जनतंत्र की सेहत हेतु हो सकारात्मक राजनीति
वर्ष 1952 में देश में पहला आम चुनाव हुआ था। इसके बाद चार-पांच चुनाव तो 5 साल के निर्धारित अंतराल पर हुए और चुनाव-प्रचार का काम भी इसी के अनुसार हुआ, पर इसके बाद सिलसिला बिगड़ने लगा। राज्यों में अलग-अलग समय पर चुनाव होने लगे, प्रचार-कार्य भी उसी के अनुसार हुआ, और अब तो स्थिति यह बन गयी है कि देश की समूची राजनीति चुनाव-केंद्रित ही नहीं हो गयी है, बल्कि राजनीतिक दलों के नेताओं के सारे भाषण चुनावी लगने लगे हैं। संसद के हाल के सत्र में प्रधानमंत्री का लगभग दो घंटे का भाषण और लगभग इतने ही समय का स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले की प्राचीर से दिया गया उनका राष्ट्र के नाम संदेश कुल मिलाकर चुनावी-भाषण ही बनकर रह गये थे।
संसद का भाषण विपक्ष द्वारा रखे गए अविश्वास प्रस्ताव के जवाब में दिया गया था। इस अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा अपनी सरकार का बचाव करना स्वाभाविक था। पर बचाव के साथ विपक्ष पर जो हमले किये गये, उन्होंने पूरे भाषण को चुनावी बना दिया था। यह अविश्वास प्रस्ताव मुख्यतः मणिपुर की त्रासदी के संदर्भ में रखा गया था और प्रधानमंत्री की इस मुद्दे पर चुप्पी तोड़ने के लिए विपक्ष को यही एक तरीका सूझा था। प्रधानमंत्री बोले तो सही पर लगभग दो घंटे के लंबे भाषण के अंत में ही कुछ मिनट मणिपुर के मुद्दे तक पहुंचने में उन्होंने इतना समय लगाया कि विपक्ष निराश होकर सदन से बाहर जा चुका था। बेहतर होता कि विपक्ष यह बहिर्गमन नहीं करता। बहरहाल, इसके कुछ ही दिन बाद स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण की शुरुआत मणिपुर की त्रासदी से करके प्रधानमंत्री ने जैसे कोई ग़लती सुधारने की कोशिश की थी। पर यह अवसर राष्ट्र के नाम संदेश देने का था। प्रधानमंत्री के लिए भी यह बेहतर होता यदि वे अपने इस भाषण को चुनावी-भाषण न बनने देते।
चुनाव जनतंत्र का उत्सव होते हैं। इस उत्सव की गरिमा बनी रहनी चाहिए। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों को एक-दूसरे की आलोचना करने का पूरा अधिकार है, और ज़रूरी भी है यह आलोचना, पर दुर्भाग्य की बात यह है कि पिछले एक अर्से से, कहना चाहिए, पिछले कुछ चुनाव से यह आलोचना कई बार मर्यादाएं लांघ जाती है। विरोधियों की रीति-नीति पर हमला करना कतई ग़लत नहीं है, और अपना बचाव करना भी उतना ही सही है, लेकिन विरोधी पूरा ग़लत है और मैं पूरा सही हूं, वाली यह रणनीति सहज गले नहीं उतरती। आत्मविश्वास और आत्मश्लाघा में एक अंतर हुआ करता है, बड़े नेताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इनके बीच की सीमा-रेखा का ध्यान रखेंगे।
बहरहाल, प्रधानमंत्री के इन दो भाषणों ने 2024 में होने वाले आम चुनाव की राजनीति-रूपरेखा देश के सामने रख दी है। विपक्ष ने इन भाषणों में ‘दंभ’ देखा है और राजनीतिक पर्यवेक्षकों ने इसे ‘अतिविश्वास’ कहा है। ये दोनों बातें देश की मौजूदा राजनीति के स्तर का संकेत देने वाली हैं। ऐसा नहीं है कि सत्तारूढ़ पक्ष ही इस घटते स्तर के लिए ज़िम्मेदार है, अक्सर विपक्ष भी मर्यादा का उल्लंघन कर जाता है, लेकिन सत्तारूढ़ दल का दायित्व अधिक होता है।
