रिसते रिश्तों की टीस
दिल्ली हाईकोर्ट की उस टिप्पणी से सहमत हुआ जा सकता है, जिसमें दहेज उत्पीड़न और दुष्कर्म के झूठे आरोप लगाने को घोर क्रूरता की श्रेणी में रखा गया। अदालत का मानना था कि ऐसे झूठे आरोप लगाने वालों को माफ नहीं किया जा सकता। दरअसल, नौ साल से अलग रह रहे एक दंपति के मामले में पति द्वारा तलाक दिये जाने को अदालत ने तार्किक माना। अदालत का मानना था कि किसी भी वैवाहिक रिश्ते का आधार आत्मीय अहसास व दैहिक रिश्ते भी हैं। यदि किसी को साथ रहने से वंचित किया जाता है तो इस तरह के संबंधों का निर्वाह संभव नहीं हो सकता। यह विडंबना ही है कि हाल के वर्षों में वैवाहिक संबंधों में विच्छेद के तमाम मामले सामने आ रहे हैं। जिस समाज में विवाह के अलगाव के लिये कोई शब्द निर्धारित था ही नहीं, वहां तलाक के मामलों में अप्रत्याशित वृद्धि हमारी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए। भारतीय जीवनदर्शन में जहां वैवाहिक रिश्तों को जन्म-जन्मांतर का बंधन माना जाता था, उसमें रिश्तों का लगातार दरकना गंभीर चुनौती है। दरअसल, धीरे-धीरे हमारे समाज में आर्थिक समृद्धि की बयार आई तो रिश्तों में आत्मकेंद्रित होने का भाव मुखर हुआ। संयुक्त परिवारों की समृद्ध विरासत वाले भारतीय समाज में एकाकी परिवारों का चलन भी इस समस्या के मूल में है। जिसके चलते रिश्तों में सामंजस्य और सहभागिता का भाव तिरोहित होता चला गया। यही वजह है कि पहले घर के बड़े-बूढ़े जहां छोटी-छोटी बातों, वैचारिक मतभेद तथा किसी तरह की गलतफहमी को टाल देते थे, अब वे मामले घर की चहारदीवारी लांघकर पंचायत, परिवार अदालत व कोर्ट कचहरियों में दस्तक देने लगे हैं। अहम् के टकराव के चलते नौबत दहेज उत्पीड़न व दुष्कर्म के झूठे आरोपों तक जा पहुंचती है। विडंबना है कि जो कानून नारी अस्मिता व गरिमा की रक्षा व न्याय दिलाने के लिये बनाये गये थे, उनके दुरुपयोग की खबरें लगातार आती रही हैं। शीर्ष अदालत से लेकर देश की विभिन्न अदालतें इन कानूनों के दुरुपयोग पर लगातार चिंता जताती रही हैं।
निस्संदेह, समाज में स्त्री-पुरुष की आजादी और अधिकारों का सम्मान किया ही जाना चाहिए। लेकिन जब हम परिवार संस्था के रूप में संबंधों का निरूपण करते हैं तो सहयोग,सामंजस्य व त्याग अपरिहार्य शर्त है। एक मां बच्चे के लिये तमाम तरह के त्याग करती है। पिता खून-पसीने की कमाई से उसका संबल बनकर बच्चे के भविष्य को संवारते हैं। तो ऐसा संभव नहीं है कि विवाह के उपरांत उनके दायित्वों से बेटा विमुख हो जाए। कहीं न कहीं नई पीढ़ी में वह धैर्य तिरोहित हो चला है जो रिश्तों के सामंजस्य की अपरिहार्य शर्त हुआ करता था। निस्संदेह, वैवाहिक रिश्तों में हर व्यक्ति को उसका स्पेस, आत्मसम्मान, आर्थिक आजादी और बेहतर भविष्य के लिये पढ़ने-लिखने का अवसर मिलना चाहिए। लेकिन यह परिवार की कीमत पर नहीं हो सकता। हम अपने परिवार में रिश्तों की कई परतों में गुंथे होते हैं। एक व्यक्ति पुत्र,पिता,भाई और पति की भूमिका में होता है। उसे सभी संबंधों में अपनी भूमिका का निर्वहन करना होता है। जाहिर है एक लड़का और लड़की दो अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि और संस्कारों के बीच पले-बढ़े होते हैं। फिर एक परिवार में भी एक भाई व बहन के सोच-विचार और दृष्टिकोण भिन्न हो सकते हैं। भारतीय समाज में रिश्तों को सींचने की सनातन परंपरा सदियों से चली आ रही है। हम अपने माता-पिता के प्रति दायित्वों का निर्वाह करते हैं तो उससे संस्कार हासिल करके नई पीढ़ी उसका अनुकरण-अनुसरण करती है। यही सामाजिकता का तकाजा भी है। इन रिश्तों का निर्वाह एक-दूसरे के आत्मसम्मान और भावनाओं का सम्मान करते हुए ही संभव है। जैसे कहावत भी है कि पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती, उसी तरह हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से भिन्न हो सकता है। उसकी इस भिन्नता का सम्मान करना ही बेहतर रिश्तों की आधारभूमि है। निश्चित रूप से समय के साथ सोच, कार्य-संस्कृति, जीवन-शैली और हमारे खानपान-व्यवहार में बदलाव आया है। लेकिन मधुर व प्रेममय रिश्तों का गणित हर दौर में दो और दो चार ही रहेगा, वह पांच नहीं हो सकता। रिश्ते त्याग, समर्पण, विश्वास व एक-दूसरे का सम्मान करना मांगते हैं।