एकदा
शिष्य कौत्स अपने गुरु महर्षि कण्व के आश्रम में रहकर शिक्षा प्राप्त कर रहा था। एक दिन गुरु और शिष्य दोनों ही जंगल में रात होने तक कार्य करते रहे। जब अधिक देर होने लगी तो गुरु ने कौत्स से कहा, ‘वत्स, तुम आश्रम लौट जाओ। मैं बाद में आता हूं। कौत्स ने आज्ञा शिरोधार्य की। जब कौत्स आश्रम की ओर जा रहा था तो रास्ते में उसने दर्द से कराहती एक सुंदर स्त्री को देखा। वह ठिठका, पर दूसरे ही क्षण आगे बढ़ गया। कौत्स के गुजरने के थोड़ी देर बाद महर्षि कण्व भी उसी मार्ग से आए। उन्होंने भी उस सुंदरी को वैसे ही कराहते देखा, तो उन्हें अपने शिष्य पर बेहद क्रोध आया। वे तत्काल उस सुंदरी को अपने आश्रम में ले आए और उसकी चिकित्सा व्यवस्था की। बाद में उन्होंने कौत्स को बुलाकर पूछा, ‘तुमने मार्ग में इस स्त्री को पीड़ा से कराहते देखकर भी उसे क्यों नहीं उठाया?’ कौत्स ने नतमस्तक होकर जवाब दिया, ‘गुरुदेव, मुझे लगा कि कहीं मैं इस स्त्री के सौंदर्य से विचलित न हो जाऊं।’ महर्षि कण्व बोले, ‘वत्स, इससे क्या तुममें सौंदर्य के प्रति विरक्ति हो जाएगी? छिपा हुआ भाव कभी भी प्रकट हो सकता है। वासना से विरक्ति का एकमात्र उपाय है वैसे ही वातावरण में रहकर आत्म नियंत्रण का अभ्यास करना।’ कौत्स को अपनी भूल का अहसास हुआ।
प्रस्तुति : अंजु अग्निहोत्री