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शीघ्र न्याय में भी मददगार हो नयी कानूनी संरचना

06:29 AM Aug 28, 2023 IST
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सुरेश सेठ

भारतीय लोकतंत्र के चार प्रमुख स्तम्भों में से सबसे मुखर और दिशा-निर्देशक स्तम्भ है न्यायपालिका। संसद का मानसून सत्र समाप्त हो गया। इसकी विशेष उपलब्धि कही जा सकती है कि इस सत्र में सरकार ने न्यायिक क्रांति की ओर भी कदम बढ़ाया। जिसके तहत 150 साल पुराने दासता की मानसिकता वाले न्याय संहिता कानूनों इंडियन पीनल कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड और इंडियन एविडेंस एक्ट को भारतीय रूप देने का प्रयास किया गया। इसीलिए पहले तो नाम बदले- भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम। लेकिन नाम बदलने के साथ ही न्यायिक प्रक्रिया की तस्वीर भी तो बदलनी चाहिए। जिसका इस समय हाल यह है कि देश की अदालतों में 5 करोड़ मुकदमें लंबित हैं। निचली अदालतों में कम से कम 4 करोड़ केस लंबित हैं। देश के 25 हाईकोर्ट्स में 60 लाख से अधिक केस लंबित हैं। इनमें से 71,594 केस का तीस साल बाद भी फैसला नहीं हो सका, और इनमें 21,039 क्रिमिनल केस हैं जिन पर फैसला तुरंत होना चाहिए था। जिला अदालतों में 23,611 सिविल केस और 67,404 क्रिमिनल केस 30 वर्ष से अधिक के लंबित हैं। आमतौर पर केस दायर करने के बाद एक साल तो फाइलों के नख-शिख संवारने में ही लग जाता है। पिछले दिनों गुजरात हाईकोर्ट के एक जज ने तो यह टिप्पणी भी दी थी कि एक मुकदमा दायर होने के बाद कम से कम पांच साल ले लेता है। ऐसे हालात बदलने चाहिये। देश के लोगों को त्वरित न्याय मिलना चाहिए तभी दासता की निशानियां मिटेंगी। प्राय: समझा जाता है कि अंग्रेजों ने जो कानून बनाए थे, उसमें भारतीयों को न्याय कम व दंड अधिक मिलता था। दंड भी ऐसा कि सबसे पहले तो न्याय की प्रतीक्षा करो और बिना किसी सुनवाई के हिरासत में अपनी एड़ियां रगड़वाते रहो, बाद में जब कभी निर्णय का समय आए तो देखो कि इस बीच दादा का दायर किया हुआ मुकदमा पोता भुगत रहा है और उसको न्याय मिलने तक पूरी स्थिति ही बदल गई।
देश में नये न्यायिक ढांचे का निर्माण होने जा रहा है। गृहमंत्री अमित शाह ने जो नये विधेयक प्रस्तुत किए हैं, वे अब सोच-विचार के लिए चयन समिति के पास जाएंगे। इसके बाद जब शरद सत्र आएगा अर्थात महाचुनाव से पहले का आखिरी सत्र तो उसमें अगर इसका अंतिम प्रारूप तैयार हो जाता है और विधेयक पारित हो जाता है तो अगले वर्ष महाचुनाव के समय वर्तमान नेत‍ृत्व यह तो कह सकेगा कि हमने न्यायिक ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया। लेकिन यह परिवर्तन होगा कैसे? जिस क्रांति की उम्मीद न्यायिक ढांचे के बदलाव से की जा रही है उसका क्रियान्वयन और गतिशील रूप क्या ऐसा होगा कि एक आम जन को कम समय में न्याय मिल जाए। धरातल पर इसके बारे में सोचते हैं तो सबसे पहले इसके लिए पुलिस के जांच-पड़ताल के तरीकों में सुधार की आवश्यकता है। अगर जांच में वही गाली-जूते का प्रयोग होगा तो बात कैसे बनेगी? एक और बात, नीचे की अदालतों में झूठी गवाही देने वाले भी मुकदमों को लंबित कर देते हैं। ऐसे में जब न्यायिक ढांचा बदल ही रहे हैं तो झूठी गवाही देने वालों को अपराधी घोषित कर दंड देने का प्रावधान भी हो।
