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नया उजाला

06:58 AM Nov 03, 2024 IST
चित्रांकन : संदीप जोशी

रमेश चन्द्र छबीला
सूर्यकान्त ‘मधुकर’ ने बोझिल नेत्रों से दीवार घड़ी की ओर देखा। रात का एक बज रहा था। कुछ क्षण के लिए उन्होंने नेत्र बन्द कर लिए। वह मन ही मन बहुत प्रसन्न हो रहे थे कि आज उनका उपन्यास पूरा हो गया है। लगभग तीन महीने से वह एक नया उपन्यास लिख रहे थे।
मधुकर की आयु पैंसठ वर्ष थी। छरहरा शरीर। सांवला रंग। सिर के बाल बिल्कुल सफेद। आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा।
कुछ देर तक इसी तरह बैठे रहने के बाद मधुकर उठे और बिस्तर पर लेट गये। वे नेत्र बन्द कर सोने की कोशिश करने लगे, परन्तु नींद नहीं आ रही थी। वे स्मृतियों के सागर में तैरने लगे।
देखते ही देखते जीवन के पैंसठ वर्ष बीत गये। एम.ए. तक पढ़ाई करने के बाद एक इंटर कॉलेज में हिन्दी टीचर की नौकरी मिल गई थी। दो वर्ष बाद उनका विवाह शारदा से हो गया था। शारदा बी.ए. तक पढ़ी थी। उसका रंग-रूप तो साधारण था, परन्तु घर-परिवार चलाने में बहुत समझदार थी। कुछ साल बाद शारदा ने बेटे अरुण को जन्म दिया था।
उन्हें पत्र-पत्रिकाएं, उपन्यास आदि पढ़ने का शौक अपने स्कूल-कॉलेज के समय से रहा। उन्होंने कहानी लेखन विद्यालय से लेखन का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। कहानी लिखकर एक पत्रिका को भेजी। वह दिन असीम प्रसन्नता का था जब सुप्रसिद्ध पत्रिका में उनकी कहानी फोटो के साथ छपी।
इसके बाद लेखनी रुकी नहीं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित होने लगीं। उनके दस कहानी संग्रह एवं पांच उपन्यास भी प्रकाशित हो गये। वह एक साहित्यिक संस्था रचनाकार से भी जुड़ गए।
अरुण की शादी कर दी गई। बहू के रूप में रमा ने घर में प्रवेश किया। कुछ वर्ष बाद ही पोते मयंक और पोती सारिका का जन्म हो गया। एक दिन वह लाॅन में बैठे सर्दी की गुनगुनी धूप का आनंद लेते हुए समाचार पत्र पढ़ रहे थे। बाहर एक कार रुकने की आवाज आई। कॉल बेल बजी। उन्होंने उठकर फाटक खोला।
सामने खड़े युवक ने हाथ जोड़कर कहा, ‘प्रणाम गुरुजी।’
देखते ही उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, ‘अरे विकास? कैसे हो? आज कैसे याद आ गई इतने वर्षों के बाद?’
‘गुरुजी, आपको कैसे भूल सकता हूं?’ विकास ने अंदर आकर लॉन में बैठते हुए कहा, ‘कॉलेज के समय में जब मैं हिन्दी में बहुत कमजोर था, तब आपने ही तो मुझे हिन्दी में इतना मजबूत कर दिया था कि क्लास में सबसे ज्यादा नम्बर आये थे। अब मैं एक कम्पनी में सहायक प्रबंधक के रूप में नौकरी कर रहा हूं। कम्पनी में हिन्दी के मामले में मेरी अलग ही पहचान है। पिछले सप्ताह मेरा यहां ट्रांसफर हो गया है।’
‘साहित्य पढ़ने का अब भी शौक है क्या?’
