आंदोलन की तार्किकता
आंदोलन के समर्थन में तर्क है कि किसान यह समझने लगा है कि किसान आंदोलन वस्तुतः पूंजीपति वर्ग के खिलाफ है। इन कृषि कानूनों के लागू होने से कृषि कॉरपोरेट्स घरानों के लिए विशुद्ध मुनाफे की चीज बनकर रह जाएगी। अतीत मेें किसानों ने अपने नेताओं पर आंख मूंदकर विश्वास के साथ आंदोलन चलाया था। नेताओं ने सरकार से जो भी बातचीत की व निर्णय किया, किसानों ने उसको मान लिया। आज भी किसान अपने संयुक्त किसान मोर्चा पर पूरा भरोसा करके आंदोलन चला रहे हैं। आज किसानों की समझदारी ‘कानून वापिस नहीं तो घर वापसी नहीं’ के नारे के रूप में प्रदर्शित हो रही है। नि:संदेह, दिल्ली के बॉर्डर किसान आंदोलन के प्रतीक बन चुके हैं। आज जनप्रतिनिधियों के पास किसानों के सवालों का जवाब नहीं है। वे किसानों के साथ लुकाछिपी का खेल खेल रहे हैं। सिर्फ पुलिस-प्रशासन का सहारा ही उनके पास एकमात्र विकल्प है। आंदोलन से भयभीत सरकार, आंदोलन करने के जन्मसिद्ध अधिकार को छीनने के लिए अलोकतांत्रिक हथकंडे अपना रही है, वहीं किसान आंदोलन लोकतांत्रिक अधिकारों की बहाली के लिए भी साथ-साथ लड़ रहा है। किसान आंदोलन ने उन्हें भी संबल दिया है जो सरकार की जन-विरोधी नीतियों से बेहाल हैं। इतिहास गवाह है जनता जीतती है। और जनता केवल जीतती ही नहीं बल्कि एक नए इतिहास का निर्माण भी करती है।
राजेंद्र सिंह एडवोकेट, रेवाड़ी
पुनर्विचार की जरूरत
29 जून के दैनिक ट्रिब्यून में भरत झुनझुनवाला का ‘अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों के अंतर्विरोध व चीन’ लेख मानव अधिकारों को लेकर समय-समय पर चीन की आलोचना किए जाने का जवाब देने वाला था। अमेरिका तथा अन्य देश मानवाधिकारों के हनन के लिए चीन की आलोचना करते रहते हैं जबकि सत्य यह है कि जितने प्रतिशत लोग चीन में अपनी सरकार द्वारा किए गए कामों की प्रशंसा करते हैं, उससे बहुत कम अमेरिकी, सभी प्रकार की स्वतंत्रता दिए जाने के बावजूद अपनी सरकार की प्रशंसा नहीं करते। मानव अधिकारों को लेकर संयुक्त राष्ट्र को अपने मानकों पर पुनर्विचार करना चाहिए।
शामलाल कौशल, रोहतक