प्लास्टिक कणों में छिपे पार्किंसन रोग के जोखिम
रोजमर्रा में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक बैग, बर्तन आदि वस्तुएं पर्यावरण के साथ ही हमारी सेहत को भी बिगाड़ रही हैं। दरअसल, प्लास्टिक कचरे में भारी वृद्धि के चलते प्रदूषण बढ़ रहा है। एक हालिया शोध के मुताबिक, प्लास्टिक के सूक्ष्म कणों यानी नैनोप्लास्टिक से पार्किंसन व डिमेंशिया जैसी मानसिक बीमारियों का जोखिम भी जुड़ा है।
अली खान
प्लास्टिक के सूक्ष्म कण यानी नैनोप्लास्टिक भी पार्किंसन रोग का खतरा बढ़ा सकते हैं। हाल में एक शोध में उक्त बेहद चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। दरअसल, मस्तिष्क में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले एक विशेष प्रोटीन के नैनोप्लास्टिक से संपर्क में आने पर ऐसा बदलाव संभव है, जो पार्किंसन रोग और डिमेंशिया का कारण हो सकते हैं। बता दें कि यह अध्ययन साइंस एडवांसेज नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन के निष्कर्ष बताते हैं कि पार्किंसन रोग के खतरे को कम करने के लिए प्लास्टिक प्रदूषण को कम करना बेहद जरूरी है। मौजूदा समय में पार्किंसन दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ता ब्रेन संबंधी विकार है।
खानपान के जरिये खून में घुसपैठ
सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू यह है कि प्लास्टिक के माइक्रो पार्टिकल हमारे खून में भी पाए जा रहे हैं। इसके पीछे की वजह प्लास्टिक का ठीक से निस्तारण नहीं किया जाना है। ऐसे में प्लास्टिक छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटकर पानी और खाने में मिल जाता है। शोध से पता चला है कि ज्यादातर वयस्क लोगों के खून में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पाए गए। विदित हो प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पर्यावरण में सांस संबंधी बीमारियों को भी बढ़ा रहे हैं। अमेरिका के बैरो न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया कि वायु प्रदूषण पार्किंसन और डिमेंशिया रोग का खतरा बढ़ा सकता है। अध्ययन के मुताबिक, वायु प्रदूषण के कारण पार्किंसन रोग का खतरा 56 फीसदी तक बढ़ सकता है। अध्ययन में पाया गया, वायु में मौजूद पीएम 2.5 या इससे छोटे आकार के कण सांस के माध्यम से दिमाग तक पहुंच जाते हैं और वहां सूजन पैदा कर देते हैं। इस सूजन के कारण पार्किंसन या डिमेंशिया रोग हो सकता है।
पार्किंसन यानी कंपन की बीमारी
इस बीच आम-आदमी के मस्तिष्क में इस सवाल का कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर पार्किंसन रोग किस प्रकार हमारे स्वास्थ्य के लिए बेहद जोखिमभरा है? दरअसल, पार्किंसन रोग एक न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है, जिसमें हाथ या पैर से दिमाग में पहुंचने वाली नसें काम करना बंद कर देती हैं। यह बीमारी जेनेटिक कारणों के साथ-साथ पर्यावरणीय विषमताओं के कारण भी होती है। यह बीमारी धीरे-धीरे विकसित होती है, इसलिए इसके लक्षण पहचानना मुश्किल हो जाता है। अनुमान है कि हर 10 में से एक दिमागी रोगी पार्किंसन रोग का शिकार होता है। अगर हम पार्किंसन रोग के कुछ सामान्य लक्षणों की बात करें तो हाथ या पैर में कंपन, चलने में कठिनाई, बात करने में कठिनाई और चेहरे पर भावों को व्यक्त करने में कठिनाइयां महसूस की जाती हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या
आज प्लास्टिक से होने वाला प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा नासूर बन चुका है। यह प्रदूषण समूचे पारिस्थितिकी तंत्र को बड़े स्तर पर प्रभावित कर रहा है। आज यह कहना पड़ रहा है कि हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक बैगों, बर्तनों और अन्य प्लास्टिक निर्मित वस्तुओं ने हमारे स्वच्छ पर्यावरण को बिगाड़ने का काम किया है। प्लास्टिक के बढ़ते इस्तेमाल की वजह से इसके कचरे में भारी मात्रा में वृद्धि हुई है। जिसके चलते प्लास्टिक प्रदूषण जैसी भीषण वैश्विक समस्या उत्पन्न हो गई है। दिनों-दिन प्लास्टिक वस्तुओं से उत्पन्न होने वाला कचरा कई प्रकार की परेशानियों का सबब बन रहा हैं।
पर्यावरण बचाना समय की मांग
उल्लेखनीय है कि प्लास्टिक एक ऐसा नॉन-बायोडिग्रेडेबल पदार्थ है जो जल और भूमि में विघटित नहीं होता है। यह वातावरण में कचरे के ढेर के रूप में निरंतर बढ़ता चला जाता है। इस कारण से यह भूमि, जल और वायु प्रदूषण का कारण बनता है। यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक ने हमारी जीवन शैली को पूरी तरह से बदलकर रख दिया है। प्लास्टिक ने हमारे जीवन पर जोखिम को बढ़ाने का कार्य किया है। इसे समझने की आवश्यकता है। लिहाजा, प्लास्टिक प्रदूषण से पर्यावरण को बचाया जाना समय की मांग है।
चेतना पैदा करने की जरूरत
आज आवश्यकता प्लास्टिक के खतरों के प्रति आम आदमी में जागरूकता और चेतना पैदा करने की है। इसके साथ ही साथ सरकारी प्रयासों को गति देने की भी आवश्यकता है। इसमें आम-आदमी की सहभागिता को सुनिश्चित किया जाना भी जरूरी है। इसके बिना प्लास्टिक प्रदूषण पर नियंत्रण संभव नहीं हो सकेगा। हमें जन-जागरूकता की दिशा में अभियानों को पुरजोर तरीके से चलाने की जरूरत है। सिंगल यूज प्लास्टिक को पूरी तरह से खत्म करने और प्लास्टिक का इस्तेमाल जहां तक संभव हो सभी को कम से कम करने की कोशिशें बढ़ानी होंगी। जिससे कि प्लास्टिक की मौजूदगी और खपत को कम किया जा सकेगा।