मासूमों की कब्रगाह बनते खुले बोरवेल
मध्य प्रदेश के सीहोर में 300 फुट गहरे बोरवेल में गिरी ढाई साल की बच्ची सृष्टि आखिरकार 55 घंटे की जद्दोजहद के बाद जिंदगी की जंग हार गई। 6 जून की दोपहर एक बजे वह खेलते समय खेत में बने बोरवेल में गिर गई थी। हालांकि बच्ची को बोरवेल से सुरक्षित बाहर निकालने के लिए सेना, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और स्थानीय प्रशासन की टीमें निरन्तर अभियान में जुटी थीं, लेकिन उसे बोरवेल से निकालने का काम तब और कठिन हो गया था, जब वह 20 फुट की गहराई से फिसलकर बोरवेल में करीब 100 फुट नीचे चली गई थी। उसके बाद उसे बचाने के लिए रोबोटिक एक्सपर्ट की टीम की मदद ली गई, जिसने 8 जून की शाम को बच्ची को बाहर निकाल तो लिया लेकिन उसकी जान नहीं बचाई जा सकी।
इस दर्दनाक हादसे से चंद दिन पहले 4 जून को गुजरात के जामनगर जिले में भी दो साल की एक बच्ची की 200 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर मौत हो गई थी। बोरवेल में 20 फुट की गहराई पर फंसी उस मासूम को भी 19 घंटे के बचाव अभियान के बाद भी बचाने में सफलता नहीं मिली थी। 20 मई को जयपुर के भोजपुरा गांव में भी 9 साल का एक बच्चा 200 फुट गहरे बोरवेल में गिरकर 70 फुट की गहराई पर फंस गया था, लेकिन उसे कुछ घंटों की मशक्कत के बाद बचा लिया गया था। इसी साल 15 मार्च को मध्य प्रदेश में विदिशा जिले के लटेरी गांव में 7 साल के लोकेश की भी बोरवेल में गिरने से मौत हो गई थी। बीते कुछ ही वर्षों में बोरवेल के ऐसे अनेक दर्दनाक हादसे सामने आ चुके हैं, जिनमें कई मासूम दर्दनाक मौत की नींद सो चुके हैं। विडम्बना है कि ऐसे हादसों को रोकने के लिए समाज में कहीं कोई जागरूकता नजर नहीं आती।
नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स यानी एनडीआरएफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले कुछ वर्षों में कई बच्चे बोरवेल में गिर चुके हैं लेकिन उन्हें बचाने में करीब 70 फीसदी रेस्क्यू ऑपरेशन नाकाम रहे हैं। निरन्तर होते ऐसे हादसों को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही है कि मासूम बच्चों की समाधि बनते इन बोरवेल हादसों के प्रति समाज से लेकर पूरा सिस्टम आखिर कब गंभीर होगा? एनडीआरएफ के मुताबिक बोरवेल उपयोग के मामले में भारत पूरी दुनिया में नंबर 1 पर है और बोरवेल से जुड़े अधिसंख्य हादसों में छोटे बच्चे ही शिकार बनते हैं, जिनमें से महज 30 प्रतिशत बच्चों के ही सुरक्षित बाहर निकाले जाने की संभावना होती है। बोरवेल में गिरने के करीब 92 प्रतिशत मामलों में 10 वर्ष से कम आयु के बच्चे ही होते हैं।
भूगर्भ जल विभाग के अनुमान के अनुसार देशभर में करीब 2.7 करोड़ बोरवेल हैं लेकिन सक्रिय बोरवेल की संख्या, अनुपयोगी बोरवेल की संख्या और उनके मालिक का राष्ट्रीय स्तर पर कोई डाटाबेस नहीं है। चिंता की बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणियों के बावजूद सिस्टम भी ऐसे हादसों को लेकर गंभीर नहीं है। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों, कानूनी संशोधनों और तमाम सख्ती के बावजूद ऐसे हादसे रुक नहीं रहे।
