एकदा
सच्चाई का आईना
एक संत थे हातिम। उनका कहना था कि उन्हें सुनाई नहीं देता। इसलिए उनका नाम ही हो गया बहरा हातिम। एक दिन उनकी संगत में कुछ लोग बैठे थे। तभी एक मक्खी मकड़ी के जाले में जा फंसी, और छूटने के लिए भिनभिनाने लगी। हातिम के मुख से निकला, ‘ऐ लोभ की मारी, अब क्यों भिनभिना रही है? हर जगह शक्कर और शहद नहीं होता।’ सुनकर सब हक्के-बक्के रह गए। एक ने पूछ लिया, ‘आप तो सुन नहीं सकते, फिर मक्खी की भिनभिनाहट कैसे सुन ली?’ दूसरा बोला, ‘तो क्या आप बहरे नहीं हैं?’ पहले ने फिर कहा, ‘लोग तो आप को बहरा ही समझते हैं।’ हातिम बोला, ‘चिकनी-चुपड़ी बातें सुनने की बजाय बहरा होना कहीं बेहतर है। अगर मैं सुनता, तो मेरे संगी-साथी मेरी बुराइयों और कमजोरियों को छिपाते, और मेरी तारीफ़ों के पुल बांधते। मैं खुद को नेक इंसान समझने लगता। घमंड से भी भर जाता। मेरे साथी मुझे बहरा समझते हैं और मेरी बुराई-अच्छाई बगैर लाग-लपेट के बता देते हैं और मैं सच्चाई को जान कर अपने अवगुण दूर करने का प्रयास करता रहता हूं।’ प्रस्तुति : अमिताभ स.