नया संसद भवन और सवाल
अच्छा संदेश जाता
देश को मिला नया संसद भवन शिलान्यास से लेकर लोकार्पण तक विवादास्पद रहा। विपक्ष के आरोप-प्रत्यारोप के बीच प्रधानमंत्री द्वारा इसका उद्घाटन विपक्ष के बहिष्कार की भेंट चढ़ने से ढेरों सवाल खड़े हुए। सबसे बड़ी बात तो यह कि संसद किसी दल की बपौती नहीं है और सत्तापक्ष संसद का कोई जागीरदार नहीं। देश के प्रमुख विपक्षी दलों ने समझदार विपक्ष की भूमिका निभाई होती और लोकतंत्र के नए भवन के लोकार्पण में उपस्थित होता तो दुनिया को यह संदेश जरूर जाता कि भारत में भले ही राजनीतिक दलों में वैचारिक मतैक्यता नहीं है लेकिन लोकतंत्र के नाम पर उनमें आपसी सहमति है।
अमृतलाल मारू, इन्दौर म.प्र.
आकांक्षाओं का मंच
वर्ष 2026 में प्रस्तावित परिसीमन के अनुसार देश में विस्तृत संसद भवन की आवश्यकता थी। संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। लेकिन संसद भवन के उदzwj;्घाटन के अवसर पर विपक्ष ने नकारात्मक सोच का परिचय दिया। संसद भवन देश की आकांक्षाओं का मंच है। प्रधानमंत्री की जनता के प्रति जवाबदेही है न कि राष्ट्रपति की। राष्ट्रपति के चुनाव में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होती। इसलिए प्रधानमंत्री के हाथों संसद भवन के उद्घाटन में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी। विपक्ष को समझना था कि संसद किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं बल्कि राष्ट्र की धरोहर है।
सोहन लाल गौड़, कैथल
बड़ा दिल दिखाते
बदलते वक्त के साथ जनप्रतिनिधियों के लिए अधिक क्षमता और सुविधाजनक संसद भवन जरूरी था। मगर इस लोकतंत्र के मंदिर की आत्मा तभी धड़कती जब सभी विपक्षी दल भी एक साथ इस उद्घाटन समारोह में शामिल होते। नई इमारत बनाने में जो तत्परता दिखाई गई उसका शतांश भी अगर राष्ट्रीय सहमति में दिखाया होता तो इसके उद्घाटन का क्षण विवादास्पद न होकर एक सच्चे राष्ट्रीय पर्व का रूप लेता। संसद भवन को लोकतंत्र का मंदिर कहने वाले विपक्षी दलों को भी दिल दिखाकर इस उद्घाटन समारोह में शामिल होना चाहिए था।
पूनम कश्यप, नयी दिल्ली
अतार्किक विरोध
बेशक नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह पर राजनीति खूब हुई, लेकिन नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह में दुनिया ने हमारे देश की संस्कृति की झलक और अनेकता में एकता की भावना के दर्शन किए। नये संसद भवन के उद्घाटन पर जो राजनीति हुई वह संकीर्ण सोच का द्योतक है। संसद भवन के उद्घाटन पर जो विभिन्न राजनीतिक दलों की बेतुका बयानबाजी सामने आई वह भी निंदनीय है। सवाल उठता है कि क्या ऐसी बेतुकी बयानबाजी कर ही सरकार का विरोध किया जा सकता है? क्या शिष्टाचार की भाषा से विरोध नहीं किया जा सकता है? संसद भवन लोकतंत्र का मंदिर होता है, इसके लिए बेतुकी बयानबाजी या विरोध बहुत ही गलत है।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर
सतही राजनीति
नया संसद भवन कितना भी खूबसूरत विशाल क्यों न हो, उसके भीतर लोकतंत्र की आत्मा तभी धड़केगी, जब वह एक नई राष्ट्रीय सहमति की नुमाइंदगी भी करता दिखाई देगा। विपक्ष की सहमति होती तो उद्घाटन समारोह विवादास्पद न होकर सच्चा राष्ट्रीय पर्व होता। क्या नए संसद भवन के उद्घाटन और राम मन्दिर के शिलान्यास के वक्त हुए कर्मकांडों में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए था? सभी राष्ट्रीय पार्टियां नए संसद भवन की मांग कर रही थीं, लेकिन वे उसके निर्माण की योजना से लेकर उद्घाटन तक उसका विरोध क्यों करती रहीं?
रमेश चन्द्र पुहाल, पानीपत
सहमति जरूरी
लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद भवन एक मंदिर के समान होता है। स्वस्थ लोकतंत्र में विपक्ष को सरकार के किसी भी कार्य की आलोचना करने का अधिकार है परन्तु कुछ राजनीतिक दलों द्वारा संसद भवन के उद्घाटन के बहिष्कार को एक स्वस्थ परंपरा के रूप में नहीं देखा जा सकता। संसद भवन एक स्थान है जहां सत्तापक्ष व विपक्ष के सांसद बैठकर देश के लिए कानून बनाते हैं। भविष्य में जब भी संसद में कोई कार्यवाही होगी तो सभी सांसद वहां होंगे। कितना अच्छा होता यदि अपने मतभेद भुला कर सभी दलों के सांसद नई संसद के उद्घाटन के समय वहां उपस्थित होते।
सतीश शर्मा, माजरा, कैथल
पुरस्कृत पत्र
संकीर्ण राजनीति
नये संसद भवन को लेकर राजनीतिक लोगों ने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। मसलन, क्या पुराने संसद भवन के नवीनीकरण से काम नहीं चलाया जा सकता था। सावरकर के जन्म दिन पर ही उद्घाटन समारोह रखना आवश्यक था और नये भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति करें या प्रधानमंत्री। इस तरह के अन्य प्रश्नों के उत्तर सत्तापक्ष और विपक्ष अपनी अपनी सहूलियत और रणनीति के अनुसार देते रहेंगे। लेकिन कुछ प्रश्न ऐसे हैं जो नये संसद भवन के उद्घाटन अवसर पर पूरे राष्ट्र को उद्वेलित कर रहे हैं जैसे कि क्या विपक्ष के पास नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करना एकमात्र विकल्प बचा था? क्या राष्ट्रीय पर्व की अहमियत रखने वाले अवसरों को भी संकीर्ण राजनीति की भेंट चढ़ा देना उचित है?
ईश्वर चन्द गर्ग, कैथल