इसके अलावा जैसा कि पेश प्रारूप में सुझाव भी दिया गया है, सुनवाई का स्थगन किसी भी स्तर पर दो बार से अधिक नहीं होना चाहिए। सरकार राहत देने के लिए 90 दिनों की अवधि तो निश्चित कर रही है कि 90 दिनों में हर हाल में पड़ताल के बाद मुकदमे की सुनवाई शुरू हो जाए। अगर नहीं शुरू होती तो इसके लिए 30 दिन से अधिक का विस्तार नहीं दिया जाएगा। यूरोपीय देशों में समय से कानूनी प्रक्रिया निपटाने के सख्त प्रावधान हैं। बंगलादेश में भी ऐसी व्यवस्था है तो यहां क्यों नहीं? क्यों पुलिस के स्तर पर ही जांच-पड़ताल में ईमानदारी का अभाव नजर आता है और निपुणता से खोज-तलाश का भी? क्या यह नहीं हो सकता कि ईमानदार सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारियों को भी इस पड़ताल का पथ-प्रदर्शन करने की इजाजत दी जाए। वहीं डिजिटल उपकरणों, कृत्रिम मेधा का उपयोग और एआई से लैस रोबोट मानव आखिर किस दिन सटीक जांच-पड़ताल करते नजर आएंगे? अगर यह दुनिया नये दावों के साथ पुराने तरीकों से ही चलती रहेगी यानी पुलिस से लेकर जेल अधिकारी व पैरवी करने वाले तक भ्रष्टाचार के संदेह के घेरे में होंगे तो भला न्याय मिलेगा कैसे? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वरिष्ठजनों को न्याय देने के लिए कुछ और फास्ट ट्रैक इस्तेमाल किए जाएं? लेकिन अब फास्ट ट्रैक के नाम पर जो मुकदमें होते हैं या जिस तरीके से उनकी सुनवाई और पैरवी होती है तो लगता है कि इस फास्ट ट्रैक भी चाल भी बिगड़ गयी है।
दूसरी ओर, नई न्यायिक व्यवस्था के नाम पर पंच निर्णयों और लोक अदालतों की बहुत बात होती है लेकिन पंच निर्णयों से आपस में जूझती पार्टियां कहां संतुष्ट होती हैं? मामला सुलझाने की नीयत चाहिये लेकिन इसके बाद फिर अदालती लड़ाई की राह पर निकल जाती हैं। इसी तरह जब सैशन कोर्ट बने थे तो उनका लक्ष्य रखा गया था कि एक ही सैशन में मुकदमा सुना जाएगा और उसका फैसला होगा। नई न्यायिक व्यवस्था में सैशन कोर्ट का नाम तो नहीं बदला जाएगा लेकिन वहां भी कहां एक सैशन में फैसला होता है। दरअसल, सवाल न्यायिक क्रांति के नाम पर नाम बदलने का नहीं है, भारतीय न्याय व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव लाने का है। केवल डिजिटल कर देने से ही अगर न्याय शीघ्र होता तो सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट्स में तो बहुत समय से यह प्रक्रिया लागू है। अब तो पेपरलैस सुनवाई और निर्णय भी होने लगे हैं लंकिन मुकदमें उसी तरह लंबित हैं। फास्ट ट्रैक में भी तकनीकी कठिनाइयों की वजह से अदालतें त्वरित गति से मुकदमें सुन नहीं पातीं। आंकड़े बता रहे हैं कि देश में आपराधिक छवि वाले आरोपी सांसदों-विधायकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसका कारण भी यही है कि इन पर दायर मुकदमों की सुनवाई कुछ इस तरह से होती है कि आरोपी न अपराधी घोषित हो पाते हैं, न ही उन्हें दो साल से अधिक सजा मिलती है और न ही वे चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित होते हैं। दरअसल, सवाल यह नहीं है कि क्या शरद सत्र में ये तीनों विधेयक पास होंगे और क्या अगले वर्ष महाचुनाव से पहले न्यायिक क्रांति हो जाएगी, बल्कि यह है कि न्यायाधीशों से लेकर अधिवक्ताओं और वादियों-प्रतिवादियों को यह अनुभूति कब होगी कि झगड़े निपटने चाहिए, तभी जिंदगी आगे चलेगी। यहां तो छोटी-छोटी बातों पर सरकार पर भी मुकदमें हो जाते हैं।
आंकड़ों के मुताबिक, इस समय सबसे अधिक मुकदमे सरकारी समस्याओं को लेकर ही हैं। चाहे वह नौकरी में तरक्की के लिए हों, पेंशन से संबंधित हों, या फिर दायर भत्तों के लिए हों। आखिर, कब हमारी नौकरशाही का कील-कांटा इस प्रकार दुरुस्त किया जाएगा कि बिना क्रांति के नारों के देश में सामाजिक-न्यायिक बदलाव आ जाए और लोगों को स्वाभाविक रूप से न्याय मिलने लगे और वे उम्रभर शोषित, प्रताड़ित अनुभव करते हुए मुकदमों की अगली तारीख का इंतजार न करते रहें।

लेखक साहित्यकार हैं।

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