जन संसद
09:08 AM Feb 26, 2024 IST
फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य लेने के लिए किसानों द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन को लेकर सरकार कमजोर नीति अपना रही है। एक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था को अहिंसक तरीके से सरकार की नीतियों के खिलाफ धरने, प्रदर्शन करने का अधिकार है। किसान आज बाजारवाद की गिरफ्त में है। महंगाई की तुलना में कृषि उत्पादनों के मूल्य नाकाफी हैं। इस समस्या के निराकरण के लिए केंद्र सरकार को किसानों की जायज मांगों को मान लेना चाहिए। किसानों के विकास में गांवों का विकास और गांवों के विकास में राष्ट्र का विकास निहित है।
सुरेन्द्र सिंह ‘बागी’, महम
अगर किसान अपनी मांगें सत्ताधीशों के सामने शांतिपूर्ण ढंग से रखता है तो सरकारों का भी कर्तव्य बनता है कि वे उनकी जायज़ मांगों को पूरा करे। अगर सरकार किसानों के मसले पर ज़रा भी संवेदनशील होती तो अब तक इसके सुखद परिणाम सामने होते। किसानों को दोबारा संघर्ष का रास्ता अख्तियार नहीं करना पड़ता। आज आम नागरिकों को होने वाली असुविधाओं की जिम्मेदार भी सरकार है। वहीं किसान दिल्ली आकर कोई व्यवधान खड़ा न करे, सरकार द्वारा सड़कों को जाम करने वाले उपाय हैरान और परेशान करने वाले हैं।
मनजीत कौर ‘मीत’, गुरुग्राम हमें अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना चाहिए और अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना चाहिए। यह भी सत्य है कि संविधान में बताए गए कर्तव्यों के साथ-साथ राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों की पालना अत्यावश्यक है। आज के आंदोलन के कारण न केवल यातायात बाधित हुआ है अपितु इंटरनेट सुविधा भी प्रभावित हुई है। यदा-कदा जन आंदोलन विकृत रूप में उभरकर सामने आ रहे हैं। सरकार को भी चाहिए कि जनसुविधा का ध्यान रखकर ऐसे नियम बनाए जो सबके हित में हो। सड़क और रेल रोकना अथवा जनसुविधाएं बाधित करना कदापि स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
अशोक कुमार, कुरुक्षेत्र
आजकल जन आंदोलन करना, सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना, अपनी बातें मनवाने के तरीके हो गए हैं। वैसा ही तरीका किसान आंदोलन को लेकर शुरू हुआ है जो कि न्यायोचित नहीं है। एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी की मांग और स्वामीनाथन समिति को लागू करने को लेकर किसान आंदोलन कर रहे हैं। सरकार जायज मांगों पर सही सोच रखती है लेकिन कुछ राजनीतिक दलों के बहकावे में आकर किसान आंदोलन करते हैं। सरकार को बीच का रास्ता निकालना चाहिए। यही सरकार का प्रयास होना चाहिए।
भगवानदास छारिया, इंदौर यह समझना कठिन है कि जो किसान सबसे समृद्ध है, जो न्यूनतम समर्थन मूल्य का अधिक लाभ उठाता है, वे ही बार-बार आन्दोलन क्यों करते हैं। जब सरकार बातचीत के जरिए किसानों का समाधान निकालने को तैयार है तो फिर दिल्ली चलो अभियान पर जोर देने का क्या औचित्य? इसलिए उन्होंने जानबूझकर ऐसी मांगें रखीं, जिन्हें किसी भी सरकार के लिए मानना संभव नहीं। क्या कोई किसान संगठन या दल यह भरोसा दिलाने को तैयार हैं कि इस बार वह सब नहीं किया जाएगा, जो पहले किया गया था? केंद्र सरकार को भी जवाब देने होंगे जैसे तीन कृषि कानून वापस लेने के बाद कृषि संगठनों से किए वादे पूरा करने की दिशा में क्या गया।
रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत वास्तव में ऐसे आंदोलनों से आम नागरिक का दैनिक जीवन प्रभावित होता है। किसान की समस्याएं वर्षों से सरकार के सामने हैं और वे अपने आंदोलन की स्पष्ट घोषणाएं करके दिल्ली कूच कर रहे हैं। क्या किसानों की मांगों और समस्याओं का कोई समाधान सरकार के पास नहीं है। आज इस आंदोलन को रोकने के लिए सरकार द्वारा युद्ध-स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं। क्या इन प्रयासों के बदले किसानों की समस्याओं के समाधान को गम्भीरता से नहीं लिया जाना चाहिए था। काश! किसानों की समस्या को समय रहते सुलझाया गया होता तो आज यह स्थिति उत्पन्न न होती।
कविता सूद, ज़ीरकपुर, पंजाब
जायज मांगें मानें
सुरेन्द्र सिंह ‘बागी’, महम
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संवेदनशीलता जरूरी
मनजीत कौर ‘मीत’, गुरुग्राम
सरकार की जिम्मेदारी
अशोक कुमार, कुरुक्षेत्र
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दोनों पक्ष सहयोग करें
किसानों ने न तो पहले आंदोलन से आम लोगों को हुई परेशानी के लिए खेद प्रकट किया है और न ही मौजूदा आंदोलन से जनता को कोई कष्ट नहीं होने देने का कोई आश्वासन दिया है। समझ में नहीं आ रहा कि तीन साल पहले मान ली गई मांगों पर अब तक अमल क्यों नहीं हुआ। अब आग लगने पर कुआं खोदा जा रहा है। अभी भी देर नहीं हुई है, किसानों की मांग ससम्मान मान कर उन्हें उनके काम पर लौटाया जाना चाहिए। किसानों को भी बेशक अपनी बात मनवाने के लिए आंदोलन का रास्ता चुनने का पूरा हक है लेकिन संवेदनशीलता के साथ। नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को कष्ट पहुंचा कर समर्थन और सहानुभूति हासिल नहीं की जा सकती।
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल
बीच का रास्ता
भगवानदास छारिया, इंदौर
वादे पूरे करें
रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत
ढुलमुल नीति
कविता सूद, ज़ीरकपुर, पंजाब
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