अनवरत जारी है गोस्वामी तुलसीदास द्वारा शुरू की गई रामलीला
डॉ. अनिता राठौर
भारत में रामलीला का मंचन एक प्राचीन और समृद्ध परंपरा है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का प्रतीक है। इस परंपरा की सबसे पुरानी और प्रसिद्ध रामलीला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के ऐशबाग क्षेत्र में होती है। इसे गोस्वामी तुलसीदास जी ने 16वीं शताब्दी में प्रारंभ किया था। यह रामलीला 500 वर्षों से भी अधिक समय से मंचित हो रही है, और इसके पीछे एक गहन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक कहानी है।
तुलसीदास का योगदान
गोस्वामी तुलसीदास जी ने जब रामचरितमानस का लेखन समाप्त किया, तब उन्होंने इसे जन-जन तक पहुंचाने के लिए विभिन्न तरीकों पर विचार किया। 16वीं शताब्दी में एक चौमासा (बरसात के चार महीने) के दौरान, तुलसीदास लखनऊ के ऐशबाग क्षेत्र में प्रवास कर रहे थे। उन दिनों में, वे रोज़ाना अपनी रचना को लोगों को सुनाते थे। इस दौरान, उन्होंने यह विचार किया कि क्यों न रामकथा का मंचन किया जाए, जिससे लोग इसे और बेहतर तरीके से समझ सकें।
तुलसीदास जी ने अपनी सायंकालीन कथा के श्रोताओं से इस विचार को साझा किया। साधु-संतों के माध्यम से इसे संभव बनाने का विचार आया, क्योंकि साधु संत इस कथा से अच्छी तरह परिचित थे। इस तरह, 16वीं शताब्दी में पहली बार रामलीला का मंचन अयोध्या के खांटी साधु-संतों द्वारा शुरू किया गया। लोगों ने इसे बेहद पसंद किया और इसके प्रति उत्साह दिखाया।
गंगा-जमुनी तहजीब
लखनऊ के ऐशबाग में रामलीला का मंचन उस समय की गंगा-जमुनी तहजीब का अद्भुत उदाहरण है। इस क्षेत्र में हिंदू और शिया मुसलमान एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते थे, और रामलीला में भाग लेते थे। अवध के तीसरे बादशाह, अली शाह, ने इस रामलीला के आयोजन के लिए शाही खजाने से मदद भेजी थी। यही नहीं, अवध के नवाब आसिफुद्दौला ने भी रामलीला को समर्थन दिया, उन्होंने लखनऊ में ईदगाह और रामलीला के लिए छह-छह एकड़ जमीन उपलब्ध कराई।
रामलीला कमेटी का गठन
हालांकि, 1857 में जब देश में स्वतंत्रता संग्राम की लहर उठी, तब ऐशबाग की रामलीला बंद हो गई। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक भी था। इस स्थिति ने लखनऊ की सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रभावित किया, और रामलीला का मंचन 1857 से 1859 तक पूरी तरह से बंद रहा। लेकिन 1860 में यह पुनः शुरू हुआ, और इसके लिए ऐशबाग रामलीला कमेटी का गठन किया गया। यह कमेटी आज भी रामलीला का आयोजन करती है।
आधुनिक तकनीकी परिवर्तन
वर्ष 1860 में पुनः शुरू होने के बाद, रामलीला ने एक नया स्वरूप ग्रहण किया। इसे अब आधुनिक तकनीकों से सज्जित किया गया। आज, ऐशबाग की रामलीला डिजिटल रूप से प्रसारित होती है, और इसमें देश के जाने-माने अभिनेता शामिल होते हैं। वे आमतौर पर कई महीनों पहले से ऑनलाइन रिहर्सल शुरू कर देते हैं। इस रामलीला के विशेष पहलू यह है कि कलाकार इसमें भाग लेने के लिए कोई पारिश्रमिक नहीं लेते।
तुलसी शोध संस्थान, जहां रामचरितमानस के 100 प्रसिद्ध संस्करणों का अध्ययन और शोध किया जाता है, में भी शोधार्थियों का आगमन होता है। पहले जहां रामलीला का मंचन खुले मैदान में होता था, वहीं अब इसे आधुनिक सुविधाओं से लैस सभागारों में किया जाता है।
सांस्कृतिक प्रभाव और पहचान
ऐशबाग की रामलीला केवल धार्मिक आयोजन नहीं है; यह सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी है। यहां लोग न केवल रामकथा का आनंद लेते हैं, बल्कि यह सामुदायिक एकता का प्रतीक बन चुका है। हर साल, इसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से और यहां तक कि विदेशों से भी लोग आते हैं। इसका उद्देश्य शिक्षा और सांस्कृतिक जागरूकता है।
अंतर्राष्ट्रीय पहचान
आज, ऐशबाग की रामलीला का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्व है। यह न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी आयोजित होती है। कई देशों में रामकथा का मंचन होता है, और कई जगहों पर इसका अलग-अलग दिन निर्धारित नहीं होता, बल्कि साल भर रामकथा का आयोजन होता है। फलत: जब भी रामकथा के इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं, सबसे पहला जिक्र लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला का ही होता है।
ऐशबाग की रामलीला ने न केवल भारत की सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रखा है, बल्कि यह भारतीय समाज के विविधता और एकता का प्रतीक भी है। यह रामकथा की मूल भावना को जीवित रखने के साथ-साथ आधुनिकता और तकनीकी विकास को भी आत्मसात कर चुकी है। यह न केवल एक धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि एक ऐसा मंच है, जहां लोग एक साथ मिलकर अपने सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों का सम्मान करते हैं।
इ.रि.सें.