एकदा
ब्राह्मण कुल में जन्मे अंगिरस को लगा कि सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर तपस्या करने से ही जीवन सार्थक होगा। उन्होंने गुरु से आज्ञा ली तथा वन में घोर तपस्या के लिए एक दिन मां को सोता छोड़कर घर से निकल गए। मां की हालत दयनीय होने लगी। एक दिन दुःखी मां के मुंह से निकला, ‘अंगिरस, मुझ वृद्धा मां को इस हालत में भूखा-प्यासा छोड़कर जाने के कारण तेरी तपस्या कभी सफल नहीं होगी।’ अंगिरस तपस्या में बैठते, तो उन्हें किसी वृद्धा की दर्दभरी चीत्कार सुनाई देती। एक दिन अंगिरस ऋषि अगस्त्य के पास पहुंचे। उन्होंने कहा, ‘ऋषिवर, मैं जब भी तपस्या में बैठता हूं, तो किसी वृद्धा की चीत्कार मन को विचलित कर डालती है।’ ऋषि ने पूछा, ‘क्या तुमने अपनी मां से तपस्या की आज्ञा ली थी?’ ऋषि अगस्त्य ने कहा, ‘धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मां की सेवा ही सर्वोच्च धर्म है। तुमने वृद्धा मां की अवहेलना कर अधर्म किया है।’ अंगिरस ने अगस्त्यजी के आदेश पर घर लौटकर मां से क्षमा मांगी। उन्हें प्रसन्न करने के बाद ही अंगिरस ने तपस्या कर सिद्धि प्राप्त की।
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी