गालियों का दर्शन शास्त्र
आलोक पुराणिक
देशभक्ति की छौंक बघार से युक्त फिल्म बेलबाटम नहीं चली। उधर तरह-तरह की गालियों से सुसज्जित मिर्जापुर वेब सीरिज सुपरहिट रही। पब्लिक गालियां पसंद कर रही है और जो पब्लिक पसंद करे, वह मार्केट में आ जाता है। नागिनें डिमांड में क्यों हैं, क्योंकि पब्लिक पसंद कर रही है।
मां की, बहन की, हर तरह की गालियों से सुसज्जित सीरियल धुआंधार चल रहे हैं। अब मुझे चिंता है कि नयी गालियों की तलाश शुरू होगी। प्रोड्यूसर कहेंगे, अब पंजाबी गालियों पर अलग से, हरियाणवी गालियों पर अलग से, भोजपुरी गालियों पर अलग से, ब्रज भाषा की गालियों पर अलग से बनना चाहिए। और नयी गालियों की तलाश भी होती रहनी चाहिए। गालियां गढ़ी जानी चाहिए। पब्लिक गाली सुनने में इतनी रुचि क्य़ों दिखा रही है।
आम आदमी का जीवन ही दरअसल गाली है। सुबह से शाम तक तरह-तरह की लाइनों में लगकर गालियां खाता है। इतनी गालियां खाता है कि आदत में शुमार हो जाता है गाली खाना। माना कि आदतें बुरी होती हैं, पर बुरी आदत तो सिगरेट पीना भी है, लोग पीते हैं ना। कुछ समय बाद इस तरह की वार्निंग आया करेगी, सीरियलों से पहले कि सावधान! गालियां आत्मसम्मान के लिए घातक हैं, ना खाइये। पब्लिक को आदत पड़ जाये तो फिर छुड़ाना मुश्किल हो जाता है। सरकार रोक लगा दे वेब सीरिजों पर कि गालियां ना दी जायेंगी, तो पब्लिक फिर कोई और रास्ता निकाल लेगी। गाली सम्मेलन होंगे, दे गाली-दे गाली-दे गाली। बताया जाता है कि अब देश के कई शहरों में होली के मौके पर ऐसे सम्मेलन होते हैं, जिनमें दे दनादन गालियां दी जाती हैं। पर अब तो हर मौसम ही गाली का हो लिया है। मिर्जापुर सीरिज वन आयी, फिर सीरिज टू आयी। गालियां चल निकलीं, अखंड गाली सीरिज चल सकती है।
पर मूल सवाल वही है कि पब्लिक को गालियां सुनने में क्या मजा आता है।
एक बंदे ने बताया कि बड़ी अपने टाइप की फील आती है। ये जो बात है न बहुत सभ्य-सभ्य टाइप, बहुत साफिसिटिकेटेड टाइप फर्जी ही है। असल बात तो गाली है। आईआईटी, आईआईएम से पढ़े-लिखे दोस्त भी बरसों बाद मिलते हैं तो गाली युक्त बातें करते हैं। पुलिस तो खैर बात की शुरुआत ही गाली से करती है। बल्कि एक पुलिस अफसर ने बताया कि हम अगर बहुत सभ्यता से बात करें तो हमें फर्जी पुलिस माना जाता है और हमारी पिटाई तक हो जाती है। पुलिस वाला अगर गाली देता हुआ ना दिखे और अमिताभ बच्चन अगर कुछ बेचते हुए ना दिखें तो लोग इन्हें फर्जी मान सकते हैं। सो गालियां देनी पड़ती हैं, ना चाहें तो भी गालियां देनी पड़ती हैं। गालियों के मामले में बहुत संपन्न परंपरा है साहब। ब्रज इलाके में तो शादी में गालियां दी जाती हैं, गा-गाकर गालियां दी जाती हैं। गालियों का गायन होता है बाकायदा।
आइये नयी गालियों की सर्च करें, धंधे का सवाल है।