एकदा
एक बार की बात है, पंडित देवदत्त शास्त्री काशी नरेश से मिलने गए। पंडित जी ने उनके सामने प्रस्ताव रखा, ‘मैं आपको गीता का भाष्य सुनाना चाहता हूं।’ नरेश ने कहा, ‘अभी नहीं। पहले आप सात बार और गीता पढ़ें। उसके बाद मैं आपका भाष्य सुनूंगा। शास्त्री जी को राजा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। फिर यह सोचकर कि पढ़ने में हर्ज ही क्या है। शास्त्री जी सात बार गीता पढ़ने के बाद फिर नरेश के पास गए। इस बार नरेश ने फिर वही बात दोहराई-सात बार गीता पढ़ें, फिर भाष्य सुनाना। क्रोध मिश्रित आश्चर्य के साथ शास्त्री जी घर पहुंचे। ‘राजा भी धर्म परायण विद्वान हैं, हो सकता है उनके बार-बार गीता पढ़वाने के पीछे कुछ रहस्य हो’ यह सोचकर पंडित जी प्रतिदिन एक बार फिर गीता पाठ करने लगे। तीसरे दिन सहसा पाठ के बीच में ही गीता के तत्वज्ञान का बोध हुआ। चित्त में असीम आनंद छा गया। स्वयं से ही कहने लगे, ‘भला गीता भी कोई व्याख्या की वस्तु है। यह तो समझने और जीने की प्रक्रिया है। ऐसे पवित्र ग्रंथ को राजदरबार में क्यों बेचना चाहिए।’ कई महीने बीत गए। शास्त्री जी ने राजदरबार का रुख नहीं किया। इधर राजा उन्हें खुद ढूंढ़ते हुए शास्त्री जी के पास आ पहुंचे। हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और कहा, ‘शास्त्री जी अब आप गीतामय हो गए हैं। मुझे गीता सुनाकर कृतार्थ करें।’ प्रस्तुति : डॉ. मधुसूदन शर्मा