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ऊपर नोट नीचे नोट, बोरी भरकर वोट

07:55 AM May 25, 2024 IST
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सहीराम

फिर से बोरे भर-भरकर नोट मिले हैं जी। नहीं जी नहीं, किसी नेता के यहां नहीं मिले हैं। मिलते हैं जी, चुनाव का टाइम है सो नोट भी खूब मिलते हैं। नहीं, मतदाताओं की बात नहीं कर रहे कि उन्हें मिलते हैं। वे तो लावारिस मिलते हैं और अक्सर गाड़ियों में ही मिलते हैं। वे नेताजी के ऑफिस में नहीं मिलते, जहां उन्हें मिलना चाहिए, वे उनके घर पर भी नहीं मिलते, जहां उन्हें मिलना चाहिए। वे लावारिस गाड़ियों में ही मिलते हैं। जिस धन के लिए मेरा-मेरा की मार मची रहती है, चुनाव के वक्त लावारिस गाड़ियों में मिलने वाले उसी धन का कोई वाली-वारिस नहीं होता। कोई उस पर दावा नहीं करता कि मेरा है। बेशक आदर्श आचार-संहिता तो कहीं न मिलती हो, बेशक आदर्श आचार-संहिता का उल्लंघन भी कहीं न मिलता हो, पर नोट फिर भी मिलते हैं। इस राज्य से उस राज्य तक और इस निर्वाचन क्षेत्र से उस निर्वाचन क्षेत्र तक हर कहीं मिलते हैं।
अब चुनाव हैं तो वे पार्टियों को चंदे के रूप में मिलते हैं। जी नहीं, नाराज होने की तो कोई बात ही नहीं जी। हम चुनावी बॉन्डों की बात नहीं कर रहे हैं। हम तो विशुद्ध चंदे की बात कर रहे हैं-जो तब भी मिलता था, जब चुनावी बॉन्ड नहीं थे और अब भी मिलता है, जब चुनावी बॉन्ड हैं। खैर, विकास तो चाहे ऊपर से रिसकर नीचे तक न पहुंचता हो, लेकिन चंदे के यह नोट रिसकर नीचे तक अवश्य पहुंचते हैं। वे अक्सर वोटरों को दारू की बोतल के साथ मिलते हैं। नहीं, चखने की तरह नहीं।
तो जी फिर से बोरे भर-भरकर नोट मिले हैं। नहीं-नहीं उन बोरों में नहीं मिले हैं, जो अडानी-अंबानी सेठों के यहां से टैंपो में रखकर भेजे गए थे। वे तो गद्दों में मिले हैं, तकियों में मिले हैं। वे उन बेशुमार खुशियों की तरह मिले हैं जो दिल में नहीं समाती। यह नोट भी तिजोरियों में नहीं समाए होंगे, बल्कि वे तो गद्दों और तकियों में भी नहीं समा पाए। यहां तक कि कमरों में भी समा रहे थे। इस माने में वे दिल में न समा पाने वाली बेशुमार खुशियों से ज्यादा थे।
खुशियां तो फिर भी गिनी जा सकती हैं, उपलब्धियां भी गिनी जा सकती हैं। वैसे भी वे उतनी ही होती हैं कि उंगलियों पर गिनी जा सकें। लेकिन यह नोट नहीं गिने जा रहे। उन्हें गिनने के लिए मशीनें लानी पड़ी। अच्छी बात यह है कि इन मशीनों को अब जंग लगने का कोई खतरा नहीं क्योंकि हर महीने-पंद्रह दिन में यह बोरे भर-भरकर नोट मिल ही जाते हैं। लगता है जल्दी ही पांच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बन जाएंगे। इस बार यह बोरे भर-भर नोट आगरा के जूता व्यापारियों के यहां मिले हैं। सो हमें यकीन हुआ कि जूतों में दाल अब भी बंट रही है।

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