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एकदा

08:42 AM Apr 20, 2024 IST
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एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य और जनक बैठे सत्संग कर रहे थे। जनक जी ने जिज्ञासा व्यक्त की, ‘महर्षि हम किसकी ज्योति से देखने की सामर्थ्य प्राप्त करते हैं?’ महर्षि याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, ‘सूर्य की ज्योति से।’ जनक जी ने पूछा, ‘जब सूर्य अस्त हो जाता है तो हमें प्रकाश कहां से प्राप्त होता है?’ उत्तर मिला, ‘चन्द्रमा से।’ उन्होंने फिर पूछा, ‘अमावस्या की घनी रात में यदि हम वन में भटक जाएं तो कौन प्रकाश का काम देता है?’ महर्षि ने कहा, ‘तब शब्दों द्वारा हमारा रास्ता प्रकाशमान होता है। दूर खड़ा दूसरा व्यक्ति कहता है भटको नहीं, मेरी आवाज़ को माध्यम बनाकर इधर आ जाओ।’ अब जनक जी का अंतिम प्रश्न था, ‘महर्षि यदि सूर्य, चन्द्रमा तथा शब्दों का भी अभाव हो, तो हमारा मार्ग प्रशस्त करने को कौन प्रकाश का रूप लेता है?’ महर्षि याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया, ‘आत्मा की ज्योति सर्वोपरि है। जनक जी, हमारी आत्मा सदैव सच्चा रास्ता दिखाने को तत्पर रहती है। आत्मा जैसी अनूठी ज्योति किसी और तत्व में नहीं है।’ जनक जी की जिज्ञासा का समाधान हो गया।

प्रस्तुति : डॉ. जयभगवान शर्मा

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