जातीय जनगणना का औचित्य
सुधार की उम्मीद नहीं
जाति आधारित जनसंख्या का विचार पुरातनपंथी लगता है। वहीं सरकार जाति आधारित आरक्षण को बढ़ावा दे रही है। पढ़ाई, दाखिला, नौकरी और फिर पदोन्नति में भी आरक्षण दिया जाना कहां तक उचित है। खुद केन्द्र सरकार पिछड़ा वर्ग का दायरा बढ़ाने का विधेयक पास करवाती है, नयी जातियों को इसमें जोड़ने का रास्ता साफ कर रही है। देश से जातिवाद और वर्गवाद को खत्म करना है तो सबसे पहले वोट बटोरने का मोह छोड़ना पड़ेगा। चाहे शिक्षा का कितना भी प्रचार-प्रसार हो जाए परन्तु पहचान और रोजगार जाति से मिलेगा तो बहुत ज्यादा सुधार की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।
जगदीश श्योराण, हिसार
स्वार्थपूर्ण राजनीति
जातीय जनगणना जातिविहीन समाज की परिकल्पना और सामाजिक सद्भाव के प्रयास को कमजोर करती है। फिर भी अगर जातीय जनगणना होती है तो इसका प्रयोजन सकारात्मक हो, जिससे सभी वर्गों का विकास हो। इसके साथ ही जरूरतमंदों को सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक मदद मिले। इस बात का ध्यान रहे कि जातीयता सोच की आशंकाएं फिर से न उभरने पाएं। आज पूरा समाज जातियों के कारण बंटा हुआ है तो सद्भावना के प्रयास विफल होेते नजर आ रहे हैं। राजनेता सिर्फ वोट की राजनीति कर रहे हैं।
रवि नागरा, नौशहरा, साढौरा
पीछे धकेलेगी
इस बार की जातिगत जनगणना राजनीति से प्रेरित लगती है। हालांकि, जातिगत जनगणना के बिना देश की आबादी का ठीक से अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अगर जातिगत जनगणना होती है तो वह एक ठोस आधार होगा, आरक्षण प्रतिशत तय करने के लिए। लेकिन जातिगत जनगणना के बाद ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’ के नारे के असर को संभाल पाना सरकार के लिए मुश्िकल होगा। आरक्षण का नया मुद्दा खड़ा हो जायेगा। जातिगत जनगणना से भेदभाव और विभाजन की खाई और चौड़ी होगी। यह हमें आगे नहीं, पीछे के पायदान की ओर धकेल देगी।
एससी राम राजभर, चंडीगढ़
सत्तालोलुपता का उपक्रम
सरकार तथा राजनेताओं की सत्तालोलुपता और दुर्बल मानसिकता के कारण स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद भी जातिवाद ने भारत से पलायन नहीं किया बल्कि समाज में जातीयता को ही बढ़ावा दे रहा है। अब यह पक्का हो गया है कि देश इससे कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। अतः 21वीं सदी में जनगणना, जाति ही नहीं अपितु उपजातियों एवं गोत्र के आधार पर की जानी चाहिए क्योंकि जो जाति आरक्षण का लाभ ले रही है, उसमें उन अल्पसंख्यकों को भी लाभ मिल सके जो हमेशा से उपेक्षित रहते हैं।
एमएल शर्मा, कुरुक्षेत्र
वोट बैंक का साधन
जातीय जनगणना की मांग और उसका औचित्य संदेहास्पद है। बाहर से देखने में तो यह जनगणना उचित लगती है परंतु विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी मौसम में इसका प्रयोग अपने राजनीतिक लाभ के लिए किया जाएगा। डॉ. अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान सामाजिक समरसता के लिए रखा था। कालांतर में आरक्षण एक मजबूत वोट बैंक बन गया। इस जनगणना में सभी जातियों की आर्थिक स्थिति का पूरा ब्योरा तैयार किया जाए ताकि हर जरूरतमंद वर्ग को सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके।
श्रीमती केरा सिंह, नरवाना
राजनीतिक संकीर्णता
सामाजिक समरसता कायम रखने के लिए आज़ादी के बाद अनुसूचित जातियों और जनजातियों को छोड़ कर किसी अन्य जाति की गणना नहीं हुई। आधुनिक शिक्षा, समाज और वैज्ञानिक प्रगति के साथ जात-पात के भेदभाव मिटने चाहिए थे, मगर ऐसा नहीं हुआ। नेता प्रगति का पहिया उलटा घुमाकर 18वीं सदी में जाना चाहते हैं ताकि समाज में फूट डालकर राज कर सकें। यह देश के लिए दुःखद है कि जनता से जुड़े मुद्दों यथा महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, विकास आदि के बजाय जाति, धर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर चुनाव लड़े जा रहे हैं।
बृजेश माथुर, गाज़ियाबाद
पुरस्कृत पत्र
समरसता के लिए घातक
जातिगत समीकरणों के आधार पर जनगणना संविधान की प्रस्तावना के विरुद्ध एवं समानता के मौलिक अधिकार से खिलवाड़ है। यह सामाजिक सरोकारों पर प्रहार करके वोट हथियाने का मूलमंत्र है। जातीयता की परिधि में रहने से सामाजिक रिश्तों में तो दरार आती ही है, साथ ही प्रजातांत्रिक मूल्यों पर भी कुठाराघात होता है। जब तक जातिगत निर्णय से ऊपर उठकर जनगणना का पारदर्शी आकलन नहीं होगा तब तक न तो सामाजिक समरसता उत्पन्न होगी और न ही जातिगत जहर फैलने से राष्ट्रीय अस्मिता बच पायेगी।
सतपाल मलिक, महावटी, पानीपत