पारिस्थितिकीय संतुलन में सुरक्षित भविष्य
आज एशिया की जल मीनार के रूप में विख्यात हिमालयी पर्वत शृंखला का अस्तित्व खतरे में है। जबकि भारत, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान समेत इन आठ देशों की जलवायु, जैव-विविधता और पारिस्थितिकी के मामले में एशिया की इस जल मीनार पर निर्भरता जगजाहिर है। यह समूचा क्षेत्र आपदाओं और देशों के सत्ता व क्षेत्र पर प्रभुत्व बनाये रखने हेतु होने वाले संघर्षों का सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्र भी है। गौरतलब है कि हिन्दुकुश हिमालयी पर्वत शृंखला के नाम से विख्यात इस पर्वत शृंखला पर इन देशों की लगभग 24 करोड़ से भी अधिक आबादी की आजीविका का भविष्य निर्भर है। और तो और लगभग 19 करोड़ से ज्यादा आबादी को यह पर्वत शृंखला पानी और मिट्टी जैसी मूलभूत प्राकृतिक संपदा से संपृक्त करती है। लेकिन विडम्बना है कि इस सबके बावजूद इस क्षेत्र में खाद्य और पोषण सम्बंधी अपर्याप्तता एक गंभीर चुनौती बनी हुई है। असलियत यह है कि हिमालयी क्षेत्र की तकरीब 30 फीसदी आबादी खाद्य असुरक्षा और 50 फीसदी से अधिक महिलाएं और बच्चे कुपोषण की समस्या से जूझ रहे हैं। दरअसल यह पर्वत शृंखला इस समूचे क्षेत्र की नाड़ी है। यदि यही बिगड़ी रही तो इस क्षेत्र की खुशहाली की कल्पना ही बेमानी होगी।
देखा जाये तो तिब्बत के पठार तथा तकरीबन 3500 किलोमीटर में फैली यह पर्वत शृंखला ध्रुवों की तर्ज पर बर्फ का विशाल भंडार होने के कारण थर्ड पोल के नाम से जानी जाती है। यह मध्य एशिया का उच्च पहाड़ी इलाका है। इसमें 42 लाख वर्ग किलोमीटर हिन्दुकुश, कराकोरम का और हिमालयी इलाका शामिल है जो उक्त आठ देशों में फैला हुआ है। संयुक्त रूप से उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के बाद दुनिया का साफ पानी का यह सबसे बड़ा स्रोत है। यहीं से दुनिया की दस प्रमुख नदियों यथा सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावती, सलवान, मीकांग, यंगत्जे, यलो, अमदुरिया और तारिम का उद्गम हुआ है। यह सदियों से अपने कछार जो मुख्यतः मोटे तौर पर पठारी, तीखे तथा खड़े पहाड़ी व कम ढाल वाले मैदानी इलाकों में हैं, उक्त देशों के अलावा थाईलैंड, वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस तक फैले हुए हैं, के अंतर्गत रहने-बसने वाले तकरीब 24 फीसदी लोगों को जल बिजली परियोजनाओं के जरिये स्वच्छ पानी, पर्यावरण तथा आजीविका के अवसर मुहैया कराती रही हैं। खासियत यह कि इन नदियों के बेसिन में 200 करोड़ के करीब आबादी वास करती है। यह इलाका पारिस्थितिकी का दुनिया का सबसे बड़ा भंडार है। इसमें जैव-विविधता के चार बड़े हॉटस्पाट हैं। गौरतलब यह है कि इसकी पहचान दुनिया के सबसे बड़े पर्वत समूह, सबसे ऊंची चोटियां, सबसे जुदा लोक संस्कृति, भिन्न-भिन्न धार्मिक मान्यताओं, भाषाओं, रीति-रिवाजों, सबसे जुदा फ्लोरा-फौना और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इलाके के रूप में होती है। लेकिन बीते कुछेक बरसों से इतनी संपदाओं-विशिष्टताओं वाला यह इलाका जैव-विविधता, आजीविका, ऊर्जा, भोजन और पानी के संकट से जूझ रहा है। इस संकट में