वादों की थाली, मगर झोली खाली
उमेश चतुर्वेदी
हाल में चुनाव सुधार की दिशा में जितने भी कदम उठे हैं, उनमें विधायिका या कार्यपालिका की भूमिका कम या न के बराबर है। सबसे ज्यादा भूमिका या तो सर्वोच्च न्यायालय की रही है या फिर चुनाव आयोग की। तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों की रणभेरी बजने ही वाली है। इन चुनावों में वादों की बाढ़ आना स्वाभाविक है। साल 2015 में चुनाव आयोग ने अपनी चुनावी गाइड लाइन में कहा था कि राजनीतिक दल चुनावी मैदान में उतरते वक्त मतदाताओं से जो वादे करते हैं, तो उन्हें यह भी बताना होगा कि किस स्रोत से सत्ता में आने के बाद उसे पूरा करेंगे। अब चुनाव आयोग से यह उम्मीद की जा सकती है कि अपने इस दिशा-निर्देश को कठोरता से पालन करने में कम से कम इस बार से शुरुआत कर सकता है।
साल 1990 में जब टीएन शेषन देश के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाए गए तो उन्होंने तब तक के उपलब्ध चुनाव कानूनों की बुनियाद पर ही चुनाव सुधार की दिशा में तब तक असंभव समझे जाने वाले कदम उठाए। शेषन के कदमों के बाद पहली बार देश को अहसास हुआ कि चुनाव आयोग नामक कोई दमदार संस्था भी होती है, जो चाहे तो बंदूकों के दम पर बूथ लूटने वाले आपराधिक तत्वों पर लगाम लगा सकती है। तभी पता चला कि चुनावी प्रशासन कितना कठोर और अनुशासनबद्ध हो सकता है। वैसे भारतीय चुनावी परिदृश्य में शेषन के उभार के पहले भी चुनाव सुधार के लिए न्यायमूर्ति तारकुंडे समिति और दिनेश गोस्वामी जैसी उच्च समितियां गठित हुईं। इन समितियों ने अपनी रिपोर्टें भी दीं। लेकिन चुनाव सुधार की दिशा में प्रभावी पहल नहीं हो पाई।
शेषन के बाद अगर चुनाव सुधार में प्रभावी पहल दिखती भी है तो उसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की बड़ी भूमिका है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दिशा में सबसे अहम फैसला साल 2002 में दिया, जिसके तहत संसदीय और विधानमंडल के चुनावों के उम्मीदवारों के लिए अतीत के आपराधिक मामलों, देनदारी, कर्ज, संपत्ति आदि की जानकारी देना अनिवार्य कर दिया। इसी कड़ी में सर्वोच्च अदालत का सबसे अहम फैसला 13 फरवरी, 2020 को आया, जिसमें उसने संविधान के अनुच्छेद 129 और 142 की शक्तियों का उपयोग करते हुए राजनीतिक दलों से विधानसभा और लोकसभा उम्मीदवारों के पूरे आपराधिक इतिहास को प्रकाशित करने का आदेश दिया। इसके बाद चुनाव आयोग ने दिशा-निर्देश जारी किया। आयोग ने इसमें एक तथ्य और जोड़ दिया। सभी उम्मीदवारों और उनके परिवार की आर्थिक हैसियत को लेकर हलफनामा देना भी अनिवार्य कर दिया।
बहरहाल, 2020 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि उम्मीदवारों के चयन का आधार उसकी योग्यता और उपलब्धियां होनी चाहिए, उसकी जीतने की संभावना नहीं। लेकिन दुर्भाग्यवश राजनीतिक दलों के लिए अब भी चुनावी उम्मीदवार के लिए सबसे पहली योग्यता उम्मीदवार के जीतने की संभावना ही ज्यादा है, उसकी योग्यता और उपलब्धियां नहीं।
इन्हीं संदर्भों में चुनाव आयोग पर ही एक बार फिर प्रबुद्ध लोगों की निगाह है। जिस तरह वक्त और हैसियत से आगे निकलकर राजनीतिक दल जनता को सुविधाएं देने के लिए वादों का पिटारा खोल रहे हैं, उनके साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं।
मुफ्त देने के वादे के साथ पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार तो आ गई, लेकिन अब उसके बोर्डों और निगमों को पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा है। पंजाब राज्य परिवहन निगम का घाटा बढ़ता जा रहा है। राज्य बिजली बोर्ड को लेकर राज्य सरकार के दावे और हकीकत में अंतर है। यही हाल दिल्ली का भी है। दिल्ली परिवहन निगम करीब पैंतालीस हजार करोड़ के घाटे में है। यही हाल दिल्ली जल बोर्ड का है, जो सत्तर हजार करोड़ के घाटे में है। पंजाब में हर महिला को हजार रुपये देने का वादा अब तक पूरा नहीं हो पाया। इसी तरह पुरानी पेंशन योजना लागू करना भी कठिन हो गया है। जबकि पंजाब में ऐसा वादा सत्ताधारी दल ने चुनाव लड़ते वक्त किया था। हिमाचल में भी पुरानी पेंशन और महिलाओं को मासिक भत्ता देने का वादा करके कांग्रेस सत्ता में आई। लेकिन बढ़ते आर्थिक बोझ के चलते उसे भी इन वादों को लागू करना मुश्किल पड़ता जा रहा है। मई में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पांच गारंटियों का वादा करके जीत गई। लेकिन अब गारंटी पूरा करना उसके लिए कठिन होता जा रहा है। सामान्य विकास के लिए धन की कमी पड़ती जा रही है।
इस बीच राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी वादों की झड़ी लग रही है। राजस्थान में भविष्य में कांग्रेस की ओर से युवाओं को लैपटाप मिलना है तो मध्य प्रदेश में महिलाओं को हजार रुपये महीना मिलने लगा है। लेकिन यह भी सच है कि इसका दबाव दोनों ही राज्यों की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। राजस्थान में पुरानी पेंशन योजना का कांग्रेस ने वादा किया, लेकिन उसे लागू करना उसके लिए भी चुनौती बना हुआ है।
साफ है कि चुनावी फायदे और वोटरों के भारी समर्थन के लिए राजनीतिक दल वादों का पिटारा खोल रहे हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में अंतत: घाटा जनता को ही होता है। या तो उसके साथ किए वादे पूरा नहीं हो पाते या कुछ वर्गों के वादे पूरे भी हो जाते हैं तो बाकी वर्ग को कभी बसों की कमी से जूझना पड़ता है तो कभी टैक्स और महंगाई के भारी-भरकम बोझ से। अनाप-शनाप वादों को कई बार जनदबाव में पूरा भी किया जाता है तो उसका साइड इफेक्ट समूचे राज्य के आर्थिक तंत्र पर पड़ता है और आखिरकार उसकी कीमत समूचे राज्य और प्रकारांतर से देश के आम लोगों को ही चुकानी पड़ती है।
इसलिए जरूरी हो गया है कि चुनाव सुधार की दिशा में आगे बढ़ते रहे चुनाव आयोग को साल 2015 के अपने ही दिशा-निर्देश को कड़ाई से लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। वह राजनीतिक दलों से यह जानने की कोशिश करे कि जो वादे वे कर रहे हैं, आखिरकार वे किस स्रोत से पूरा करेंगे।