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मध्य एशिया में चीनी रेल से रूस नाखुश

06:28 AM Aug 31, 2023 IST

पुष्परंजन

चीन दुरभिसंधि करता है, दोस्त किसी को नहीं बनाता। जो उसे दोस्त समझने की भूल करते हैं, सन‍् 62 की स्थिति का सामना करते हैं। रूसी लीडरशिप उसी रास्ते पर है। संभव है उसे भी ज़ोर का झटका धीरे से लगे। अक्तूबर में चीनी प्रधानमंत्री ली छियांग किर्गिस्तान की यात्रा पर जा रहे हैं। मकसद है चीन-किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान रेल परियोजना पर चर्चा और उसे आगे बढ़ाना। दशकों से लंबित इस रेल परियोजना को अंजाम देने की बात से मास्को प्रसन्न नहीं है। उसकी वजह है सेंट्रल एशिया में चीनी प्रभामंडल का विस्तार होना।
चीन-किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान समरकंद में शंघाई कार्पोरेशन आर्गेनाइजेशन (एससीओ) की बैठक में सहमत हुए थे कि इस रेल परियोजना पर आगे बढ़ेंगे। इस साल भारत ‘एससीओ’ का अध्यक्ष देश था, मगर 4 जुलाई, 2023 को जब आभासी शिखर बैठक हुई, इस विषय को चर्चा से दूर रखा गया। जब समरकंद में इस रेल परियोजना पर त्रिपक्षीय सहमति हुई, कूटनीतिक क्षेत्रों में यह कहा गया कि इससे यूरेशियाई व्यापार को न सिर्फ़ नया आकार मिलेगा, बल्कि क्षेत्रीय-आर्थिक व भू-राजनीतिक प्रभाव भी पैदा होंगे।
मास्को को लंबे समय से चिंता थी कि यह परियोजना सेंट्रल एशिया में शक्ति के मौजूदा संतुलन को बिगाड़ सकती है। क्रेमलिन के रणनीतिकार मानते हैं कि बढ़ते चीनी निवेश के कारण यह क्षेत्र चीन पर अधिक निर्भर हो जाएगा। रूस के ट्रांस-साइबेरियन रेलवे ने चीन द्वारा प्रस्तावित रेल परियोजना को सीधी प्रतिस्पर्धा माना है। रूस को चीन-यूरोप रेलवे एक्सप्रेस से भी आर्थिक लाभ मिलता रहा है, जो यूरोप पहुंचने के लिए रूस से होकर गुजरती है।
हाल के वर्षों में किर्गिस्तान ने भी चीनी रेल परियोजना को पुनर्जीवित करने में बहुत दिलचस्पी दिखाई थी। वर्ष 2020 में, तत्कालीन किर्गिज राष्ट्रपति सूरोनबे जीनबेकोव ने देश के लिए रेल नेटवर्क के महत्व पर जोर दिया था, जिसमें चीन-किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान रेलवे रणनीतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण था। किर्गिस्तान ने थ्री प्लस वन के फार्मूले पर भी ज़ोर दिया था, जिसमें रूसी सहकार को जगह देने की जुगत थी। मगर, चीन ने धीरे से इस प्रस्ताव को एक तरफ़ कर दिया।
सन‍् 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद, जमीन से घिरे मध्य एशियाई देशों को एक रेलवे नेटवर्क विरासत में मिला जो मॉस्को के बरास्ते शेष विश्व को जोड़ता था। वर्ष 2022 में यूक्रेन पर रूसी आक्रमण से पहले, चीन, मध्य एशियाई देशों और यूरोपीय संघ के बीच व्यापार के लिए रूसी सड़कें व रेलवे प्रमुख धमनियों के रूप में कार्य करती थीं। वर्ष 1990 के दशक में प्रस्तावित यह परियोजना तकनीकी, वित्तपोषण और ट्रैक गेज की चौड़ाई पर असहमति की वजह से खटाई में पड़ गई।
किर्गिस्तान दरअसल यूक्रेन युद्ध के बाद से इस चीनी रेल प्रस्ताव के प्रति गंभीर हुआ। रूस पर प्रतिबंध के बाद सेंट्रल एशिया के कई देश कनेक्टिविटी को लेकर परेशान हो चुके हैं। प्रभावित पक्ष वैकल्पिक मार्गों की तलाश कर रहे हैं, जिनमें से एक चीन-किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान रेलवे है। इस समस्या के हवाले से किर्गिस्तान के राष्ट्रपति सादिर जापारोव ने 2022 में कहा था, हमारे देश को पानी की तरह इस रेलवे की भी ज़रूरत है। रूस ने भी इस परियोजना के मार्ग में बाधक बनना नहीं चाहा है।
