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शांति प्रयासों से खुलती विकास की राहें

06:36 AM May 04, 2024 IST
मधुरेन्द्र सिन्हा

आजादी के दशकों बाद भी पूर्वोत्तर में उग्रवाद खत्म नहीं हुआ। कई हिंसक गुट खून-खराबे पर उतरते रहे और इस सुरम्य क्षेत्र की शांति को भंग करते रहे। सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठा पाईं और अशांति बनी रही। लेकिन इसके बाद केन्द्र सरकार की नीतियां बदलीं और कई सार्थक परिणाम देखने में आये। असम जैसे राज्य में, जहां घुसपैठियों के कारण हालत खराब रहे और लंबे समय से अशांति रही, वहां आशातीत सफलता मिली। केन्द्रीय गृह मंत्रालय की पहल पर जनवरी, 2020 को दिल्ली में दशकों पुरानी बोडो समस्या के समाधान के लिए त्रिपक्षीय समझौता किया गया। इसमें भारत सरकार, असम सरकार और बोडो आंदोलन से जुड़े उग्रवादी समूहों के प्रतिनिधि भी शामिल हुए। यह समझौता इतना कारगर रहा कि लगभग 1500 सशस्त्र आंदोलनकारियों ने हथियार डाल दिये। यह एक अभूतपूर्व समझौता था। जिसके चलते असम शांत हो गया है और वहां प्रगति होती दिखाई दी।
दिसंबर, 2023 में असम में उल्फा उग्रवादियों के साथ भी केन्द्र सरकार ने एक निर्णायक समझौता किया। जिसने भविष्य में शांति की गहरी उम्मीद जताई है। केंद्रीय गृहमंत्री ने इसमें व्यक्तिगत रुचि दिखाई और इस समझौते पर सरकार और उग्रवादी संगठन ने हस्ताक्षर किये। जिसके फलस्वरूप 700 से भी ज्यादा हथियारबंद युवाओं ने आत्मसमर्पण कर दिया। यह समझौता इस मायने में ऐतिहासिक है कि उल्फा उग्रवाद से राज्य को बहुत नुकसान हुआ, हत्याओं का दौर चला और बंदूकें गरजती रहीं। दोनों ओर से लोग मारे जाते रहे। लेकिन अब इस समझौते ने शांति का द्वार खोला है और असम की प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो रहा है। केन्द्र सरकार वहां घुसपैठिया समस्या से निपटने के लिए कई तरह के कदम उठा रही है और उसमें काफी सफलता भी मिली है। इन सबसे राज्य में शांति आई है और राज्य सरकार के लिए कामकाज करना आसान हो गया है। पिछले साल मार्च में केन्द्रीय गृहमंत्री ने घोषणा की थी कि अफस्पा को एक जिले से हटा दिया गया है और अब सशस्त्र बलों को उस इलाके में अब खुली छूट नहीं है। यानी कि वे भी किसी भी तरह की हिंसात्मक घटना के लिए जिम्मेदार होंगे। पहले उन पर मुकदमे वगैरह नहीं चलाए जा सकते थे।
असम में दो और समझौते हुए। एक था असम-मेघालय सीमा समझौता और दूसरा कार्बी-आंगलोंग समझौता। इन समझौतों ने राज्य में दीर्घकालीन शांति और समृद्धि के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया है। असम के मध्य में स्थित, कार्बी आंगलोंग राज्य का सबसे बड़ा ज़िला है और नृजातीय तथा आदिवासी समूहों- कार्बी, डिमासा, बोडो, कुकी, हमार, तिवा, गारो, मान (ताई बोलने वाले), रेंगमा नागा संस्कृतियों का मिलन बिंदु है। इसकी विविधता ने विभिन्न संगठनों को भी जन्म और उग्रवाद को बढ़ावा दिया। जिसने इस क्षेत्र को विकसित नहीं होने दिया। कार्बी असम का एक प्रमुख जातीय समूह है, जो कई गुटों और इनके भागों से घिरा हुआ है। कार्बी आंगलोंग ज़िले के विद्रोही समूह जैसे पीपुल्स डेमोक्रेटिक काउंसिल ऑफ कार्बी लोंगरी (पीडीसीके), कार्बी लोंगरी एनसी हिल्स लिबरेशन फ्रंट (केएलएनएलएफ) वगैरह एक अलग राज्य बनाने की मांग कर रहे थे। यह एक महत्वपूर्ण समझौता है जो हिंसा को समाप्त करने में मदद करेगा। यहां पर स्थानीय जनता को कुछ विधायी अधिकार देने का भी प्रस्ताव है।
केन्द्र सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पूर्वोत्तर से धीरे-धीरे सशस्त्र बल सुरक्षा कानून को हटाती जायेगी क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में यहां की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। नगालैंड, जो कभी उग्रवाद का केन्द्र था, अब बेहद शांत हो गया है। कानून-व्यवस्था की स्थिति में वहां काफी सुधार हुआ है। नागा युवा अब राष्ट्र की मुख्य धारा में प्रवेश करते जा रहे हैं।
पूर्वोत्तर के ज्यादातर बाशिंदे आदिवासी हैं और उनमें भी ज्यादातर लड़ाकू जातियों से हैं। वे दूसरों को अपने पर हावी होने देना नहीं चाहते और जरूरत पड़ने पर हिंसा करते हैं। नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, असम वगैरह राज्यों में ऐसा कई बार हुआ। यहां पर राज्य सरकार के अलावा केन्द्र सरकार की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उसे न केवल शांति बनाये रखना होता है बल्कि पीड़ितों के लिए समुचित व्यवस्था भी करनी होती है। ब्रू-रियांग समझौता इस दिशा में एक ऐतिहासिक समझौता रहा, जो त्रिपुरा में मिजोरम से भागकर आये हुए अल्पसंख्यक ब्रू आदिवासियों के हित में किया गया। दरअसल मिजोरम में उनके विरुद्ध हिंसा के कारण लगभग 5,000 परिवार भागकर उत्तरी त्रिपुरा चले गये थे। वहां वे बस गये लेकिन कई तरह की समस्याएं खड़ी हो गईं। इसके बाद वर्ष 2020 में केन्द्र सरकार, मिजोरम सरकार, ब्रू समुदाय के नेताओं और त्रिपुरा के बीच एक समझौता हुआ। जिसे ब्रू-रियांग समझौता कहा जाता है। इसे कार्यान्वित करने में केन्द्र सरकार की बड़ी भूमिका रही। केन्द्र ने इसके लिए 621 करोड़ रुपये खर्च करने का वादा किया ताकि वे आर्थिक रूप से मजबूत हो जायें। इस ऐतिहासिक समझौते से दो राज्यों में शांति का मार्ग प्रशस्त हुआ। त्रिपुरा में ही एक और समझैता हुआ। वह था नेशनल लिब्रेशन फ्रंट का। इस उग्रवादी संगठन से बातचीत करके केन्द्र सरकार और त्रिपुरा सरकार ने समझौते की शर्तों का प्रारूप तैयार किया। इससे त्रिपुरा में उग्रवाद पर अंकुश लगा। केन्द्र ने बहुत ही लचीलेपन से इस समझौते को अंजाम दिया। जिसके सार्थक परिणाम देखने में आए।
पहले की सरकारों ने समस्याओं के राजनीतिक समाधान कम और सैन्य समाधान पर ज्यादा जोर दिया। पिछले कई सालों से स्थितियां बदलती जा रही हैं। केन्द्र सरकार के प्रयासों से काफी शांति हुई है और ये राज्य प्रगति के रास्ते पर तेजी से चलने में समर्थ हो रहे हैं।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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