जनतांत्रिक परंपराओं और मर्यादाओं का तकाज़ा है कि राजनीति छिछली आलोचनाओं से ऊपर उठकर हो। एक वाक्य हमारे राजनेता अक्सर कहते हैं ‘मैं पूरी ईमानदारी और उत्तरदायित्व के साथ यह कहना चाहता हूं...’ और फिर इसके आगे जो कुछ कहा जाता है वह अक्सर खोखले वादों और झूठे दावों का उदाहरण होता है। चुनावी भाषण तो अक्सर ऐसे होते हैं, पर हर भाषण को चुनावी बना देना भी तो सही नहीं है। नेताओं को, खासतौर पर सत्तारूढ़ पक्ष के राजनेताओं को अधिक संयम बरतने की आवश्यकता होती है।
इसी साल मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। फिर उसके कुछ अर्सा बाद ही 2024 में आम-चुनाव होंगे। जैसा कि स्पष्ट दिख रहा है, इनके लिए प्रचार-कार्य शुरू हो चुका है। संबंधित सरकारें अपनी उपलब्धियों के ढिंढोरे पीट रही हैं। मीडिया में विज्ञापन पर अंधाधुंध खर्च हो रहा है। ‘रेवड़ियां’ बांटने में कोई पीछे नहीं रहना चाह रहा। दावों और वादों के ढेर लग रहे हैं। आधारहीन गारंटियां दी जा रही हैं। ज्यों-ज्यों चुनाव नज़दीक आते जायेंगे, इन कथित गारंटियों की गति भी तेज होती जायेगी। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी और तेज़ी से लगेंगे। इन सबसे क्या और कितना चुनावी लाभ होता है, यह तो आने वाला कल ही बतायेगा, पर इतना तय है कि प्रचार का स्तर पिछले चुनावों से और अधिक नीचे ही जायेगा।
जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास करने वालों को निश्चित रूप से यह सब पीड़ादायक ही लगता होगा। एक बात जो हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों को समझनी होगी, वह यह है कि मतदाता को हमेशा नहीं बरगलाया जा सकता। ‘यह पब्लिक है सब जानती है’। नारे और दावे अच्छे लगते हैं, पर यह कतई ज़रूरी नहीं है कि मतदाता इससे बहल ही जाये। इसी तरह सारी कमियों के लिए अपने विरोधी को ही दोषी ठहराना भी उचित रणनीति नहीं कही जा सकती। अब, जैसे भाजपा देश की सारी समस्याओं के लिए पिछली कांग्रेसी सरकारों को ही उत्तरदायी ठहराने में लगी है, इसी तरह, सारी उपलब्धियां वह अपने खाते में जमा करती है। एक चुटकुला-सा चल रहा है सोशल मीडिया पर कि देश का पहला प्रधानमंत्री देश के चौदहवें प्रधानमंत्री को काम नहीं करने दे रहा!
हमारी राजनीति को इस प्रवृत्ति से बचना ही होगा। आज देश जो कुछ कर पाया है, उसमें पहले से लेकर चौदहवें प्रधानमंत्री तक सबका योगदान है। सबके इस योगदान को स्वीकारना होगा। यह कैसे कोई समझ सकता है कि कल तक सब ग़लत ही हुआ था, और जो सही हो रहा है, वह आज ही हो रहा है? कल जो ग़लत हुआ उसे सही करना ही तो आज का काम है। कल जो नहीं हो पाया, उसे आज कर पाना ही तो आज की उपलब्धि है।
चुनावी माहौल में दावे और वादे किये जाते हैं। विरोधी की कमजोरियों को भी उजागर किया जाता है। पर जुमलेबाजी घटिया राजनीति का ही उदाहरण है और स्वस्थ जनतंत्र में स्तरहीन राजनीति के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। स्वस्थ जनतंत्र स्वस्थ राजनीति की मांग करता है। भ्रष्टाचार, परिवारवाद और तुष्टीकरण को हथियार बनाना भी गलत नहीं है, पर दूसरे पर उंगली उठाते समय हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि ऐसे में तीन उंगलियां हमारी अपनी ओर उठ रही हैं। सकारात्मक राजनीति जनतंत्र के स्वास्थ्य की महत्वपूर्ण शर्त है, इस शर्त की अवहेलना नहीं होनी चाहिए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।