चुनावी हार के लिए उत्तर-दक्षिण सोच का बहाना
यूं तो इन दिनों टेलीविज़न पर आने वाली खबरें झेलना कष्टदायी है, लेकिन कोई-कोई वक्त ऐसा होता जब पेशेवराना मजबूरियों के चलते देखनी पड़ती हैं, विशेषकर चुनाव परिणामों के दिन, जैसा कि हाल ही में हुआ था। न्यूज़ एंकर, यहां तक कि उम्रदराज अनुभवी भी, किन्हीं विशेष किस्म के नतीजों पर फौरी विश्लेषण करने की बुरी आदत से उबर नहीं पाए, खासतौर पर जब यह उनकी पसंद के अनुरूप न हों। राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधान सभाई चुनावों में कांग्रेस को मिली हार के पीछे कारणों को, तथ्यों की खोजबीन में अपनी ही सुविधा के अनुसार और सुस्ती की वजह से, उत्तर-दक्षिण भारतीय वोटरों की मानसिकता का प्रतिबिम्ब बताने लगे।
इसको कांग्रेस के सुस्त नेताओं ने लपक लिया, जिन्हें अपने सुप्रीमो राहुल गांधी को हार के पीछे वजह बताने को यह बना-बनाया और आसान बहाना मिल गया यानि नेक, उदार और समावेशी राजनीतिक विकल्प के प्रति उत्तर भारतीयों में जन्मजात पूर्वाग्रही मानसिकता दोषी है। यह कहकर भूगोल बोध की भी ऐसी-तैसी कर डाली। मध्य प्रदेश, जैसा कि नाम ही बताता है, और छत्तीसगढ़ भी, उत्तर भारत का हिस्सा न होकर मध्य भारत हैं। छत्तीसगढ़ तो समूचा हिंदी भाषी भी नहीं है। फिर क्या हुआ? चाहिए केवल इतना भर कि कोई तो बहाना हो ताकि नेतृत्व में रही कमी का सख्त विश्लेषण होने से बचा जा सके। डीएमके, जिसका एकमात्र तरीका पहचान आधारित राजनीति करना है और इसके लिए ब्राह्मण-बैरी, हिंदी-विरोधी और उत्तर भारतीयों से दुराग्रह का चोला ओढ़ रखा, उसने उक्त विश्लेषण का स्तर कुछ और नीचे गिराते हुए कह डाला कि भाजपा तो केवल ‘गोमूत्र राज्यों’ में जीत सकती है। केरल के मार्क्सवादियों में भी भाजपा और आरएसएस को ‘गाय गोबर संघी’ कहने का चलन है। परंतु संसद में खड़े होकर अधिकांश भारत पर गोमूत्र का ठप्पा लगाने से घटियापन का स्तर और नीचे गया है। खासतौर पर जब दक्षिण भारत में आज भी आयुर्वेद और सिद्ध चिकित्सा पद्धति में गोमूत्र का उपयोग जारी है।
इसलिए, सवाल है : क्या वाकई भारतीय मतदाताओं की पसंद-नापसंद तय करने में उत्तर-दक्षिण के मुताबिक भेदभाव विद्यमान है? इसके जबाव की शुरुआत सुनी-सुनाई पर आधारित न होकर चुनावी परिणामों के ठोस विश्लेषण से करनी पड़ेगी। राजनीतिक जीत का सबूत सदा से संसदीय चुनाव में प्राप्त की गयी सीटों से रहा है। साल 2019 के लोकसभा चुनाव के नतीजे तो यही बताते हैं कि भाजपा दक्षिण भारत में सबसे बड़ी पार्टी है – किसी भी अन्य राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल से बड़ी।
डीएमके, जिसने दक्षिण भारतीयों का प्रवक्ता होने की भूमिका अपना रखी है, उसके लोकसभा में 24 सांसद हैं। साल 2019 के आम चुनाव में डीएमके ने भले ही एकतरफा झाड़ू फेरा हो, लेकिन अन्य किसी दक्षिण भारतीय सूबे में एक भी सीट नहीं है, यहां तक कि पड़ोस के तमिलभाषी पुड्डुचेरी में भी। वास्तव में, डीएमके सूबे में बहुलता वाली जाति का दल है और इसने जो द्रविड़वादी मुखौटा पहन रखा है वह एक सदी पहले ब्रिटिश हितैषी जस्टिस पार्टी ने थमाया था। इस पार्टी में द्रविड़वाद या समूचे दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व करने जैसा कुछ नहीं है।
दक्षिण भारत में दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक दल है वाईएसआर कांग्रेस। आंध्र प्रदेश की कुल 25 लोकसभा सीटों पर इसके 22 सांसद चुने गए। क्षेत्रीय दलों में तीसरे पायदान पर है, तेलंगाना राष्ट्र समिति (बाद में भारत राष्ट्र समिति)। उसके तेलंगाना की कुल 17 लोकसभा सीटों में 9 सांसद हैं। चार दक्षिण भारतीय राज्यों में कांग्रेस के कुल मिलाकर 28 सांसद हैं और एक सीट संघ प्रशासित प्रदेश में जीती है। इनमें भी, अकेले केरल से 15 सांसद हैं, जिसके पीछे मुख्यतः सत्तारूढ़ मार्क्सवादी पार्टी के प्रति लोगों का रोष है। तमिलनाडु में डीएमके के साथ गठबंधन ने कांग्रेस को 8 सीटें दिलाई हैं वर्ना अपने बूते पर शायद एक भी न निकाल पाती (प्रदेश में इसके सबसे कद्दावर नेता की चुनाव में जमानत जब्त हुई थी)। तेलंगाना में कांग्रेस के 3 सांसद हैं तो कर्नाटक और पुड्डुचेरी में एक-एक।