‘बिल्कुल है गुरुजी। साहित्य पढ़ने के लिए भी मैं अपने व्यस्त जीवन में से समय निकाल लेता हूं। आपकी कुछ पुस्तकें भी मेरे पास हैं। मेरी पत्नी तनुजा को भी साहित्य पढ़ने में रुचि है।’
‘अरे वाह, बहुत खूब।’ उनके चेहरे पर प्रसन्नता फैल गई थी।
‘तनुजा भी आपसे मिलना चाहती है। आप किसी दिन घर आइए।’ कहकर विकास चला गया था। एक दिन वे शारदा के साथ विकास के घर जा पहुंचे थे। विकास और उसकी पत्नी तनुजा ने उनकी कुछ कहानियों पर चर्चा भी की थी।
जीवन का सफर हंसते-हंसाते चल रहा था कि दो साल पहले अचानक पत्नी शारदा कैंसर के कारण स्वर्ग सिधार गई। शारदा के जाने के बाद उन्हें पता चला कि जब जीवन साथी अचानक चला जाता है तो इंसान कितना अकेला हो जाता है।
प्रायः वह सोचते कि कितना अन्तर है उनके बेटे अरुण और विकास में। अरुण और रमा को उनके साहित्य से कोई मतलब नहीं।
एक दिन अरुण ने कह दिया था, ‘बाबूजी, आजकल साहित्य पढ़ने का किसके पास समय है? पहले इतनी पत्रिकाएं निकलती थीं। पाठकों की कमी के कारण बहुत पत्रिकाएं बन्द हो चुकी हैं। नेट पर ही इतना साहित्य मुफ्त में मिल जाता है तो बाजार से पत्रिका खरीदकर कौन पढ़े? बच्चों पर तो पढ़ाई का बोझ इतना है कि वे पत्रिका पढ़ने का समय कहां से निकालें?’
‘बेटे, साहित्य आत्मा का भोजन है। जिनको साहित्य पढ़ना है, वे साहित्य ही पढ़ेंगे। पुस्तकों में पढ़ें या नेट पर। इतना होने पर भी साहित्यकार निराश नहीं है। साहित्य लिखा जा रहा है।’ उन्होंने कहा था।
‘ये पुस्तकें जो आप छपवा रहे हैं, कहीं बिकती नहीं। केवल मुफ्त में सप्रेम या सादर भेंट दी जाती हैं। अब तो साहित्य लाइब्रेरी की अलमारियों की शोभा बन गया है। मुफ्त बांटने के लिए पुस्तकों पर खर्च किया गया रुपया बेकार ही जाता है। भला क्या लाभ होता है इनको छापकर?’
‘क्या लाभ होता है, यह तू नहीं समझेगा। अपनी पुस्तकों पर खर्च किया गया रुपया मैंने तुझसे तो लिया नहीं, जो मुझे समझा रहा है। तुझे क्या पता साहित्य क्या होता है?’ उन्होंने कड़े शब्दों में कहा। अरुण चुपचाप कमरे से बाहर चला गया था। उन्हें लग रहा था कि यह अरुण उनका बेटा नहीं, कोई शत्रु बोल रहा है। रमा दूसरे घर से आई है, परन्तु अरुण तो अपना बेटा है। अपना खून है, न जाने क्यों आंखें बन्द करके रमा की हां में हां मिलाता है।
प्रायः विकास उनके पास आता और घंटों बैठकर बातचीत करता। विकास से बात करके उन्हें बहुत अच्छा लगता। कभी-कभी विकास कोई पत्रिका या पुस्तक भी ले आता था। वह जब भी बाजार से कोई सामान लाने का काम बताते, तो विकास तुरन्त कर देता। स्मृतियों के सागर में डूबते-तैरते उन्हें नींद आ गई।
सुबह मधुकर की आंख खुली तो आठ बज रहे थे। स्नानादि के बाद वह नाश्ते की प्रतीक्षा में बैठे थे। कमरे में आकर अरुण ने नाश्ता रखते हुए कहा, ‘आज देर से उठे हो? रात सोने में देर हो गई थी क्या?’
