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अपनों के संबल से खुशहाली

07:12 AM Sep 19, 2023 IST

मोनिका शर्मा
मैकिंज़ी हेल्थ इंस्टीट्यूट ने 21 देशों में 52 साल से ऊपर के 21000 लोगों का अध्ययन करने के बाद पाया कि विकसित और धनी देशों के मुकाबले हमारे यहां के बुजुर्ग ज्यादा सेहतमंद हैं। यह अध्ययन बताता है कि उम्र के इस पड़ाव पर हमारे यहां 57 प्रतिशत लोग शारीरिक, 66 फीसदी लोग मानसिक, 63 प्रतिशत लोग सामाजिक स्तर पर व 69 प्रतिशत लोग आध्यात्मिक रूप से खुद को स्वस्थ मानते हैं। वहीं अमेरिका में 40 से 52 फीसदी और पड़ोसी देश चीन में 40 से 51 प्रतिशत वरिष्ठजनों ने ही खुद को शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से स्वस्थ माना है। दरअसल बुजुर्गों की खुशहाली से बहुत मनोवैज्ञानिक पहलू भी जुड़े होते हैं। यही वजह है कि अनगिनत समस्याओं के बीच भी सामाजिक-पारिवारिक जुड़ाव के लिए भारतीय जीवनशैली में बुजुर्ग खुशहाल हैं। खासकर बच्चों यानी कि नई पीढ़ी से जुड़े रहना भारतीय बुजुर्गों की सक्रियता और सुख का अहम कारण है।

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पारिवारिक परिवेश का असर

भारत में आज भी बुजुर्ग पारिवारिक जीवन का अहम हिस्सा हैं। इस जुड़ाव और घर के स्नेहपूरित माहौल का न केवल बड़ों की शारीरिक सेहत पर असर पड़ता है बल्कि वे मानसिक रूप से भी सक्रिय रहते हैं। परम्पराओं के ज्ञान की सन्दूकची और सामाजिकता के सेतु कहे जाने वाले घर के बड़ों के बिना हर उत्सव अधूरा माना जाता है। यही वजह है कि दादा-दादी, नाना-नानी की भूमिका भारतीय परिवारों में आज भी कायम है। नाती-पोतों से तो बुजुर्गों का विशेष लगाव होता है। नई पीढ़ी का दुनिया में आना ही उनकी थकती जीवनचर्या को उल्लास से भर देता है। हमारे यहां छोटे बच्चों की संभाल से लेकर बड़े बच्चों को मार्गदर्शन देने तक, वरिष्ठजन एक सार्थक व्यस्तता को जीते हैं। घर की देखभाल में हाथ बंटाते हैं। सगे-संबंधियों से मेलजोल में आगे रहते हैं। अपनी जिम्मेदारियों से यूं जुड़े रहना मन-मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर सकारात्मक असर डालता है। दिसंबर 2022 फरवरी 2023 के बीच हुए मैकिंज़ी हेल्थ इंस्टीट्यूट के इस सर्वे के परिणाम भी कहते हैं कि पूरी दुनिया में काम में व्यस्त रहने वाले बुजुर्गों में से 44 फ़ीसदी की सेहत बेहतर होती है।

सामाजिक ढांचे का प्रभाव

हमारे यहां बड़ों को घर-परिवार का मुखिया माना जाता है। बच्चों से सवाल करने के हक से लेकर सलाह देने तक, आज भी यहां बुजुर्ग किसी विशेष औपचारिकता के बंधन में नहीं बंधे हैं। विकसित देशों के सामाजिक ढांचे में बहुत से कहे-अनकहे बंधन बुजुर्गों के जीवन की सहजता छीन लेते हैं। एक अनकही सी दूरी वहां के समाज में है। भारत में उम्रदराज़ लोगों की सामाजिक गतिविधियां तो और बढ़ जाती हैं। एक उम्र के बाद जिम्मेदारियों से मिली फुर्सत में पड़ोस या समुदाय में उनका मेलजोल ज्यादा होता है। देखने में आता है कि हमारे यहां 55 साल से ऊपर के लोग शारीरिक रूप से कहीं ज्यादा मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक सेहत को प्राथमिकता देते हैं। इस अध्ययन के अनुसार भी भारतीय समाज में 80 वर्ष से ऊपर की आयु के हर 100 में 56 प्रतिशत लोग सामाजिक रूप से सक्रिय मिले। अमेरिका के विकसित समाज में सामाजिक गतिविधियों में भागीदारी करने वाले बुजुर्गों का यह आंकड़ा 40 प्रतिशत और चीन में 49 प्रतिशत है। ब्रिटेन में मात्र 30 फीसदी बुजुर्ग ही सामाजिक कामों में हिस्सेदार बनते हैं। जबकि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि सामाजिकता का परिवेश मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों के स्वास्थ्य पर असर डालता है। उम्रदराज लोगों को अलग-थलग कर दिए जाने वाले विकसित देशों के सामाजिक परिवेश के मुक़ाबले भारत की सामाजिक स्थितियां वाकई सराहनीय हैं।

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आध्यात्मिक जीवन से जुड़ाव

मैकिंज़ी हेल्थ इंस्टीट्यूट के अध्ययन में हमारे देश में 80 वर्ष से ऊपर की आयु के हर 100 में से 60 लोग आध्यात्मिक रूप से सक्रिय मिले हैं। अमेरिका में 80 साल से ऊपर के 48 फ़ीसदी लोग ही आध्यात्मिक गतिविधियों में सक्रिय हैं। वहीं पड़ोसी चीन में बुजुर्गों की आध्यात्मिक सक्रियता और भी कम देखी गई है। चीन में 36 फ़ीसदी बुजुर्ग आध्यात्मिक रूप से सक्रिय हैं। वहीं ब्रिटेन में 27 प्रतिशत लोगों की ही आध्यात्म में रुचि है। असल में बुजुर्गों का आध्यात्मिक रूप से सक्रिय होना बीतती उम्र के मोड़ पर भी सकारात्मकता से जोड़े रखता है। परिग्रह की सोच से दूर समाज से लिए कुछ करने की सोच को बल देता है। ऐसी सभी बातें भीतरी शांति और उम्मीदों को पोषण देते हुए जीवन की गुणवत्ता बढ़ाती हैं। वैज्ञानिक अध्ययन भी इस बात को पुख्ता करते हैं कि स्पीरिचुअल होना चिंता और अवसाद जैसी समस्याओं को कम करता है। ऐसे में हमारे देश के बुजुर्गों का आध्यात्मिक जीवन से जुड़ा भी उनके जीवन को सहज और सुकूनदायी बनाता है।

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