वहीं 2019 में कर्नाटक में भाजपा ने 25 लोकसभा सीटें जीती थीं, 4 सांसद तेलंगाना से हैं, कुल मिलाकर 29 अर्थात कांग्रेस से 1 अधिक। कांग्रेस, डीएमके और भाजपा की कारगुजारी में सबसे बड़ा अंतर यह है कि जहां कांग्रेस केवल गठबंधन के कारण कुछ सीटें निकाल पाई वहीं कर्नाटक और तेलंगाना में भाजपा और डीएमके ने चुनाव अपने दम पर लड़ा। ठीक से विचारे बिना यह विश्लेषण करना कि वहां एक खास विचारधारा का विरोध है या फिर हिंदुत्व के प्रति नफरत है, यह तथ्यों और प्राप्त सीटों की अनदेखी करना है। कांग्रेस को समूचे भारत में मिली कुल 51 संसदीय सीटों में 28 दक्षिण भारत से हैं, तब तो इसको ‘उत्तर भारतीय के नेतृत्व वाला दक्षिण भारतीय दल’ कहा जाए (मल्लिकार्जुन खड़गे तो महज गांधी परिवार द्वारा नामित हैं, जिनके पास स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं है)। वहीं भारतीय जनता पार्टी की देशभर में जीती 303 सीटों में 29 दक्षिण भारत से हैं। लेकिन हां, भाजपा में उत्तर भारतीयों का दबदबा है और उच्च पदों पर एक भी नेता दक्षिण भारत से नहीं है, यहां तक कि खड़गे सरीखा नाम लेने को भी। विगत में, प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष एक ही राज्य से हुआ करते थे, जाहिर है यह राष्ट्र की विविधता का प्रतिबिंब नहीं था। वरिष्ठ मंत्रियों और पार्टी के उच्च पदेन नेताओं में अब केवल निर्मला सीतारमण दक्षिण भारत से एकमात्र चेहरा हैं, वैसे भी उनकी छवि तमिल लोगों का जमीनी प्रतिनिधित्व करने की बजाय दिल्ली वासी होने की अधिक है।
जो भी है, भावनाएं सदा आंकड़ों से परे होती हैं। क्या संस्कृत-लोक और द्रविड़-लोक के बीच कोई कांटेदार बाड़ है? वर्णाक्षर किसी सभ्यता के रचक-खंड होते हैं। स्वर जैसे कि अ, आ, इ, ई... और वर्णमाला के व्यंजन (क, ख, ग, घ... ण और च, ट, त, प...) संस्कृत और तमिल में एक समान हैं – अंतर इतना भर कि इन तथाकथित दो प्रतिकूल संस्कृतियों के बीच अक्षर परस्पर अबोध्य लिपी में लिखे जाते हैं, जो असल में एक ही हैं। उत्तर में सूर्य, चंद्रमा, जल है तो दक्षिण में सूर्यण, चंद्रण, नीर – लेकिन हैं एक जैसे। लोककथाएं एक हैं, भगवान भी एक हैं और मानसिकता में समाए जाति-पाति रूपी राक्षस भी एक जैसे हैं।
यह सही है कि गिनती करने वाले अंकों के नामों में काफी फर्क है, उत्तर का एकम, द्वयम, तृयम दक्षिण में ओण्णु, रण्डु, मोण्णु है – अन्य अनेकानेक शब्द और स्वरों में भी अंतर है जैसे कि कोझीकोडे या तमिझ में झः को अन्य जगह झ कहा जाता है। तथापि एक मलयाली बंदा कन्नड़ या तेलुगू की अपेक्षा हिंदी को अधिक समझ सकता है, और यह बात उक्त भाषियों पर लागू है, इसके लिए धन्यवाद है महात्मा गांधी की दक्षिण भारत हिंदी प्रचारिणी सभा को, और बेशक आगे चलकर पूरा श्रेय जाता है हिंदी फिल्मों को। राजनीतिक, सामाजिक या सांस्कृतिक तौर पर ऐसा कुछ नहीं है जो समूचे दक्षिण भारत को एक साथ बांध सके। यहां तक कि औपनिवेशिक शासकों द्वारा तमिल पृथकतावाद को हवा देने की योजना असफल रही।
कांग्रेस को जरूरत है एक मजबूत नेतृत्व और विश्लेषकों की, न कि चुनावी हार के लिए छद्म-राजनीतिक बहाने गढ़ने वालों की, वह भी तब जबकि प्राप्त वोटों का हिस्सा पिछले चुनाव जितना बरकरार है। हार का ठीकरा उत्तर भारतीयों की मानसिकता पर फोड़ने वाली दलीलें भले ही राहुल गांधी को सांत्वना दें, जिन्हें खुद अमेठी के मतदाताओं के बजाय वायनाड़ वालों ने अपनाया है। लेकिन ऐसे लोगों और बातों से पार्टी का कुछ भला नहीं होने वाला, इसकी बजाय उत्तर भारत में चुनावी विजय के लिए नूतन रणनीति की जरूरत है।
लेखक प्रधान संपादक हैं।