‘हां, दो-ढाई बज गए थे। नींद ही नहीं आ रही थी।’ मधुकर ने कहा, लेकिन अरुण को जानबूझकर यह नहीं बताया कि उनका नवीनतम उपन्यास पूरा हो गया है। वह जानते थे कि यह सुनकर अरुण को जरा भी प्रसन्नता नहीं होगी।
दोपहर को मधुकर ने विकास को फोन मिलाकर कहा, ‘विकास, कल रविवार है, कल किसी भी समय मिलना।’
‘ठीक है गुरुजी, जरूर मिलूंगा।’
अगले दिन विकास मधुकर के पास पहुंच गया। मधुकर ने कहा, ‘मेरा नया उपन्यास ‘अनाम रिश्ता’ पूरा हो गया है। रात मैंने इसकी पांडुलिपि तैयार कर दी है।’
‘वाह, यह तो बहुत प्रसन्नता की बात है। मुझे आप पहले बता देते तो मैं मिठाई का डिब्बा ले आता और आप सभी का मुंह मीठा कराता।’
‘मैंने इसीलिए तो नहीं बताया। मैं जानता था कि तुम्हें कितनी खुशी होगी और तुम मिठाई लाओगे। जब घर में मिठाई आएगी तो अरुण और रमा को पता चलेगा। उनको जरा भी खुशी नहीं होगी। इसीलिए मैंने अरुण को नहीं बताया। मैं नहीं चाहता कि उपन्यास छपने तक इन दोनों को पता चले।’ मधुकर ने उदास स्वर में कहा।
विकास चुप रहा। तभी आठ वर्षीय मयंक एक ट्रे में चाय के दो कप और कुछ खाने का सामान लेकर आया और मेज पर रखकर चला गया।
‘विकास, अब तुम्हें एक काम करना है। मैंने कमल प्रकाशन से बात कर ली है। तुम कल उपन्यास की पांडुलिपि उनको पहुंचा देना। पहले भी मेरी तीन पुस्तकें यहीं से प्रकाशित हुई हैं। इस उपन्यास का शीर्षक, कवर आदि वह मुझे व्हाट्सएप पर भेज देगा।’
‘ठीक है, गुरुजी, मैं यह उपन्यास उन्हें दे दूंगा।’
एक रात लगभग एक बजे मधुकर के सीने में बाईं तरफ दर्द होने लगा। जब बेचैनी बढ़ने लगी, तो अरुण को आवाज दी। अरुण उनके पास आकर बोला, ‘बाबूजी? लग रहा है आपकी तबियत ठीक नहीं है?’
‘अरुण, सीने में बहुत दर्द हो रहा है। जल्दी डॉक्टर के पास चलो।’ मधुकर ने घबराए स्वर में कहा।
अरुण ने प्राइवेट अस्पताल को फोन किया। एम्बुलेंस आ गई। मधुकर अस्पताल तक भी न पहुंच पाये। रास्ते में ही सदा के लिए चले गए। अगले दिन मधुकर का अंतिम संस्कार हो गया।
चार दिन बाद अरुण और रमा ने मधुकर की अलमारी का लॉकर खोलकर नकद, सोना, चांदी आदि अपने कब्जे में कर लिया। जबकि वे जानते थे कि बाबूजी की चल-अचल सम्पत्ति का कोई दूसरा वारिस नहीं है, फिर भी वे जल्दी में देखना चाहते थे कि बाबूजी उनके लिए कितना माल छोड़ गए हैं।
रमा ने अलमारियों में रखी मधुकर की पुस्तकों की ओर उपेक्षित-सी दृष्टि डालकर बुरा-सा मुंह बनाते हुए कहा, ‘देखो, अलमारियों में किताबें ही किताबें भरी पड़ी हैं। एक अलमारी तो दूसरे लेखकों की किताबों से भरी हुई है।’
‘अब हमें इन किताबों का क्या करना है? हमारे लिए तो बेकार हैं।’
‘मैं बताती हूं हमें इस कबाड़ का क्या करना है। किसी कबाड़ी को बुलाकर यह सारा कबाड़ उठवा दो।’
