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पटाखों पर रोक की तार्किकता

02:09 PM Nov 15, 2021 IST
पटाखों पर रोक की तार्किकता
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तार्किकता मिले

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पटाखें उमंग, उल्लास के प्रतीक है। कोरोना के बाद आम व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हुई है, ऐसे में प्रदूषण उन्हें सांस की तकलीफ तथा अस्थमा, दमा ग्रस्त व्यक्तियों को इससे बहुत परेशानी होती है। अतः पटाखें जलाना हो तो ग्रीन पटाखें जलाना चाहिए, जिसमें प्रदूषण नियंत्रित करने के सरकारी मानकों का पालन किया जाता है। सिर्फ प्रदूषण के लिए पटाखों को जलाने से रोकना एक वर्ग की भावनाओं के साथ खिलवाड़ रहेगा, वैसे तो अनेक अनफिट वाहन भी सड़कों पर प्रदूषण फैला रहे हैं, उनके बारे में कोई नहीं सोचता।

भगवानदास छारिया, इंदौर, म.प्र.

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दायित्व बोध हो

देश में उत्सव व खुशी के मौकों पर पटाखे जलाने की परंपरा है, मगर दिवाली के आसपास सर्दी बढ़ने और हवा के कम प्रभाव के कारण घातक प्रदूषण के कण हमारे आसपास ही रह जाते हैं जो कि घातक सिद्ध होते हैं। आईक्यूआर की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की सबसे खराब वायु गुणवत्ता वाले देशों की सूची में भारत तीसरे नंबर पर था। पर्यावरण की बारीकियों को समझने वाले विद्वान कहते हैं कि पटाखों से बहुत कम समय में बहुत ज्यादा प्रदूषण फैलता है। क्षणिक सुख के लिए तमाम अपीलों, कोर्ट के आदेश व नियम-कानूनों को ताक पर रखकर देश के नागरिक पटाखे बजाते हैं जो कि तर्कसंगत नहीं है। नियमों को ताक पर रखकर पटाखे जलाना सामाजिक दायित्व बोध या धार्मिक अस्मिता का परिचायक नहीं हो सकता।

पूनम कश्यप, बहादुरगढ़

बदलाव स्वीकारें

दिवाली खुशियों का त्योहार है। हमें इसे पर्यावरण को ध्यान में रखकर मनाना चाहिए। जरूरी नहीं कि ज्यादा पटाखे फोड़ने से ही त्योहारों का आनंद बढ़ता है। पटाखों से प्रदूषण के अलावा भी अन्य बहुत से नुकसान है। पटाखों का पक्षियों, बुजुर्गों पर बहुत बुरा असर होता है। बड़े, बुजुर्गों को दमे जैसी भयंकर बीमारियों का सामना करना पड़ता है। सबसे ज्यादा पैसे की बर्बादी होती है। कुछ लोग जो इसे धार्मिक अस्मिता का प्रश्न बना रहे हैं जो सही नहीं है। परिस्थिति के अनुसार देश बदल रहा है और प्रगति कर रहा है। इसीलिए हर देशवासी को बदलते देश के साथ खुद में बदलाव जरूरी समझना चाहिए।

सतपाल सिंह, करनाल

सेहत पर भारी

त्योहार हमारी संस्कृति, परंपराओं का अहम हिस्सा है, लेकिन उत्सव के नाम पर पटाखें फोड़कर हम दूसरों के स्वास्थ्य की कीमत पर उत्सव नहीं मना सकते हैं। पिछले दो सालों में मानव जाति ने कोरोना महामारी जैसा बड़ा संकट झेला,अब भी झेल रही है। इसी बीच पर्यावरण प्रदूषण मानव के लिए चुनौती बना हुआ है। ऐसे में उत्सव-खुशी के मौकों को आपसी समन्वय, सौहार्द व भाईचारे की भावना से ओतप्रोत होकर पटाखों के स्थान पर मिठाई बांटकर मनाएं। हम सभी की खुशी एक-दूसरे की खुशियों में ही निहित है।

सुनील कुमार महला, पटियाला, पंजाब

सख्ती जरूरी

दिवाली पर जब पटाखे चलते हैं तो देश के बहुत से राज्य भारी प्रदूषण की चपेट में आ जाते हैं। लोगों का सांस लेना मुश्किल हो जाता है। दिवाली पर जलाए जाने वाले पटाखें वायु प्रदूषण ही नहीं फैलाते, बल्कि बहुत ज्यादा ध्वनि प्रदूषण भी करते हैं। इस कारण नयी बीमारियों का जन्म भी होता है। इसलिए दिवाली पटाखे न चलाकर ग्रीन दिवाली मनाई जाए। लेकिन यह भी जरूरी नहीं है कि प्रदूषण मात्र पटाखों से ही फैलता है, प्रदूषण फैलाने वाले दूसरे कारणों पर भी इतनी सख्ती सरकारों, न्यायलयों और प्रशासन को दिखानी चाहिए।

राजेश कुमार चौहान, जालंधर

अन्य कारण भी

देश में पूरे वर्ष किसी न किसी आयोजन एवं शादी समारोह आदि में पटाखों का इस्तेमाल किया जाता रहा है। निश्चय ही पटाखे चलाने से पर्यावरण प्रदूषित होता है। लेकिन वहीं हमारे किसान स्वयं पराली भी जलाते हैं उससे सारा वातावरण जहरीला हो जाता है। महानगरों में चलने वाले कल-कारखानों से निकलते विषैले धुएं को हम क्यों भूल जाते हैं। केवल दीपावली के पटाखों से प्रदूषण बढ़ता है यह कहना उचित नहीं है। अभी देश में ग्रीन पटाखे अधिक चलन में नहीं है। इनका उत्पादन भी अधिक मात्रा में नहीं हो रहा है। जब इसका उत्पादन अधिक होगा तब ही उसका महत्व भी देखा जा सकता है।

मनमोहन राजावत, शाजापुर, म.प्र.

भलाई हो मकसद

दिवाली दीयों का त्योहार है, न कि पटाखे फोड़कर प्रदूषण फैलाने का। ध्वनि प्रदूषण और वायु प्रदूषण न केवल मानव जीवन को अपितु पशु-पक्षियों और अन्य जीवों के जीवन को भी प्रभावित करते हैं। भगवान श्रीरामचन्द्र जी के जीवन का तो सार ही मर्यादा से पूर्ण था। जीवों के कल्याण के लिए, पिता के वचन की लाज के लिए वन-वन भटके, लेकिन कभी किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाई। हम कैसे कह सकते हैं कि इस ख़ुशी के दिन पटाखे फोड़कर अन्य लोगों के लिए संकट खड़ा करें। हां, जितने पैसे हम पटाखों में व्यय करते हैं, उतने धन से किसी जरूरतमंद को वस्त्र, पुस्तकें, भोजन आदि देकर श्रीराम के अयोध्या लौटने की खुशी को हम सार्थक कर सकते हैं।

अशोक कुमार वर्मा, करनाल

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