दवाओं का उत्पादन कुटीर उद्योग जैसा न हो
इस माह के शुरू में, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने एक अधिसूचना के माध्यम से पंजीकृत चिकित्सा पेशेवर (आरएमपी) के लिए दिशा-निर्देश 2023 जारी किए थे। इसमें रोगी, जनता और अपने सहयोगियों के प्रति एक आरएमपी का कर्तव्य और उत्तरदायित्व बताए जाने के अलावा, अपने कौशल में बढ़ोतरी हेतु समय-समय पर व्यावसायिक कौशल विकास कार्यक्रमों में भाग लेने की सलाह थी, रोगियों को आकर्षित करने और इसके लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने की मनाही थी। निर्देशों में यह भी कहा गया था कि आरएमपी रोगी-पर्ची पर केवल जेनेरिक दवाओं के नाम ही लिखेंगे और इसका उल्लंघन करने पर दंडात्मक कार्रवाई होगी, जिसमें चिकित्सा लाइसेंस तक रद्द हो सकता है। हालांकि चिकित्सकों के अखिल भारतीय संघ (आईएमए) के विरोध के बाद ये निर्देश फिलहाल स्थगित किये जा चुके हैं।
सरकार के आर्थिक सर्वे के अनुसार, विश्व के कुल दवा उत्पादन में 20 फीसदी अंश के साथ भारत जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्माता है। करीब 200 से अधिक मुल्कों को 50 बिलियन डॉलर से अधिक मूल्य की दवाएं निर्यात होती हैं और सभी प्रकार के वैक्सीनों की 60 फीसदी भारत में तैयार होती हैं। अमेरिका से इतर भारत में एफडीए मानकों के अनुरूप दवाएं बनाने वाली दवा उत्पादन इकाइयां सबसे अधिक हैं। तभी तो भारत को ‘दुनिया का दवाखाना’ कहा जाता है।
भारत ने अपने बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 फीसदी खर्च का प्रावधान किया है। गैर-सरकारी इलाज के लिए लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है। किसी के कर्जाई होने के पीछे इलाज पर होने वाले व्यय एक बड़ा कारण है। इसलिए पूछना तार्किक है कि चिकित्सकों से केवल जेनेरिक दवाओं के नाम लिखने के फरमान से उपजी उनकी चिंता क्या जायज है?
नई खोज से या मिश्रणों से दवा बनाने वाली कंपनी के पास उसके मूल फार्मूले का पेटेंट अलग-अलग अवधि के सालों तक रहता है और बिक्री पेटेंटेड या फिर प्रोप्राइटरी दवा के तौर पर होती है। इस दौरान यह दवा महंगी होती हैं क्योंकि इसकी खोज-अनुसंधान पर आया खर्च, क्लिनिकल टेस्ट, बिक्री-उपरांत सर्वे इत्यादि पर हुआ व्यय निकालना होता है। पेटेंट अवधि के खत्म होने के बाद, उस दवा को अलग-अलग कंपनियां बना सकती हैं और इन्हें जेनेरिक दवाएं कहा जाता है, यह सस्ती इसलिए होती हैं क्योंकि मूल दवा बनाने पर आयी तमाम लागत बच जाती है। जेनेरिक दवाएं या तो ब्रांडेड हो सकती हैं या फिर अनब्रांडेड। रोगी-पर्ची पर किसी दवा का नाम लिखते समय आपस में जुड़े यह दोनों बिंदु मौजूद होते हैं। पहला, यह कौन तय करेगा कि किसी खास उत्पादक द्वारा बनाई दवा ही इस्तेमाल करनी है और दूसरा, रोग को ठीक करने में दवा की गुणवत्ता और प्रभावशीलता कितनी है।
चिकित्सकों का अखिल भारतीय संघ (आईएमए) ने जेनेरिक दवाओं के नाम लिखने को अनिवार्य बनाने वाली धारा का विरोध किया और मांग की कि सिर्फ जेनेरिक दवाएं लिखने के फरमान पर अमल करने से पहले दवा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने वाली अभेद व्यवस्था बनाई जाये। इस ओर ध्यान दिलाया गया कि वर्तमान व्यवस्था में सरकार किसी एक दवा के लिए विभिन्न दवा उत्पादकों को अनुमति देती है। नतीजतन, आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली कुछ दवाओं के सैकड़ों ब्रांड मिल जाते हैं। इनमें कुछ लघु इकाइयों में बनती हैं जिनकी गुणवत्ता संदिग्ध है। उदाहरणार्थ, पेंटो एक दवा बनाने वाली 250 से अधिक कंपनियां हैं तो 150 के ज्यादा उत्पादनकर्ता एमै उत्पादन बना रहे हैं। शायद और भी हों, क्योंकि काफी कंपनियों का नाम इंटरनेट सर्च सूची में दिखाई नहीं देता। कायदे से इनमें 0.1 फीसदी से भी कम दवाओं का गुणवत्ता परीक्षण देश में हुआ होगा। चिकित्सक संघ का कहना था कि यदि एनएमसी चाहती है कि केवल जेनेरिक दवाओं का ही इस्तेमाल हो, तब तो सरकार दवा बनाने वालों को बगैर ब्रांड नाम वाली दवा बनाने का लाइसेंस सीधे दे दिया करे।
