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राष्ट्र का आत्मविश्वास बढ़ाती है निज भाषा

06:46 AM Sep 14, 2023 IST

हिंदी दिवस

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प्रोफेसर सर्वदमन मिश्र

आधुनिक भारत के दो घोर परिवर्तनवादी गुजरात से थे। एक ने भारत की मुख्य धार्मिक परम्परा में आमूल परिष्करण का प्रयास किया और दूसरे ने औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध चल रहे एक मंथर-से राजनीतिक आंदोलन को सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय जनांदोलन में कायान्तरित किया।
इन दोनों में जहां स्वामी दयानन्द सरस्वती ‘स्वराज’ के विचार के प्रथम प्रयोक्ता हैं, वहीं महात्मा गांधी ‘स्वराज’ के विचार में नए अर्थ गुंफन करने वाले हैं। संयोग यहीं समाप्त नहीं होते, दोनों ही इस बात के भी बड़े पैरोकार थे कि जातीय चेतना का निर्माण स्वयं की भाषा के बिना नहीं हो सकता। दोनों ने ही हिंदी को अपने माध्यम के रूप में प्रधानतः चुना। अंतर बस इतना है कि दयानंद सरस्वती का बल एकरूपता पर था वहीं गांधीजी वैविध्य के पोषक थे। अतएव भारतीय भाषाओं के समान संवर्धन-संरक्षण पर उनका बल था। साल 1920 में भाषायी आधार पर प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों का गठन उन्हीं के हस्तक्षेप का परिणाम था।
भारत में दिए गए गांधीजी के प्रारम्भिक वक्तव्यों में सबसे उल्लेखनीय 1916 का वह भाषण है जो उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के अवसर पर दिया था। गांधीजी को अंग्रेजी में बोलने के लिए कहा गया और उन्होंने तत्क्षण विडंबना को भांप लिया। गांधीजी ने अपने वक्तव्य की शुरुआत में कहा- ‘इट इज ए मैटर आफ डीप ह्यूमिलेशन एंड शेम फॉर अस दैट आई एम कंपैल्ड दिस इवनिंग, अंडर द श्ौडो आॅफ दिस ग्रेट कॉलेज, इन द सेक्रेड सिटी, टु एड्रेस माई कंट्रीमैन इन द लैंगुएज दैट इज फॉरेन टु मी।’
ब्रिटिश भारत में पहली बार ऐसा हुआ था कि किसी ऐसे मंच से जहां शासन की भी सहभागिता हो, अंग्रेजी का विरोध किया गया हो। गवर्नर लॉर्ड हार्डिंग स्वयं उद्घाटनकर्ता के रूप में उपस्थित थे, ऐनी बेसेन्ट आयोजनकर्ताओं में से एक थीं। ऐनी बेसेन्ट ने गांधीजी को रोकने का प्रयास भी किया परन्तु गांधीजी ने अडिग और अविरल रूप से एक दीर्घ वक्तव्य दिया और राष्ट्र निर्माण के बहुतेरे पहलुओं को छूआ।
भारतीय नेताओं में राष्ट्र निर्माण की सबसे बेहतर समझ गांधीजी की थी। अन्य नेताओं की अपेक्षा वे पश्चिम से आक्रान्त और अभिभूत हुए बिना सच्चे स्वराज के संधान में जुटे थे। ‘राष्ट्रीय आंदोलन स्वत्व की पहचान और उससे तादात्म्य की प्रक्रिया है और राजनीतिक स्वतंत्रता उसमें अनुषंगी मात्र है’, गांधीजी ऐसा मानते थे। साल 1909 में हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा, ‘सच्चा स्वराज तभी संभव होगा जब हम अंग्रेजों की नकल छोड़कर अपना मौलिक नैसर्गिक मुहावरा गढ़ेंगे।’ इसीलिए राजनीतिक स्वराज की पूर्व शर्त के रूप में उन्होंने ‘स्व पर राज’ को देखा। सामाजिक-सांस्कृतिक परिष्करण और उसके उपरान्त बने आत्मविश्वासी एवं निर्भीक समाज के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता स्वयं सिद्ध हो सकती है, ऐसा वे निरन्तर याद दिलाते थे।
