कविता की रील, नाश्ते में कील
राकेश सोहम्
एक खबर थी कि रेलयात्री को परोसे गए नाश्ते में कील निकली। उसने बवाल मचा दिया। किसी ने चुटकी ली, ‘लोग लोहा, रेत, गिट्टी, सीमेंट जैसी अखाद्य वस्तुएं खा जाते हैं फिर कील कौन-सी बड़ी चीज है?’ कीलें होती भी सस्ती हैं। तौल के भाव मिलती हैं। जोड़ की मजबूती कीलों से आती है। लकड़ी के घरों को बनाने में कील महत्वपूर्ण सामग्री होती है। दैनिक जीवन में कील की उपयोगिता बेमिसाल है। लोग दीवारों में ठोककर खूंटी की तरह इस्तेमाल करते हैं। चाहो तो कील पर आईना टांगो, कपड़े सुखाने के लिए तार बांध दो, मच्छरदानी के कोने अटका दो। भीतरी कोने में कील पर चाबियां टांग दो और घर के बाहर नाम पट्टिका। वह कील ही है जिस पर मध्य वर्गीय परिवारों के भगवान भी खुशी-खुशी टंगे रहते हैं। घरों में कील पर टंगी भगवान की तस्वीरें श्रद्धाभाव जगाती हैं।
सही जगह के निर्धारण से कील की महत्ता बढ़ जाती है। व्यवस्थाओं में ठुकी हुई कील आम जनता को नाचने पर मजबूर कर देती है। योजनाओं में कील ठोक दी जाए तो ठप पड़ जाती हैं। फाइलों में ठुकी कील बेहद मजबूत होती है। यह ईमानदारी के पुरुषार्थ से नहीं, रिश्वत के दान से निकलती है। दिल में चुभी कील जीवनपर्यंत दर्द देती है। प्रभु ने हमारे लिए ही कीलों का दर्द झेला।
कील असली हो या अहसासी, वह अपना स्वभाव नहीं बदलती। एक आभासी मित्र ने फेसबुक पर अपनी कविता देखने का निवेदन किया। मैंने खोजी। वहां कविता नहीं थी, वे थे। कविता का वाचन करते हुए। वाचन समाप्त हुआ और मैंने मोबाइल स्क्रीन ऊपर सरका दी। कविता रोल होकर रील में उलझ गई। एक युवक तेज रफ्तार से भागती ट्रेन के सामने लेट जाता है। ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुजर जाती है। पटरियों के बीच चुपचाप लेटा युवक शान से उठता है। दोनों हाथ, विजय की मुद्रा में लहराते हुए मोबाइल के कैमरे में देखता है! मैंने स्क्रीन पर फिर स्क्रॉल किया। पार्क में, रेलिंग को पकड़कर खड़ी अल्प-वसना युवती हवाओं से अठखेलियां कर रही है। अचानक कमर पर अटका ओछा वस्त्र हवा में ऊपर उठ जाता है। वह हाथों से बदन ढकने की कोशिश में मोबाइल के कैमरे की ओर देखकर मुस्कुराती है!
फेसबुक पर रील, कील-सा व्यवहार करती है। सरपट भागता मन उसमें अटक जाता है। अब वहां कविता दिखाई नहीं देती। अर्धवसनाएं दिखाई देती हैं! दुनिया की नजर में चढ़ जाने की अतृप्त वासनाएं दिखाई देती हैं! टूटती वर्जनाएं दिखाई देती हैं!