एकदा
सन् 1912 की बात है जब रवींद्रनाथ टैगोर इंग्लैंड की यात्रा ‘गीतांजलि’ का अंग्रेजी अनुवाद अपने साथ ले गए थे। लंदन में एक ट्रेन यात्रा के दौरान वे अपना सूटकेस ट्रेन में ही भूल गए, जिसमें गीतांजलि की पांडुलिपि थी। यह पांडुलिपि उनके जीवनभर के कार्य का सार थी। इसे खोना उनके लिए बहुत बड़ा झटका था। उन्होंने तुरंत रेलवे अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन सूटकेस का कोई पता नहीं चला। निराश होकर टैगोर ने फिर से शुरुआत से पूरी पुस्तक लिखने का फैसला किया। उन्होंने अपनी स्मृति से कविताओं को याद करके उन्हें फिर से लिखना शुरू किया। यह एक अत्यंत कठिन कार्य था, लेकिन टैगोर ने हार नहीं मानी। कुछ दिनों बाद चमत्कार हुआ। उनका खोया हुआ सूटकेस मिल गया। लेकिन तब तक टैगोर ने पुस्तक का एक नया संस्करण तैयार कर लिया था, जो उनके अनुसार पहले से भी बेहतर था। यही गीतांजलि थी, जिसने टैगोर को 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिलाया। वे यह सम्मान पाने वाले पहले गैर-यूरोपीय व्यक्ति थे। प्रस्तुति : देवेन्द्रराज सुथार