इन सबके बावजूद स्वतंत्रता के उपरान्त भारत की भवितव्यता (भाग्य) अन्य औपनिवेशिक समाजों से कुछ खास अलग नहीं बन पायी। पश्चिम के जिस सांस्कृतिक प्रभुत्व की गांधीजी को चिंता थी उसका सम्यक‍् निराकरण न हो सका। आत्महीनता-आत्मसंशय भारतीय मनोजगत का हिस्सा हो गया। हम पश्चिमी समाज के मुखापेक्षी हो गए और यह सबसे अधिक दृष्टिगोचर हुआ भाषा के क्षेत्र में। भारतीय समाज और विशेषकर हिंदी भाषी समाज में यह आत्मविश्वास कभी आया ही नहीं कि उनकी भाषा साहित्य के साथ शास्त्र की भाषा भी हो सकती है। फ्रांट्स फैनन उपनिवेशवादी समाजों की आत्महीनता और उससे उपजे आत्म-तिरस्कार की जो बात कहते हैं वह हिंदी के मामले में माकूल बैठती है। रघुवीर सहाय की प्रसिद्ध कविता ‘हमारी हिंदी दुहाजू की नयी बीवी है’ का केन्द्रीय कथ्य है कि अंग्रेजी के चले जाने के बाद उसकी जगह लेने आयी हिंदी रूप-रंग और गुण में एक समझौता भर है। एक उपेक्षिता के रूप में हिंदी का जो बिंब इस कविता में उभरा है वह यथार्थ की अभिव्यक्ति है।
देखा जाए तो 17वीं-18वीं शताब्दी में जब यूरोप के बौद्धिक समाज ने लैटिन को त्याग कर अंग्रेजी,फ्रेंच, जर्मन जैसी स्थानीय भाषाओं का वरण किया तो ये सब भी ‘दुहाजू की बीवियां’ ही थीं। पर अपने-अपने समाज से मिले यथोचित विश्वास ने उन सबका रूपान्तरण कर दिया। अगली तीन सदियां यूरोप की भाषाओं में प्रचुर साहित्य तथा ज्ञान उत्पादन की सदियां थी। इस दौर ने यूरोपीय भाषाओं को ही नहीं यूरोपिय समाज को भी एक उच्चतर मनोभूमि पर पहुंचा दिया। इसके उलट आजादी के उपरान्त हिंदी परिणीता होने के बाद भी प्राणप्रिया न बन सकी। हिंदी को लेकर तो हमारा विश्वास इस कदर डगमगाया कि यह हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक क्या, घरेलू जीवन में भी अंग्रेजी की अनुचरी बन कर रह गयी है। हिंदी भाषी क्षेत्र में मांएं अपने बच्चों से उस विचित्र भाषा में बात करती हैं, जिसमें मात्र क्रिया पद ही हिंदी के बचे हैं। कभी हिंदी में समाज विज्ञान और मानविकी की उत्कृष्ट पाठ्य पुस्तकें रचने वाला दिल्ली विश्वविद्यालय का एक प्रभाग अब मृतप्राय है। इस समय शुद्ध विज्ञानों तथा समाज विज्ञानों में अकादमिक विमर्श पर केन्द्रित ऐसा कोई जर्नल हिंदी में प्रकाशित नहीं हो रहा, जो उल्लेखनीय हो।
हिंदी का यह दारिद्रय एक भाषा की ही समस्या नहीं है, सामाजिक समस्या भी है। इससे वर्ग भेद विस्तार की आशंका बलवती हो रही है। ‘हिंदी की सीमा’, हिंदी से पढ़े-लिखे की सीमा बनती जा रही है और यह जीवन के कार्य-व्यापार में अंग्रेजी वाले से पिछड़ रहा है। एक भाषा का क्षरण, एक समुदाय का क्षरण भी है। भाषा के साथ समुदाय की संचित स्मृति, जातीय चेतना का भी विलोपन होता है। हिंदी को सबला करके ही हम अपने जातीय जीवन को बचा सकते हैं।

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