और इन वैज्ञानिक निष्कर्षों को पर्वों-त्योहारों के माध्यम से भारतीय लोक जीवन के व्यवहार में स्थापित कर दिया, जिन्हें पारिवारिक जीवन में उपयोग कर लोग लाभान्वित हो रहे हैं।

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