Pauranik Kathayen : श्रीकृष्ण के श्राप से आज भी धरती पर भटक रहा महाभारत का यह वीर योद्धा, क्रोध ने कर दिया था सबकुछ बर्बाद
चंडीगढ़, 25 जनवरी (ट्रिन्यू)
अश्वत्थामा महाभारत के सबसे आकर्षक पात्रों में से एक है। महान योद्धा-शिक्षक द्रोणाचार्य के पुत्र के रूप में उनका जीवन संघर्षों और अंत में एक दुखद नियति का मिश्रण था। ऐसा माना जाता है कि अश्वत्थामा अमर है और आज भी वह जंगलों में भटक रहे हैं। चलिए आपको बताते हैं कि अश्वत्थामा कौन है और वह भारतीय पौराणिक कथाओं में इतना दिलचस्प व्यक्ति क्यों बना हुआ है।
जादुई मणि के साथ पैदा हुए थे अश्वत्थामा
अश्वत्थामा पांडवों-कौरवों के गुरु द्रोणाचार्य और कृपी के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने भगवान शिव के कई वर्षों के ध्यान और प्रार्थना के बाद अश्वत्थामा को प्राप्त किया था। अश्वत्थामा कोई साधारण बच्चा नहीं था। वह अपने माथे पर एक मणि के साथ पैदा हुआ था, जो उसे भूख, प्यास, बीमारी और हथियारों से बचाया करती थी। हालांकि इसके बावजूद अश्वत्थामा का बचपन आसान नहीं था।
दुर्योधन से थी पक्की दोस्ती
उनका परिवार गरीब था। अपनी स्थिति से परेशान द्रोणाचार्य अपने पुराने मित्र राजा द्रुपद से मदद मांगने पहुंचे, लेकिन उन्होंने गुरु का अपमान किया। इसके बाद द्रोणाचार्य हस्तिनापुर के शाही बच्चों, पांडवों और कौरवों का शिक्षक बन गया। उसने अश्वत्थामा को युद्ध कौशल भी सिखाया, जिससे वह बेहद कुशल योद्धा बना। इस बीच, बड़े होते हुए अश्वत्थामा ने कौरवों में सबसे बड़े दुर्योधन के साथ मजबूत रिश्ता बनाया। एक बार, दुर्योधन ने अश्वत्थामा को बढ़िया घोड़ा उपहार में दिया, जो उनकी वफादारी का प्रतीक भी था।
महाभारत युद्ध से पहले द्रोणाचार्य ने वर्षों पहले द्रुपद द्वारा किए गए अपमान का बदला लेने की कोशिश की। उन्होंने अपने छात्रों से गुरु दक्षिणा में द्रुपद को बंदी बनाने के लिए कहा, जिसमें पांडव सफल रहे। द्रोणाचार्य ने द्रुपद के राज्य को विभाजित कर दिया। इसके बाद अश्वत्थामा को इसके उत्तरी भाग का राजा बनाया गया।
महाभारत में अश्वत्थामा को मिला अमरता का श्राप
पुराणों अनुसार, अश्वत्थामा ने युद्ध में अहम भूमिका निभाई थी। 10वें दिन भीष्म के मारे जाने के बाद उनके पिता कौरव सेना के सेनापति बने। हालांकि द्रोण एक शानदार रणनीतिकार थे, लेकिन वे दुर्योधन से किए वादे के अनुसार युधिष्ठिर को नहीं पकड़ पाए। इससे दुर्योधन निराश हो गया और द्रोण व अश्वत्थामा दोनों के साथ उसके रिश्ते खराब हो गए। श्रीकृष्ण की मदद से पांडवों ने द्रोण को यह विश्वास दिलाया कि अश्वत्थामा मर चुका है। इससे दुखी होकर, द्रोण ने अपने हथियार त्याग दिए और धृष्टद्युम्न द्वारा मारे गए।
जब अश्वत्थामा ने चलाया नारायणास्त्र
जब अश्वत्थामा को पता चला कि उसके पिता को धोखे से मारा गया है तो वह क्रोध से भर गया। उसने अपने सबसे शक्तिशाली व दिव्य अस्त्रों में से एक नारायणास्त्र का प्रयोग किया, जो पूरे युद्ध को एक बार में ही समाप्त कर सकता था। मगर, श्रीकृष्ण ने चतुराई से पांडव सेना को लेटकर आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, ताकि नारायणास्त्र का प्रभाव बेअसर हो जाए।
फिर उसने एक और शक्तिशाली अस्त्र अग्नियास्त्र का भी इस्तेमाल किया, लेकिन अर्जुन के वरुणास्त्र ने इसका जवाब दिया। दुर्योधन की मृत्यु के बाद, अश्वत्थामा ने बदला लेने की कसम खाई। उसने कृपा और कृतवर्मा के साथ मिलकर रात में पांडव शिविर पर हमला किया। अंध क्रोध में उसने धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के पांच पुत्रों को पांडव समझकर मार डाला।
श्रीकृष्ण ने दिया श्राप
पांडवों को इस बात का पता चला तो उन्होंने ब्रह्मशिरा अस्त्र का इस्तेमाल करने की कोशिश की, लेकिन ऋषि व्यास ने युद्ध रोक दिया। इसके बाद अश्वत्थामा को हथियार वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन उसके पापों की सजा के रूप में श्रीकृष्ण ने उसे श्राप दे दिया। उसकी मणि निकाल ली गई और उसे अनंत काल तक अपने कर्मों का दर्द सहते हुए पृथ्वी पर भटकने का श्राप दिया गया।
आज भी कई लोग मानते हैं कि अश्वत्थामा अभी भी जीवित हैं और श्रीकृष्ण के श्राप के कारण पृथ्वी पर भटक रहे हैं। उनकी यह कहानी इस बात की याद दिलाती है कि कैसे क्रोध और गलत विकल्प सबसे शक्तिशाली जीवन को भी बर्बाद कर सकते हैं।
डिस्केलमनर: यह लेख/खबर धार्मिक व सामाजिक मान्यता पर आधारित है। Dainiktribuneonline.com इस तरह की बात की पुष्टि नहीं करता है।