छह अरब डॉलर की इस परियोजना में उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और चीन द्वारा वैकल्पिक मार्ग के रूप में अधिक रुचि दिखाने के बाद, रूस ने लंबे समय से चले आ रहे अपने रुख को बदल दिया है। बताते हैं कि किर्गिस्तान के राष्ट्रपति जापारोव ने सितंबर, 2022 में एससीओ सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बातचीत में उनकी सहमति ले ली थी। उसके बाद से तीनों मुल्कों के शासन प्रमुखों ने इस रेल परियोजना के मसौदे पर हस्ताक्षर किये थे। अब पुतिन की हामी को रूस के कुछ रणनीतिकार सही क़दम नहीं मानते हैं।
चीन ने हस्ताक्षर के साथ ही इस रेल मार्ग का अद्यतन सर्वे कराना शुरू किया, जो मई, 2023 में मुकम्मल हो चुका था। सर्वे के समय किर्गिस्तान ने एक ऐसे मार्ग पर जोर दिया था जो उत्तर की ओर अधिक आबादी वाले क्षेत्रों की सेवा करेगा। हालांकि आधिकारिक मार्ग का खुलासा नहीं किया गया है, किर्गिज नेशनल रेलवे के प्रस्ताव से पता चलता है कि किर्गिस्तान में रेलवे शिन्चियांग में चीन के काशगर रेल टर्मिनल और अंदीजान में उज्बेकिस्तान के रेल नेटवर्क से वाया टोरुगार्ट-अरपा-मकमल-जलालाबाद कॉरिडोर से जुड़ेगा। चीन ने रेल ट्रैक के आकार परिवर्तन की समस्या को भी सुलझा लिया है। उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान में 1.52 मीटर का चौड़ा रेलवे ट्रैक है, जबकि चीन 1.435 मीटर के संकीर्ण रेलवे ट्रैक का उपयोग करता है। इस समस्या के समाधान के लिए, किर्गिज-उज्बेक सीमा के पास एक अनलोडिंग स्टेशन पर ट्रेनों के पहिए बदले जाएंगे।
चीन की महत्वाकांक्षी ‘ओबीओआर’ के लिए ‘सेंट्रल-वेस्ट एशिया कॉरिडोर’ सर्वाधिक अहम होता चला गया है। कनेक्टिविटी के अलावा दूसरा महत्वपूर्ण कारण शिन्चियांग की उईगुर आबादी है। उरूम्छी शिन्चियांग की राजधानी है, जहां आबादी का घनत्व सबसे अधिक है। जो लोग शिन्चियांग से बाहर निकले, उन्होंने कज़ाकस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, तुर्की, सऊदी अरब, जार्डन, ऑस्ट्रेलिया, रूस, स्वीडन जैसे देशों में उईगुर डायसपोरा को मज़बूत किया। इन देशों से शिन्चियांग को स्वायत्त किये जाने की मांग निरंतर उठ रही है। समय के साथ-साथ चीन ने प्रतिरोध के स्वर को दबाने में कामयाबी पाई है। अब तुर्की भी उईगुर में अत्याचार से मुंह फेर चुका है।
चीन की पहले चिंता यह रही थी कि तालिबान सत्ता की बागडोर संभालते ही उईगुर अलगाववाद को ताक़त देना शुरू कर देगा। 1996 से 2001 तक सत्ता में रहते तालिबान ने उईगुर युवाओं के वास्ते अफग़ानिस्तान व उससे लगे पाक सरहदों में कैंप खोले, उन्हें जिहादी बनाया। इनके पंख इतने फैले कि अल कायदा और आइसिस के मोर्चे तक पर कुछ उईगुर लड़ाकों को लोगों ने लड़ते देखा। लेकिन आज की तारीख में चीन ने इस्लामिक अमीरात को ऐसा साधा है कि वो उईगुर अतिवाद को पनाह देने से कतराने लगे हैं। यह सब इस्लामिक अमीरात को पेइचिंग से अनुदान में मिल रहे पैसे का कमाल है।
शिन्चियांग में उईगुर 45 प्रतिशत और हान 40 प्रतिशत बताये जाते हैं। अब हान आबादी को लेकर विवाद की ख़बरें नहीं मिलतीं। तालिबान नेता जिस तरह लगातार पेइचिंग के संपर्क में रहे, चीन को भरोसा हो चुका है कि शिन्चियांग में छेड़छाड़ नहीं होगी, आयनक माइंस से तांबा अयस्क के खनन में भी कोई बाधा नहीं पहुंचेगी। किर्गिस्तान-उज्बेकिस्तान दोनों भूपरिवेष्ठित (लैंड लॉक्ड) देश हैं। इस रेल परियोजना से ये देश भी यूरोप से सीधा जुड़ेंगे, लेकिन उसके साथ मास्को पर उनकी निर्भरता कम होती जाएगी, क्रेमलिन के लिए दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है।
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लेखक ईयू-एशिया न्यूज़ के  नयी दिल्ली संपादक हैं।

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