बोरवेल खुदाई को लेकर अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के भी कई निर्देश हैं और इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि नियमों का पालन कराने की जिम्मेदारी कलेक्टर की होगी, जो सुनिश्चित करेंगे कि केन्द्रीय या राज्य की एजेंसी द्वारा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी मार्गदर्शिका का सही तरीके से पालन हो। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाड़िया, जस्टिस राधाकृष्णन और जस्टिस स्वतंत्र कुमार की सुप्रीम कोर्ट की खण्डपीठ ने बच्चों को गंभीर बोरवेल हादसों से बचाने के लिए एक रिट पटीशन पर सुनवाई कर 6 अगस्त, 2010 को एक आदेश पारित किया था और उसी समय से यह फैसला देशभर में लागू है लेकिन इसका सही तरीके से पालन कराया जाना आज तक सुनिश्चित नहीं किया गया है।
विडम्बना है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त दिशा-निर्देशों के बावजूद कभी ऐसे प्रयास होते नहीं दिखे, जिससे ऐसे मामलों पर अंकुश लग सके। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के अनुसार बोरवेल की खुदाई से पहले कलेक्टर अथवा ग्राम पंचायत को लिखित सूचना देनी होगी। खुदाई करने वाली सरकारी, अर्द्धसरकारी संस्था या ठेकेदार का पंजीयन होना चाहिए। बोरवेल खुदवाने के कम से कम 15 दिन पहले डीएम, ग्राउंड वाटर डिपार्टमेंट, स्वास्थ्य विभाग और नगर निगम को सूचना देना अनिवार्य है। बोरवेल की खुदाई वाले स्थान पर साइन बोर्ड लगाया जाना चाहिए और खुदाई के दौरान आसपास कंटीले तारों की फेंसिंग की जानी चाहिए तथा फेंसिंग पाइप के चारों ओर सीमेंट अथवा कंक्रीट का 0.3 मीटर ऊंचा प्लेटफार्म बनाना चाहिए। बोरवेल के मुहाने पर स्टील की प्लेट वेल्ड की जाएगी या उसे नट-बोल्ट से अच्छी तरह कसना होगा। बोरवेल की खुदाई पूरी होने के बाद खोदे गए गड्ढे और पानी वाले मार्ग को समतल किया जाएगा। खुदाई अधूरी छोड़ने पर मिट्टी, रेत, बजरी, बोल्डर से बोरवेल को जमीन की सतह तक भरा जाना चाहिए। अदालत के इन दिशा-निर्देशों का पालन कहीं होता नहीं दिख रहा और न ही नियमों का पालन नहीं करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई होती दिखती है।
देश में प्रतिवर्ष औसतन 50 बच्चे बेकार पड़े खुले बोरवेलों में गिर जाते हैं, जिनमें से बहुत से बच्चे इन्हीं बोरवेलों में जिंदगी की अंतिम सांसें लेते हैं। ऐसे हादसे हर बार किसी परिवार को जीवनभर का असहनीय दुख देने के साथ-साथ समाज को भी बुरी तरह झकझोर जाते हैं। वहीं रेस्क्यू ऑपरेशनों पर अथाह धन, समय और श्रम भी नष्ट होता है। वैसे बोरवेल हादसों में बच्चों को बचाने में अक्सर सेना-एनडीआरएफ की बड़ी विफलताओं को लेकर भी सवाल उठने लगे हैं कि अंतरिक्ष तक में अपनी धाक जमाने में सफल हो रहे भारत के पास चीन तथा कुछ अन्य देशों जैसी वे स्वचालित तकनीकें क्यों नहीं हैं, जिनका इस्तेमाल कर ऐसे मामलों में बच्चों को अपेक्षाकृत काफी जल्दी बोरवेल से बाहर निकालने में मदद मिल सके। वहीं मासूम बचपन को बचाने के लिए समाज में जागरूकता लानी होगी ताकि भविष्य में ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति न हो।