‘बाबूजी ने तो बहुत रुपये किताबें छापने में बर्बाद कर दिए।’
‘चलो, इस कबाड़ को बेचकर कुछ न कुछ तो मिलेगा। अरे हां, याद आया, मैं सोच रही हूं कि आप बाबूजी के चहेते विकास को फोन कर दो। उससे पूछ लो कि हम यह कबाड़ बेच रहे हैं। विकास तो कबाड़ी से ज्यादा ही पैसे दे देगा।’
‘हां, ठीक कहती हो तुम।’ अरुण ने कहा और विकास का मोबाइल नंबर मिलाकर बात की।
चार-पांच दिन बाद विकास ने सारी पुस्तकें ले ली और अरुण को तीस हजार रुपये दे दिए। अरुण और रमा बहुत प्रसन्न थे कि कबाड़ी तो दो-चार हजार ही देता।
रमा ने पूछ ही लिया, ‘भैया, आप इस कबाड़ का क्या करोगे?’
‘भाभी जी, जिसे आप कबाड़ कह रही हो, यह मेरे लिए अनमोल है। इन पुस्तकों में गुरुजी की अनेक वर्षों की साधना है। इन पुस्तकों को मैं बेकार नहीं जाने दूंगा। स्कूल-कॉलेजों के पुस्तकालयों में दूंगा। साहित्य प्रेमियों को दूंगा।’ कहते हुए विकास ने पुस्तकें गाड़ी की डिक्की में रखी और चला गया।
एक महीने के बाद अरुण के मोबाइल की घंटी बजी। उसने फोन उठाकर कहा, ‘हैलो।’
‘मैं कमल प्रकाशन से बोल रहा हूं। मधुकर जी ने एक नया उपन्यास विकास द्वारा छपने के लिए भेजा था। अब आप यह बताइये कि उपन्यास छापा जाये या नहीं? उपन्यास का खर्चा तो आप देंगे?’ उधर से प्रकाशक की आवाज आई।
‘मुझे उपन्यास की कोई जानकारी नहीं है। जब बाबू जी नहीं रहे, तो उपन्यास छपवाकर क्या करेंगे?’ अरुण ने साफ मना कर दिया।
एक दिन विकास प्रकाशक के पास जा पहुंचा और वहां जब उसे पता चला कि अरुण ने उपन्यास छापने को मना कर दिया है, तो उसे दुख हुआ। उसने उपन्यास छापने के लिए कह दिया कि जो भी खर्चा होगा, वह दे देगा।
उपन्यास प्रकाशित हो गया। विकास ने मन ही मन निश्चय कर लिया कि उपन्यास का विमोचन भी कराया जायेगा। वह रचनाकार संस्था के पदाधिकारियों से मिला।
एक दिन विकास उपन्यास के विमोचन का निमंत्रण पत्र लेकर अरुण के घर जा पहुंचा और उसे सपरिवार कार्यक्रम में आने के लिए आमंत्रित किया।
विकास के जाते ही रमा ने उपेक्षित स्वर में कहा, ‘मैं उस कार्यक्रम में नहीं जाऊंगी। हमें वहां बुलाकर हमारा अपमान कराना चाहता है विकास। मेरी मानो तो तुम भी न जाना।’
‘रमा, मैं वहां जाकर देखना चाहता हूं कि विकास की वास्तविकता क्या है? मेरा अपमान करेगा तो क्या मैं चुप रहूंगा?’ अरुण ने कहा।
नगर के हिन्दी भवन के सभागार में विमोचन समारोह में मंच पर कुछ साहित्यकार बैठे थे। अरुण को भी मंच पर बैठाया गया था। तीन साहित्यकारों ने मधुकर के सादगीपूर्ण जीवन और साहित्य पर अपने विचार प्रकट किए।