वर्तमान में चिकित्सक अपने अनुभव से एक खास ब्रांड की दवा प्रभावशीलता पाने के बाद लिखते हैं। यदि केवल जेनेरिक दवाएं ही लिखेंगे तो यह कैमिस्ट पर निर्भर होगा कि वह अपने पास उपलब्ध जेनेरिक दवाओं में किसको बेचना चाहेगा। इस सूरत में जिम्मेवारी कैमिस्ट पर आ जाएगी, जो किसी दवा को विशुद्ध प्रभावशीलता के आधार पर नहीं बल्कि कतिपय कारणों से बेचना चाहेगा, मसलन, कितना मुनाफा बनेगा। एनएमसी की एक सिफाऱिश यह भी है कि दवाएं जन औषधि स्टोर से खरीदी जाएं, जिनके पास अक्सर बहुत किस्म की दवाएं नहीं मिलतीं। मुख्य दवा उत्पादन कंपनियां जेनेरिक दवाएं वैसे भी नहीं बनाती।
भारत में दवा की गुणवत्ता को लेकर चिकित्सक प्रश्न उठाते आए हैं। एक जेनेरिक दवा से उम्मीद होती है कि वह गुणवत्ता के पैमानों पर खरी उतरे, जैसे कि कैमिकल इक्वीवेंलेंट, फार्माकोकिनेटिक्स, बायोएवेलिबिल्टी, साल्यूबिल्टी चैक, सर्टलिटी, डिस्सोल्यूशन, प्योरिटी और नेचर ऑफ एक्पीएंट इत्यादि। कुछेक बड़े दवा निर्माताओं को छोड़कर, जेनेरिक दवाएं अधिकांशतः छोटी कंपनियां बनाती हैं। उनमें कुछ तो कमरे जितनी जगह में चल रही इकाइयों में बनती हैं। यानी कच्चे माल की गुणवत्ता से लेकर वास्तविक उत्पादन चरण तक क्वालिटी कंट्रोल और टेस्टिंग का सारा काम वहीं होता है और ऐसी इकाइयों में मानकीकरण कम ही होता है। बहुत-सी जगह, कैमिस्टों ने आमतौर पर लिखी वाली दवाएं बनाने को अपनी खुद की उत्पादन इकाइयां चला रखी हैं। विभिन्न उत्पादकों की दवा कीमतों के बीच काफी अंतर होना इस तथ्य का प्रतिपादन है कि उत्पादन प्रक्रिया एवं मानकीकरण में एकरूपता नहीं है।
इंडियन फार्माकोपोइया (आईपी) एंड हाउ इट इम्पैक्ट्स ड्रग क्वालिटी नामक अध्ययन में उदाहरण देकर बताया गया है कि दवा उत्पादन करते वक्त आईपी निर्दिष्ट नियमन का पालन करने में इंटरनेशनल कांउसिल फॉर हार्मोनिसेशन ऑफ रिक्वायरमेंट ऑफ फार्मास्युटिकल फॉर ह्यूमन यूज़ के दिशा-निर्देशों की अवहेलना अक्सर की जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसी संस्था के मानकों को दवाओं की वैश्विक कसौटी के तौर पर मान्यता देता है। जेनेरिक दवाओं के रासायनिक समतुल्यों के लिए आईपी के मानक भी अलग-अलग हैं। वर्ष 2017 तक, जेनेरिक दवा उत्पादकों को बायोइक्वीवेलेंट अध्ययन करने की जरूरत नहीं थी। इसलिए हो सकता है बाजार में एक समान कैमिकल मॉलिक्यूल वाली दवाएं एक जैसी न हों। जेनेरिक दवा और खोज करने के बाद बनी मूल दवा में अंतर को स्थापित करने के लिए हाल में हुआ अध्ययन प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल माइकोसेस में प्रकाशित हुआ है, इसमें इट्राकोनाज़ोल नामक एंटी-फंगल एजेंट और मूल इन्नोवेटर मॉलिक्यूल के बीच तुलना की गई है। पाया गया है कि मूल इन्नोवेटर दवा के बरअक्स जेनेरिक ब्रांडों के नतीजे में लो-ब्लड प्रेशर बनता है और इससे रोगी की हालत पर फर्क पड़ता है।
अन्य प्रासंगिक किंतु परेशान करने वाला तथ्य यह है कि भारत के कुल दवा से जुड़ी सामग्री आयात का 40 फीसदी हिस्सा चीन से आता है और इसमें भी 55-56 प्रतिशत अंश बल्क दवा का है। कोविड महामारी के दौरान, चीन पर इस अति-निर्भरता को लेकर बहुत चिंता जताई गई थी। सरकार ने इसलिए घरेलू उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए बल्क दवा परियोजनाओं के लिए उत्पादन नीत प्रोत्साहन योजना की घोषणा की है।
व्यावसायिक आचरण पर एनएमसी के दिशा-निर्देशों के बारे में यह अच्छी बात है कि इन्हें स्थगित कर पुनर्समीक्षा की तरफ बढ़ी, खासकर जेनेरिक दवाओं वाली शर्तों पर। ऐसे में सर्वप्रथम जरूरी है, विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखना, धरातल पर हकीकत को जानना, भारत में दवा उत्पादन का नियमन, श्रेष्ठ उत्पादन प्रक्रिया का पालन और अंतर्राष्ट्रीय नियमों पर चलना, और ख्याल रहे गुणवत्ता से समझौता न होने पाए। दवा उत्पादन एक गंभीर विषय है और इसे कुटीर उद्योग सरीखा बनने देना गवारा नहीं किया जा सकता।
लेखक इंडियन सोसायटी फॉर गैस्ट्रोएंट्रोलॉजी के पूर्व अध्यक्ष हैं।