मानवीय हस्तक्षेप की अहम भूमिका है। इस इलाके की तबाही के कारणों में अहम है इस पर्वतीय इलाकों के जंगलों की बेतहाशा कटाई, पर्यटन में बढ़ोतरी और बाहरी लोगों द्वारा स्थानीय संसाधनों का बेदर्दी से इस्तेमाल। इसके चलते गरीबी बढ़ी, आम जीवन दूभर हुआ, पर्यावरण बुरी तरह प्रभावित हुआ और आजीविका के संकट के कारण लोग पलायन को विवश हुए। खाद्य असुरक्षा और बढ़ते कुपोषण के चलते अब यह संकट लगातार बढ़ता ही जा रहा है। इसका खुलासा नेपाल की राजधानी काठमांडू में चार दशक से सक्रिय ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन ने 2013 से 2017 के बीच विस्तृत अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट में किया है।
संगठन के सम्मेलन में इस बात पर सहमति व्यक्त की कि जलवायु परिवर्तन, विकास परियोजनाओं, जंगलों की बेतहाशा कटाई और कोविड महामारी से यह क्षेत्र बुरी तरह प्रभावित हुआ है, इसलिए यह बेहद जरूरी है कि जंगलों की कटाई और विकास परियोजनाओं का क्रियान्वयन से पहले बहुत ही बारीकी से परीक्षण किया जाये। हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा के लिए सभी देश एकजुट हो सकते हैं यदि अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान की सरकारें अपने मंत्रियों और प्रतिनिधियों द्वारा अक्तूबर, 2020 में हुए शिखर सम्मेलन में किए गए वादों को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध हों। हालांकि इन देशों के पूर्व और वर्तमान तथा अफगान संकट के मौजूदा तनावों को देखते हुए ऐसा होना आसान नहीं लगता।
दरअसल, सम्मेलन में शामिल देशों ने स्वीकार किया कि हिंदुकुश के पहाड़ी क्षेत्र में जलवायु और आपदा रोधी समुदाय विकसित करने के लिए लोगों को प्रशिक्षित करने की और जलवायु परिवर्तन पर एक साथ कार्रवाई करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही एक समृद्ध, शांतिपूर्ण और गरीबी मुक्त हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र की परिकल्पना की गई है, जहां पर भोजन, ऊर्जा और पानी की कमी न हो और यहां के स्थानीय लोग आत्मनिर्भर हो सकें।
संगठन के उपमहानिदेशक एकलव्य शर्मा कहते हैं, ‘वर्तमान में हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन का एक हॉटस्पॉट है और इस क्षेत्र में रहने वाले लोग इससे बुरी तरह प्रभावित हैं। कई आपदाएं और संघर्ष इन देशों की सीमाओं पर होते रहते हैं। अगर सरकारें पर्यावरण संरक्षण, लचीला और समावेशी समाज बनाने की दिशा में एक साथ ठोस कार्रवाई करें तो हम जलवायु परिवर्तन और अन्य नकारात्मक प्रभावों को काफी हद तक रोक सकते हैं।’
दरअसल जरूरी है कि साल 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को 1.5 डिग्री के लक्ष्य तक बनाए रखने के लिए सभी स्तरों पर ठोस कार्रवाई हो। सतत विकास लक्ष्यों और पर्वतीय प्राथमिकताओं की प्राप्ति हेतु त्वरित कार्रवाई हो। पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति लचीलापन बढ़ाने, जैव-विविधता की हानि और भूमि क्षरण को कम करने के लिए ठोस उपाय किए जाएं और सभी देश संबंधित क्षेत्रीय डाटा और सूचनाओं को आपस में साझा करें ताकि उचित नीतियां बन सकें।