विकास ने कहा, ‘मधुकर जी मेरे गुरुजी थे। मैं उनका शिष्य रहा हूं। कॉलेज में वह हमें हिन्दी पढ़ाते थे। उन्होंने मुझे हिन्दी में बहुत आगे बढ़ा दिया। उनकी रचनाएं मुझे बहुत प्रभावित करती थीं। मुझे प्रसन्नता है कि अरुण भैया ने बाबूजी के उपन्यास को छपवाने में देर नहीं की। इसके लिए अरुण भैया बधाई के पात्र हैं।’
मधुकर के स्थान पर अरुण का एक होनहार बेटे के रूप में माल्यार्पण कर स्वागत किया गया।
अरुण अवाक-सा यह सब देख रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि यह क्या हो रहा है? उसने तो प्रकाशक को मना कर दिया था। उपन्यास तो विकास ने छपवाया है। फिर भी विकास ने अपना नाम क्यों नहीं बताया? विकास उसे इतना मान-सम्मान क्यों दिला रहा है, जिसका वह स्वयं हकदार है? वह तो कुछ और ही सोचकर यहां आया था, परन्तु जो मान-सम्मान बाबूजी के कारण विकास ने उसे दिलाया है, वह तो कभी सपने में भी न सोचा था। वह सारी उम्र बाबूजी के इस लेखन के बारे में व्यंग्य ही करता रहा। गलत सोचता रहा, लेकिन आज इतना मान-सम्मान पाकर उसकी आंखें खुल गई हैं। विकास तो बाबूजी को भगवान मान रहा है, लेकिन वह स्वयं रमा की हां में हां मिलाते हुए बाबूजी से दूर ही रहा। उसने मन ही मन एक निर्णय लिया।
उपन्यास का विमोचन हुआ तो अरुण को भी दो शब्द बोलने के लिए कहा गया। उसके नेत्र सजल हो गए और गला अवरुद्ध हो गया। वह बहुत कठिनाई से बोला, ‘मेरे पास कहने के लिए शब्द नहीं हैं। मुझे आज स्वयं पर बहुत गर्व हो रहा है कि मैं बाबू जी का बेटा हूं। बाबू जी के उपन्यास को छपवाने में विकास का बहुत योगदान है।’ कार्यक्रम समाप्त हो गया।
विकास एक कोने में जलपान कर रहा था। अरुण उसके पास जाकर बोला, ‘विकास, मुझे कुछ कहना है और यदि मुझे बड़ा भाई मानते हो, तो प्लीज मना मत करना।’
‘कहो भैया।’
‘बाबूजी की जितनी भी पुस्तकें आपको दी थीं, वे सब लौटा देना। वे पुस्तकें बाबूजी के कमरे में अलमारियों में उसी प्रकार रखी जाएंगी, जैसे बाबूजी रखते थे। जितने रुपये आप कहेंगे, मैं दे दूंगा। कल तक मैं अंधेरे में था, परन्तु आज के उजाले ने मेरी आंखें खोल दी हैं।’
विकास के चेहरे पर प्रसन्नता फैल गई। उसने कहा, ‘अरुण, मैं गुरुजी की सारी पुस्तकें आपको दे दूंगा, लेकिन शर्त यह है कि आप एक भी रुपया नहीं देंगे। मेरे पास सब कुछ बाबूजी के आशीर्वाद से है। मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है कि कल तक जिन पुस्तकों को आप कबाड़ बता रहे थे, आज वे ही पुस्तकें आपके लिए अमूल्य हो गई हैं।’
‘इसका कारण भी आप हैं। आगे मैं कुछ नहीं बताऊंगा, क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं।’ अरुण ने कहा।
विकास के चेहरे पर विजयी मुस्कान फैल गई।

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