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जनप्रतिनिधि संस्थाओं में कार्यशैली के प्रश्न

06:27 AM Aug 28, 2023 IST
जनप्रतिनिधि संस्थाओं में कार्यशैली के प्रश्न
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सत्तापक्ष की जिम्मेदारी

जनता द्वारा अदा किए गए विभिन्न करों के रुपयों का राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसी मद से जनप्रतिनिधि संस्थाओं की लोकतांत्रिक व्यवस्था भी चलती है। पक्ष-विपक्ष के सामंजस्य से देश चलाने की परिपाटी ही शासन को लोक कल्याणकारी बना सकती है। इसके विपरीत शोर-शराबे से सदनों की कार्यवाही स्थगित होना और बिना चर्चा के बिल पास करना लोकतंत्र के लिए कदापि अच्छा संदेश नहीं है। अत: संविधान के मुताबिक सत्तापक्ष सदन चलाने की जिम्मेदारी ले ताकि विपक्ष सजगता के साथ मुद्दों को उठा सके।
देवी दयाल दिसोदिया, फरीदाबाद

संयम से काम

संसद व विधानसभाओं के दोनों सदन जनता द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कर अदायगी के सहारे चलते हैं। वहीं मतदाता जनप्रतिनिधियों से नैतिक मर्यादित आचरण की अपेक्षा करते हैं। संसदीय कार्यवाही के दौरान विपक्ष द्वारा असंसदीय शब्दावली के प्रयोग के कारण स्पीकर को मजबूर होकर टोकना पड़ता है जिसके कारण संसदीय कार्यवाही बाधित होती है। सत्तारूढ़ सरकार द्वारा बिना बहस के कई विधेयक बिल व बजट जैसे महत्वपूर्ण फैसले बहुमत से पारित कर लिए जाते हैं। जनप्रतिनिधियों को सदन में अनुशासन तथा संयम से काम लेना चाहिए।
अनिल कौशिक, क्योड़क, कैथल

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अनुशासन जरूरी

संसद के दोनों सदन मतदाताओं के करों द्वारा चलते हैं। मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों से उम्मीद करते हैं कि उनका आचरण सदन में अनुकरणीय तथा मर्यादित होगा। परंतु कुछ प्रतिनिधि संसद में हो-हल्ला, तो कई बार नियमों का हवाला देकर विपक्षी दलों को बोलने नहीं दिया जाता। कई बार असंसदीय भाषा का प्रयोग करने के कारण सदन से निलंबित कर दिया जाता है। कई बार विपक्ष वाक-आउट कर जाता हैै। सामान्य बजट तथा कई महत्वपूर्ण बिल बिना बहस के पास हो जाते हैं। सभी को सदन में अनुशासन में रहकर काम करना चाहिए।
शामलाल कौशल, रोहतक

दायित्व का अहसास

संसद की कार्यवाही पर प्रति मिनट होने वाला खर्च 2.5 लाख रुपये बनता है। अवरोध व स्थगन के कारण नष्ट हुए समय की कीमत का अहसास सांसदों को कब और कैसे होगा। संसदीय कामकाज की समीक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय आयोग की सिफ़ारिश है कि लोकसभा में एक वर्ष में औसतन 120 और राज्यसभा में 100 बैठकें होनी चाहिए। मौजूदा समय में यह आंकड़ा अपेक्षित आंकड़े के 60 प्रतिशत तक भी नहीं बैठता। संसद की कार्यवाही पर मतदाताओं के खून-पसीने की कमाई से होने वाले खर्च को कब तक हल्के में लिया जाता रहेगा। यह ऐसा प्रश्न है जो जनमानस को उद्वेलित कर रहा है।
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल

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भरपाई का प्रावधान

राजनीतिक विद्रूपता देश एवं लोकतंत्र का दुर्भाग्य ही है। संविधान निर्माताओं ने यह नहीं सोचा कि भविष्य में कानून बनाने वालों के राजनीतिक चरित्र का इतना पराभव हो जाएगा। परन्तु आज इस यक्ष-प्रश्न का यही जवाब है कि जनता को मूकदर्शक बनने की बजाय राजनीतिक पार्टियों पर ऐसा कानून पास करने का दबाव बनाना चाहिए, जिसमें बिलों पर चर्चा न करने तथा सदन की कार्यवाही में बाधा डालने वाले सदस्यों एवं पार्टियों से सारे आर्थिक नुकसान की भरपाई करने का प्रावधान हो। इसके लिए चाहे संविधान में संशोधन भी क्यों न करना पड़े।
एमएल शर्मा, कुरुक्षेत्र

गंभीर चर्चा हो

सरकार के पास हर वर्ष इनकम टैक्स, जीएसटी और वाणिज्यिक कर से अरबों रुपये मिलते हैं। इस कर का सदुपयोग हो। चुनाव में जीते नुमाइंदे संसद के अधिवेशन में बिना चर्चा के विधेयक पास करते हैं। इतना समय और पैसा बर्बाद होता है और फिर बिना विचार चिंतन किए कोई नियम यदि बनता है तो इससे देश का ही नुकसान होता है। कभी-कभी ऐसे नियम या विधेयक तानाशाही रवैया के प्रतीक होते है। अतः सांसदों, विधायकों को चाहे पक्ष या विपक्ष पार्टी के हों, हर विधेयक पर गहन चर्चा कर कानून बनाना चाहिए जिससे देश का हित हो।
भगवानदास छारिया, इंदौर

पुरस्कृत पत्र

बहस का औचित्य

सत्तापक्ष का दायित्व है कि वे बेकार की बहसबाजी न करके विपक्ष की जायज बातों का सम्मान करे और मिल-जुलकर लोकतांत्रिक दायित्वों का निर्वहन करे। संसद में बेकार में समय नष्ट न करे। हाल ही में संसद में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच अनेक मामलों पर अनाप-शनाप बहस हुई। इनको लोकतांत्रिक परम्परा के अनुसार देखा जाना चाहिए। कुछ समय पहले मणिपुर की घटनाओं ने देशवासियों को विचलित किया। इस मामले में जमकर राजनीति के आरोप-प्रत्यारोप भी लगे। बेहतर होता कि पक्ष व विपक्ष मिलकर पीड़ितों के ज़ख्मों पर मरहम लगाते। जिससे समय का उचित प्रयोग किया जा सकता था।
जयभगवान भारद्वाज, नाहड़

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